हालांकि मूल मकसद एक बार फिर से जीवनसाथी संग कश्मीर की वादियों की सैर करना था, लेकिन कश्मीर के इस रूमानी पहलू का दूसरा पक्ष नजर हो तो नजरअंदाज कतई नहीं किया जा सकता। यह पहलू ही है सारे फसाद की जड़। यह है आम कश्मीरी की मुफलिसी यानी गरीबी। यह जैसी 1985 में मैंने देखी थी, वैसी ही आज भी है। है न ताज्जुब की बात। मुझे भी बहुत होता है क्योंकि 1985 में जिस टैक्सी ड्राइवर ने मुझे दस दिन में सोनमर्ग, पहलगाम, गुलमर्ग (खिलनमर्ग) की सैर कराई थी – नाम था जवाहरलाल – उसने मुझसे कहा था कि भारत सरकार ने इतना पैसा भेजा है कि कश्मीर की सारी सड़कें सोने की बन सकती हैं। फिर क्यों मुझे आज भी कश्मीर में एक शहर से दूसरे शहर के रास्तों पर टीन-छप्पर के जितने मकान लगातार नजर आए, उतने भारतवर्ष और 56 देशों की यात्रा में कभी कहीं नजर नहीं आए। इस गरीबी के बावजूद स्थानीय लोगों का व्यवहार इतना सरस, कहने में हिचक नहीं कि जयपुर भी पीछे छूट जाए। आम कश्मीरी के सादे और अनुशासित जीवन का अंदाज इस बार के टैक्सी ड्राइवर शौकत की इस बात से हुआ कि पूरे श्रीनगर में शराब की दुकानें मात्र दो हैं, जो भी अरसे से बंद हैं और होटलों में भी पर्यटकों को यह मुहैया नहीं करवाई जा रही है। और तो और कश्मीर में अपराध भी न के बराबर है।
कश्मीर के युवाओं को मुख्यधारा में लाना होगा
सोनमर्ग से आगे ग्लेशियर तक के सात किमी. के रास्ते पर मैंने यही देखा कि एक ओर कश्मीर में पर्यटन की गाड़ी को हांक रहा गरीब तबका है, जिसके लिए सुविधाओं का नामोनिशान तक नहीं है तो दूसरी ओर पर्यटन स्थलों से नदारद पर्यटन विभाग। इन रास्तों पर सुरक्षा, चिकित्सा सहायता, साफ-सफाई, प्रसाधन, भोजन-पानी और बैठने के लिए कुर्सी या बेंच तक का कोई इंतजाम सरकारी स्तर पर नहीं है। यह कहने में भी हिचक नहीं कि 35 सालों में एक प्रतिशत भी सुधार नहीं हुआ। कुछ सुरंगें, पुल और सड़कों को छोड़ दें तो सोनमर्ग से ग्लेशियर तक के जिस रास्ते का मैंने जिक्र किया, उसमें पांच जगहों पर लकड़ी के इतने कमजोर पुल हैं, जिन पर घोड़े भी नहीं जा सकते। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि पर्यटक को घोड़े पर बैठा घोड़ावान कैसे घुटनों तक बर्फीले पानी से इस पार से उस पार जाता होगा। यह आम कश्मीरी के संघर्ष का महज एक उदाहरण है। इसी प्रकार ‘पहलगाम’ से ‘बाईसरन’ सात किलोमीटर घोड़े पर जाना और लौटना। ऐसे रास्तों में नीचे देख लें तो रूह कांप जाती है। रास्ते ऊबड़-खाबड़ निहायत संकरे और दुर्गम। नदी के बीच पड़े बड़े-बड़े पत्थरों के बीच से घोड़ा ही है जो सुरक्षित ले भी जाता है और वापिस ले भी आता है। इन रास्तों पर भी मूलभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है।
जम्मू-कश्मीर पर भावी बैठक से उपजी उम्मीदें
जब एक पर्यटक होने के नाते यह सब मेरी नजर से अछूता नहीं रहा तो भारत का नागरिक होने के नाते मेरा जाहिर सवाल है कि 70 सालों में भारत सरकार ने कश्मीर को दिया पैसा किसके हाथों में सौंपा। यही सवाल मेरा भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक से भी है। इस सवाल के ईमानदार जवाब से ही मिल सकते हैं हमें आम कश्मीरी के शेष भारत से नाते को लेकर उठने वाले सवालों के जवाब भी। साधारण कश्मीर के नागरिकों का यह मानना है कि भारत सरकार के द्वारा जो भी सहायता वहां की सरकारों को भेजी जाती रही है, उनका उपयोग वहां के राजनीतिज्ञों द्वारा हमेशा किया जाता रहा। ऐसे ही जिन्हें हम अलगाववादी कहते हैं, उन्हें पाकिस्तान और अन्य देशों से जो भी राशि भेजी जाती रही है, उसका उपयोग उन्हीं के द्वारा किया जाता रहा है और उसका कोई फायदा वहां के नागरिकों को नहीं मिला है। पिछले चार वर्षों में भारत सरकार द्वारा ऐसे समस्त राजनीतिज्ञों/अलगाववादियों को नजरबंद कर दिया गया तो यह सबसे उत्तम मौका था कि भारत सरकार द्वारा भेजी गई राशियां वहां के नागरिकों तक सीधी पहुंचाई जाती। इससे निश्चित ही उनके दिलों की भारत सरकार के प्रति भावनाएं बदल जातीं, किन्तु अफसोस यह चार वर्षों का मौका भारत सरकार द्वारा गंवा दिया गया।
यह एक बड़ा सवाल है कि बीते 70 वर्षों में शेष भारतवर्ष के नागरिकों से कर के रूप में वसूली गई अरबों-खरबों रुपए की राशि कश्मीर के लिए कथित रूप से व्यय की गई और इसका नतीजा हमें क्या मिल रहा है?