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Patrika Opinion: समान अवसर में बाधक होंगी डिजिटल रैलियां

Patrika Opinion: राजनीतिक दलों को डिजिटल रैली के जरिए चुनाव प्रचार करना होगा। डिजिटल माध्यमों के मामले में सिर्फ भाजपा सबसे मजबूत है, जबकि बाकी दल बहुत पीछे हैं। ऐसे में सभी दलों को समान अवसर की बात बेमानी लग रही है। हालांकि आयोग इस फैसले की समीक्षा करेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात के हिसाब से कोई तर्कसंगत निर्णय लिया जाएगा।

Jan 10, 2022 / 10:25 am

Patrika Desk

समान अवसर में बाधक होंगी डिजिटल रैलियां

समान अवसर में बाधक होंगी डिजिटल रैलियां

Patrika Opinion: उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने कोरोना के बढ़ते खतरे के मद्देनजर अपील की थी कि अगर संभव हो तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव एक-दो महीने टाल दिए जाएं। दूसरी ओर, सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से कहा था कि कोरोना को लेकर पाबंदियां भले बढ़ा दी जाएं, चुनाव न टाले जाएं।

पांच साल के अंतराल में नई विधानसभा का गठन न होने से इन राज्यों में संवैधानिक संकट खड़ा हो सकता था। जब पहली व दूसरी लहर के दौरान बिहार व पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव कराए जा चुके हों, तो अब चुनाव टालने का कोई ठोस आधार नहीं था। कोरोना के मामले जरूर तेजी से बढ़ रहे हैं, पर हालात इतने बेकाबू नहीं हैं कि जरूरी संवैधानिक प्रक्रियाओं पर अंकुश लगाया जाए।

कोरोना काल में चुनावी रैलियां चिंता का सबसे बड़ा कारण हैं। चुनाव आयोग ने फिलहाल 15 जनवरी तक इन पांच राज्यों में रोड शो, रैली और पद यात्रा पर रोक लगाई है। राजनीतिक दलों को डिजिटल रैली के जरिए चुनाव प्रचार करना होगा। आयोग 15 जनवरी के बाद इस फैसले की समीक्षा करेगा और हालात के हिसाब से अगले दिशा-निर्देश जारी किए जाएंगे।

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कोरोना काल में ज्यादातर कामकाज ऑनलाइन हो रहे हैं, पर चुनाव प्रचार को डिजिटल रैलियों तक सीमित करने से राजनीतिक दलों की परेशानी बढ़ सकती है। खासकर उन दलों की, जो विधिवत प्रचार शुरू नहीं कर सके हैं। मसलन उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की अब तक कोई बड़ी रैली नहीं हुई है। रैलियों पर पूर्ण पाबंदी चुनाव में सभी दलों को समान अवसर देने के लोकतांत्रिक सिद्धांत के प्रतिकूल होगी, जबकि आयोग फैसले पर पुनर्विचार कर रैलियों को सीमित कर सकता है, कोरोना प्रोटोकॉल को लेकर इन्हें निगरानी तंत्र के दायरे में ला सकता है।

चुनाव प्रचार को डिजिटल रैलियों तक सीमित करने से राजनीतिक दलों को उसी तरह की समस्याओं से दो-चार होना पड़ सकता है, जो स्कूलों की ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई में महसूस की जा रही हैं। डिजिटल क्षमताओं के मामले में राजनीतिक दलों के बीच काफी असमानता है।

सिर्फ भाजपा सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों के मामले में सबसे मजबूत है। उसके पास ब्लॉक स्तर तक आइटी सेल हैं और वॉट्सऐप पर भी वह बड़ा नेटवर्क तैयार कर चुकी है। जबकि बाकी दल बहुत पीछे हैं। चुनाव आयोग को इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि दलों की बात लोगों तक और लोगों की बात दलों तक पहुंचे।

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