उकसावे की इस कार्रवाई की शुरुआत रूस ने की थी, जब उसने यूक्रेन की सीमाओं पर अपने एक लाख से ज्यादा सैनिक तैनात कर दिए थे। हालांकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कह रहे हैं कि यूक्रेन पर हमले की कोई योजना नहीं है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि क्रीमिया पर कब्जे के बाद से ही रूस की नजरें यूक्रेन पर हैं। पश्चिमी देश यूक्रेन को नाटो समूह में शामिल करना चाहते हैं।
रूस नहीं चाहता कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग देश बना यूक्रेन किसी भी कीमत पर पश्चिमी देशों के हाथों में जाए। वर्चस्व बनाए रखना ही यूक्रेन को लेकर चल रही रस्साकशी की असली जड़ है। अमरीका और रूस के बीच इसी तरह की वर्चस्व की लड़ाई अफगानिस्तान को तबाह कर चुकी है। सीरिया में भी दोनों महाशक्तियां वर्चस्व का खेल दिखाती रही हैं। वहां भी कई बेकसूरों की जान गई और एक बड़ी आबादी पलायन के लिए मजबूर हुई।
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सबसे बड़ा खतरा दुनिया के दो खेमों में बंटने का है। यूक्रेन के मुद्दे ने इसके लिए जमीन तैयार कर दी है। चीन ने रूस के समर्थन के संकेत देकर मामले को और गंभीर बना दिया है। जैसे यूक्रेन पर रूस अपना दबदबा चाहता है, चीन ने उसी तरह के अतिक्रमण के मंसूबे ताइवान को लेकर पाल रखे हैं। इन मंसूबों को भांपकर अमरीका को चेतावनी देनी पड़ी है कि चीन, यूक्रेन के मुद्दे को ताइवान से जोडऩे की कोशिश न करे।
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चीन जैसा अलोकतांत्रिक देश अगर रूस से नजदीकियां बढ़ाता है, तो बाकी दुनिया के साथ-साथ यह भारत के लिए भी खतरे की घंटी है। रूस-चीन गठबंधन, रूस से भारत के दशकों पुराने दोस्ताना रिश्तों को प्रभावित कर सकता है। यूक्रेन के मुद्दे पर भारत अब तक तटस्थ रहा है, पर अमरीका और रूस के तनाव को कम करने के लिए यदि वह कोई पहल कर सकता है, तो फौरी तौर पर इस दिशा में सक्रियता दिखाई जानी चाहिए।