दुर्बल हृदय विषाद का घर
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – दुर्बल हृदय विषाद का घर
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।। (गीता 2.3)
हे पार्थ! तुम मन की दुर्बलता रूपी नपुंसकता में मत जाओ। यह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। तुम जो कर रहे हो वह मन की दुर्बलता मात्र है। यह बाहर से आती है, अत: छोटी वस्तु है। इसे छोड़कर खड़े हो जाओ। तुम सदा शत्रुओं को क्लेश देने वाले रहे हो। अपनी वीरता को याद करो, उसे दिखाने का समय आया है। तब ऐसी कायरता क्यों?
कृष्ण कह रहे हैं कि तुम जो संग्राम छोडऩे की इच्छा कर रहे हो, वह (१) शिष्टाचार समझकर कर रहे हो, (२) धर्म समझकर कर रहे हो, या (३) बंधुओं को न मारने का यश पाना चाहते हो। तीनों कारण सही नहीं हैं। क्षत्रियों का युद्ध छोड़ देना शिष्टाचार नहीं है। संग्राम में खड़ा होकर कौन भागता है! शास्त्र विरुद्ध होने से धर्म तो हो ही नहीं सकता। स्वर्ग प्राप्ति भी नहीं हो सकती। भीरू माने जाओगे। यश नहीं, अपयश ही होगा। भय के कारण हृदय में दुर्बलता आती है, तुम तो वीर हो।
ज्ञान के अभाव में व्यक्ति का मन दुर्बल रहता है। कठिन परिस्थितियों में न कुछ निर्णय कर पाता है, न ही कोई संकल्प। अर्जुन के पास ज्ञान का अभाव नहीं था, किन्तु ज्ञान पर मोह का आवरण छा गया था। न ही क्षत्रिय की तरह युद्ध कर पा रहा था, न भाग पा रहा था। भीरू व्यक्ति अस्थिर (दुर्बल मन वाला) रहता है। कभी शरीर में, तो कभी आत्मा में। आत्मा के साथ उसका भी साम्राज्य चलता है। प्रारब्ध कर्म होते हैं, वर्ण होता है, प्रकृति होती है। ये भी तो मन-बुद्धि को प्रभावित करते चलते हैं। व्यक्ति का ध्यान साधारणत: इस ओर होता ही नहीं। वह शरीर एवं इन्द्रियों के बाहरी विषयों से ही बंधा रहता है। ऐसे असंतुलित मन वाला व्यक्ति संकल्पवान नहीं हो पाता। विषयों का आकर्षण मन पर भारी पड़ता है। अत: साधारण व्यवहार में स्थूलता परिलक्षित होती है। अर्जुन के सामने तो वातावरण ही शरीर से जुड़ा था, यही उसके दर्शन का आधार बना हुआ था। आत्मा पर मोह के आवरण छाए थे।
अर्जुन स्व-स्वरूप से भ्रमित था, विषादयुक्त विचलन भाव प्रगाढ़ होने से किंकर्तव्यविमूढ़ था। कृष्ण ने उसको प्रकृति का अंग होने, प्रकृति के चक्र के भीतर जीने और स्वयं को साक्षी मानकर सोचने का उपदेश दिया। अर्जुन की अपनी मान्यताएं थीं, अपना व्यक्तित्व था, अनुभूतियां थीं। अचानक कैसे समझौता कर सकता था। वैसे भी किसी परिपक्व व्यक्ति के लिए यह कार्य कठिन ही है। अनेक प्रकार के अभ्यासों से, कष्ट झेलते हुए व्यक्ति स्वयं को किसी एक ढांचे में तैयार करता है। कुछ संस्कार पिछले जन्मों के और इस जन्म के भी, उसको बांधे रहते हैं। प्रश्नों की झड़ी लगा दी उसने कृष्ण के आगे।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण अवश्य आते हैं। अवसाद के क्षण भी आते हैं, तूफान भी आते हैं। ईश्वर भी समय-समय पर परीक्षा लेता रहता है। व्यक्ति विचलित हो जाता है। जो व्यक्ति एक संतुलित जीवन जीता है- शरीर और आत्मा को एक समझकर जीता है, वह किसी भी परिस्थिति में अस्थिर नहीं होता। उक्त श्लोक मूल में हृदय शब्द की ओर इंगित कर रहा हैं। हृदय की दुर्बलता से मोह जन्म की परिस्थिति बनी। जो व्यक्ति इन्द्रियों पर- चित्त पर नियंत्रण कर लेता है, वही वीर कहलाता है। दुर्बल हृदय में वीर बनने की शक्ति नहीं रह जाती। उसे प्रेरित करने की आवश्यकता होती है।
‘हृदय’ हमारे प्राण शरीर अथवा अक्षर सृष्टि का केन्द्र है। किसी भी वस्तु के निर्माण से पहले उसके हृदय, नाभि या केन्द्र का निर्माण होता है। इसी को अहंकृति कहते हैं। इसी के आधार पर वस्तु की आकृति निर्भर करती है। वस्तु का स्वरूप इसी के आधार पर टिका रहता है। हृदय शब्द में ही इस मौलिक तत्त्व की व्याख्या निहित है। यही तो वेद की शैली है। ‘हृ’ अक्षर-हञ् हरणे से, ‘द’-दो अवखण्डने से, तथा ‘य’-यम् से बना है। तीनों अक्षरों का अर्थ है-आहरण-खण्डन-नियमन। इसी को आदान-विसर्ग-यम् कहते हैं। यम् के आधार पर ही आदान-विसर्ग क्रिया चलती है। यही श्वास-प्रश्वास है, यही स्पन्दन है। यही अपानन और प्राणन है। जीवन का आधार है।
स्थूल शरीर अन्नमय कोश है, हृदय प्राणमय कोश है। प्राण की गति से ही इन्द्रियां कार्य करती हैं। प्राण की गति का आधार मन है। प्राण सदा मन का अनुसरण करता है। मन-प्राण-वाक् ही मिलकर हमारा आत्मा कहलाते हैं। मन दुर्बल, तो प्राण दुर्बल। प्राण दुर्बल तो क्रिया दुर्बल। व्यक्ति निढ़ाल हो जाता है। अर्जुन की तरह धनुष-बाण-छोडक़र बैठ जाएगा। यही हृदय दौर्बल्य है।
प्राण एक ओर शरीर और इन्द्रियों को गति देते हैं, दूसरी ओर हृदय-स्थित प्राणों का संचरण भी करते हैं। हृदय की दुर्बलता से यह संचरण निर्बल हो जाता है। ‘हृदय’ के तीनों अक्षर प्राण ही क्रमश: विष्णु-इन्द्र और ब्रह्मा प्राण हैं। ब्रह्मा प्राण ही हृदय की प्रतिष्ठा है। यही ब्रह्म है। प्राणों की दुर्बलता से हृदय का व्यापार भी मन्द पड़ जाता है। आत्मा (अव्यय पुरुष) की ओर गति शिथिल हो जाती है। शरीर भी शिथिल हो जाता है। ऊर्जावान मन ही गतिमान रहता है। आदान-विसर्ग की प्रक्रिया भी मन के संकल्प पर ही स्वस्थ रहती है। वीरता ही इसका उत्तर है। वीरता का आधार वर्ण है।
ब्रह्म-क्षत्र्-विट् तीन वर्ण हृदय के ब्रह्मा-इन्द्र-विष्णु प्राणों का व्यावहारिक स्वरूप हैं। इनके परिणाम ज्ञान-क्रिया-अर्थ हैं। जीवन के मूल में तीन पहलू ही व्यापक हैं। अर्जुन क्षत्रिय था। उसकी क्रिया अधिक प्रभावित हुई। ब्राह्मण होता तो ज्ञान प्रभावित होता। वैश्य का दुर्बल हृदय उसके वित्त को प्रभावित करता है।
गीता में कृष्ण ने वर्ण को ही धर्म रूप में स्थापित किया है। अर्जुन का वर्ण क्षत्रिय था। अपने वर्ण के अनुरूप उसे युद्ध में नियोजित कर कृष्ण ने यह सिद्धान्त स्थापित किया कि प्रत्येक व्यक्ति उसी कर्म में सफल हो सकता है, जिस कर्म में उसका वर्ण जुड़ा हो। यह वर्ण आत्मा का धर्म है, शरीर से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। सामान्य जीवन में भी देखा जा सकता है कि ब्राह्मण जाति के व्यक्ति वैश्यगत कर्म में अथवा वैश्य जाति के व्यक्ति अध्यापन आदि कर्मों में शीर्ष पर पहुंच जाते हैं। इसका कारण यही है कि कर्म का जाति से नहीं अपितु वर्ण से सम्बन्ध है। यह वर्ण उनके आत्मा से जुड़ा है न कि शरीर से। अत: अपने वर्णानुरूप कर्मों में जुड़ने से द्वन्द्व पैदा नहीं होता।
अक्षर का आलम्बन अव्यय है-ईश्वर भाव है। इसके लिए नियमित अभ्यास चाहिए। अथवा गुरु की शरण। मन चार प्रकार के है-इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन, महन्मन और श्वोवसीयस मन। गुरु की भी चार अवस्थाएं होती हैं-गुरु, परम गुरु, परमेष्ठी गुरु और परात्पर गुरु। मन की चारों स्थितियों के समकक्ष हैं। शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा भी हमारे चार स्तर हैं। हृदय सबका नियमन करता है।
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