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संतों के समर्थन से सत्ता की राजनीति

चुनावी दंगल: वर्तमान परिस्थितियों में आप कह सकते हैं कि ‘अब तो संतों को सीकरी से ही काम’

जयपुरOct 03, 2024 / 10:05 pm

Nitin Kumar

राज कुमार सिंह
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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कभी संत कुंभनदास ने लिखा था- ‘संतन को कहां सीकरी काम।। आवत जात पन्हैयां टूटीं, बिसरि गयौ हरि-नाम।।’ ये पंक्तियां मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में लिखी गई मानी जाती हैं। आशय था कि संत को सीकरी (तब की राजधानी, अब जिसे फतेहपुर सीकरी कहा जाता है) से क्या काम? तब बादशाह का हुक्म ही व्यवस्था होता था। फिर भी संत को सत्ता से निकटता की चाह नहीं थी। शायद सत्ता भी नजदीकियों की अपेक्षा नहीं रखती थी, पर अब लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी दोनों की बढ़ती निकटता सवाल खड़े करती है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और धर्म एवं राजनीति के घालमेल को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं माना जाता। फिर भी कई संत और राजनीतिक सत्ता भी परस्पर निकटता के लिए लालायित रहते हैं। धर्मगुरुओं से राजनीतिक दलों-नेताओं की निकटता की चर्चा चुनावों के समय ज्यादा होती है। दरअसल उनके रिश्तों का आधार ही चुनावी गणित है। चुनावी राजनीति को यह रिश्ता सबसे ज्यादा पंजाब और उसी से अलग हो कर राज्य बने हरियाणा में प्रभावित करता है।
अब जबकि हरियाणा की 15वीं विधानसभा के लिए मतदान की तारीख दूर नहीं, यह रिश्ता बहस का विषय है। पंजाब और हरियाणा में ज्यादा चर्चा डेरा सच्चा सौदा की रहती है। इसलिए भी कि दोनों राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों में असर वाला यह डेरा अपने प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह के चलते विवादास्पद रहा है। धर्म प्रवचन से लेकर फिल्मी परदे तक छाने के महत्त्वाकांक्षी राम रहीम को हत्या और बलात्कार के अपराध में 20 साल की सजा सुनाई जा चुकी है। बाबा को सजा सुनाए जाने पर अनुयायियों की हिंसा में हरियाणा में 38 लोग मारे गए थे। ऐसे बाबा के विरुद्ध जांच और अदालत से सजा की प्रक्रिया की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
रोहतक की सुनारिया जेल में सजा भुगतने वाले राम रहीम को पांच साल में १० बार, कुल मिला कर 265 दिन की पैरोल या फरलो मिल चुकी है। हरियाणा में चुनाव की घोषणा 16 अगस्त को हुई, उससे पहले ही बाबा को 12 अगस्त को 21 दिन की फरलो मिल गई। सुनारिया जेल के जेलर सुनील सांगवान को अब भाजपा टिकट दे दिए जाने से तो इस स्वयंभू संत और सत्ता के संबधों पर सवाल और संदेह, और भी गहरे हो गए हैं। सत्ता की ऐसी उदारता का दूसरा उदाहरण शायद ही मिले, पर बाबा का सिक्का ही कुछ ऐसा चलता है। हरियाणा में लोकसभा की पांच और विधानसभा की 22 सीटों पर डेरा का असर माना जाता है। सो, तमाम दलों के नेता हाजिरी लगाते हैं। डेरा सच्चा सौदा का सिक्का हर बार चल जाता हो, ऐसा भी नहीं है। लोकसभा चुनाव में समर्थन के बाद भी भाजपा दस से पांच पर सिमट गई। पंजाब में 2002 में डेरे के समर्थन से कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बन गई, पर 2007 में ऐसा नहीं हुआ।
पंजाब और हरियाणा में डेरों की कमी नहीं, पर उनमें से कुछ का असर अन्य राज्यों में भी है। इन्हीं में से एक है राधास्वामी ब्यास। वेबसाइट के मुताबिक, 1891 में स्थापित इस डेरे के अनुयायी 90 देशों में हैं, पर ज्यादा संख्या पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी डेरा जा चुके हैं। लोकसभा चुनाव के समय भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल और आप के नेताओं ने हाजिरी लगाई थी। डेरा आम तौर पर किसी दल का समर्थन नहीं करता, पर रुझान की चर्चा हर बार होती है। पिछले दिनों डेरा में हुई आंतरिक हलचल से राजनीतिक दलों की धडक़नें भी तेज हो गईं। खबर आई कि डेरा मुखी गुरिंदर सिंह ढिल्लो ने 45 साल के जसदीप सिंह गिल को उत्तराधिकारी बनाया है। कुछ ही घंटों में दूसरी खबर आई कि गिल नए प्रमुख नहीं होंगे, बल्कि ढिल्लो के साथ ही बैठेंगे। दोनों सूचनाएं प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गईं, जो सामान्यत: डेरा संबंधी मामलों में नहीं होता। बाद में ढिल्लो और गिल ने संयुक्त समागम भी किया, जो पहले कभी नहीं हुआ। दलों-नेताओं की चिंता रही कि नए प्रमुख का अर्थ होगा, नए सिरे से शुरुआत।
पंजाब के निरंकारी, नामधारी, नूर महल और सच्चखंड बल्ला डेरों का भी हरियाणा में थोड़ा-बहुत असर है, पर कई स्थानीय डेरे ज्यादा प्रभावशाली हैं। सतलोक आश्रम के संत रामपाल जेल में हैं, पर प्रभाव की आस कई दल व उम्मीदवार लगाए रहते हैं। रोहतक स्थित मस्तनाथ मठ का असर रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ तक है। नाथ संप्रदाय के इस मठ के महंत बाबा बालकनाथ राजस्थान में भाजपा विधायक हैं। वह अलवर से भाजपा सांसद भी रह चुके हैं। तमाम नेताओं के हेलिकॉप्टर मस्तनाथ विश्वविद्यालय में उतरते रहे हैं।
इनके अलावा भी गोकरण धाम, कपिल पुरी धाम, कालीदास महाराज, ईश्वर शाह, महंत सतीश दास समेत कई डेरे अलग-अलग क्षेत्रों में असर रखते हैं और राजनीतिक दलों में रसूख भी। 2014 में इनेलो के टिकट पर महम से चुनाव लड़ कर तीसरे स्थान पर रहे सतीश दास बाकायदा भाजपा में शामिल हो चुके हैं तो गोकरण धाम के प्रमुख करण पुरी खुद चुनाव लडऩे से इनकार करते हुए किसी के लिए टिकट लाने की हैसियत का दावा करते हैं। दलों और नेताओं से निकटता से परहेज किसी संत को नहीं लगता। आप कह सकते हैं कि ‘अब तो संतों को सीकरी से ही काम।’

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