मां-माता-मदर सबके अर्थ एक नहीं हैं। आज शिक्षा ने मां को माता (देहमात्र) बना दिया। ‘मदर्स डे’ ने उसे इतिहास के पन्नों में डाल दिया। उधर शिक्षित मां को रसोई से विमुख कर दिया। समृद्धि ने संतान को दूर छात्रावास भेजने को प्रेरित करना शुरू कर दिया। जहां शिक्षा-समृद्धि दोनों हैं, वहां संतान की आवश्यकता अल्पतम रह गई है। संतान दैहिक या जैविक होने लगी। संतान ने परम्परा से दूर रूढ़ि का रूप ले लिया। शादी की है तो एक संतान तो पैदा करनी है चाहे ऑपरेशन से करा लो। जीवन का धरातल बदल गया है। मन का स्थान भी बुद्धि ने घेर लिया। मन गया, मानवता गई। बुद्धि ने जीवन को यांत्रिक बना दिया।
भारत में अन्न को ब्रह्म कहा है। यह भी उद्घोष है कि जैसा खावे अन्न, वैसा होने मन। इससे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि अन्न ही ब्रह्म का यात्रा मार्ग है। सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि का पिता है। जीव वहां से सूक्ष्मतम रूप से चलता हुआ स्थूल आकृति में प्रवेश करता है। उसकी यह यात्रा अन्न के साथ चलती है। जिसे भोक्ता ग्रहण करे वह अन्न। अग्नि ही वह भोक्ता है जिसमें अन्न नया स्वरूप लेने के लिए प्रवेश करता है। सूर्य से चलकर पांचवीं आहुति में जीव स्थूल शरीर धारण करता है। इससे पहले जीव की चार माताएं हो चुकी होती हैं। माताएं ही जीव को कर्म करने के लिए आकृति प्रदान करती हैं। जीव, अन्न द्वारा पिता के शरीर में प्रवेश करता है। पिता के प्राण उसमें स्थापित होते हैं। उसी से नई संतान पैदा करने की क्षमता पुत्र में आती है। पिता के शरीर से जीव माता के शरीर में जाता है और शरीर धारण करके समय के साथ विदा हो जाता है। दाम्पत्य भाव जीव का यात्रा मार्ग है।
अन्न का दूसरा कर्म है शरीर का निर्माण। यह भी प्रत्येक प्राण की आवश्यकता है। अन्न शरीर की जठराग्नि में आहुत होता है। वहां उसका रस भाग अलग किया जाता है। रस ही ब्रह्म है-आनन्द है। जिसमें रस नहीं, वह नीरस है। अन्न का महत्वपूर्ण ज्ञान यह समझने में है कि रस कहां से आता है। रस-मिठास-मन-आनन्द सबका केन्द्र एक ही है। रस से आगे रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र बनते हैं।
मानवता का पाठ मां के आंचल में
शुक्र संचय से आगे ओज और मन का निर्माण होता है। मन ईश्वर का मन्दिर है। आप जैसा अन्न इनको चढ़ाएंगे, वैसा ही आपका स्वरूप बनता चला जाएगा। शाकाहार सात्विक रूप में दिव्यता देता है। मांसाहार तामसी स्वभाव-रूखेपन का, क्रूरता का प्रेरक है। जीवन को आसुरी सम्पदा से जोड़ता है। शाकाहार में वनस्पति, अन्न, औषधियों का पोषण प्रकृति की (चन्द्रमा की) सौम्यता से होता है। मन में उसी प्रकार के विचारों का सिलसिला बनने लगता है। मुझे भक्ति करनी है और मांसाहार मेरा अन्न है तो? मैं स्वयं से झूठ बोलता हूं। क्रूरता का पोषण भक्ति के विरूद्ध भाव पैदा करेगा। मन मांगे और वही मिलेगा तो प्रसन्न भी होगा। बुद्धि गर्म होती है। मन की चलने नहीं देती। इसकी दुनिया में कहीं भी मिठास नहीं मिलेगा आपको। इससे बड़ी बात! खाना कैलोरी-प्रोटीन-ग्लूटन नहीं है। ये शरीर से जुड़े हैं। मन का पोषण नहीं कर सकते। मन का पोषण केवल मन से होता है। मानवता-संवेदना-प्रेम-भावना ही मन की खुराक है। यह सम्पदा स्त्रियों में भी होती है। मां में सर्वाधिक होती है। पिता दिमाग से पालता है बच्चों को। नहीं पालना चाहिए। बच्चे नीरस होते चले जाएंगे। मानवता का पाठ मां के आंचल में है। वहां वात्सल्य है, अपेक्षा भाव नहीं है, वहां त्याग है। सबसे बड़ा उत्कर्ष उसके अपनेपन में है। एकात्म भाव है।
पिता बीज देता है, मां आकृति देती है। पोषण करती है। पिता आग्नेय है, मां सौम्य मूर्ति है। पिता की उष्णता से भी रक्षा करती है। मां का अन्न-धरती मां का अन्न-चन्द्रमा का मन-शुक्र की सौम्यता, सब मिलकर मां को सौम्य बनाते हैं। शरीर के अतिरिक्त मन-बुद्धि-आत्मा का भी अपना अन्न होता है। यह सारा अन्न गर्भावस्था में संतान के पोषण के काम आता है। शरीर मां देती है। शरीर को उम्र के साथ बड़ा भी मां करती है। वह प्राण बनकर शरीर में प्रवाहित होती रहती है। वरना शरीर की वृद्धि ठहर जाएगी। पिता शरीर में नया बीज तैयार करता है। हमारा शरीर माता के शरीर का अंश ही तो है। उससे बाहर कहां है?
मां जानती है-संतान किस शरीर को छोड़कर इस घर में आई है। वहां क्या खाती थी, क्या करती थी और इस परिवार में आने का क्या उद्देश्य है। पिता ये सब नहीं जान सकता। मां संतान को पहले इंसान बनाती है। संस्कार देती है, उसकी भावी भूमिका समझाती है, अपने सम्बन्ध की (मन की) मिठास घोलती है। अपने सपनों से जोड़ती है। जीवन की पूर्णता प्रदान करके समाज को सौंपती है।
अन्न को ब्रह्म कहते हैं। अपने शरीर का अन्न देकर संतान ब्रह्म को जीने की क्षमता देती है। इस देश का किसान भी मां है। बीज बोने से पहले धरती मां की, हल की, इन्द्र देवादि की पूजा करता है। उसका अन्न सात्विक प्राणों का आश्रय बने। उसके अन्न से ही जीव भोक्ता के शरीर में प्रवेश करेगा। उसका सदा मंगल हो। व्यापारी की नीयत भी अन्न पर अपना प्रभाव छोड़ती है। आज तो कीटनाशक और रसायन, बीजों के शत्रु बन बैठे। आसुरी रूप से प्रहार कर रहे हैं।
यह सारा प्रपंच अन्न के शरीर से जुड़ा है। अन्न के भी मन होता है। उसमें ब्रह्म आत्मा रूप में रहता है। वह मर नहीं सकता।
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: ॥’ (गीता 2/23)
फसल के साथ कटता है। चक्की में पिसता है, आग पर सेंका जाता है, जठराग्नि में पचता है। जीव फिर भी नहीं मरता। पुन: स्त्री की योषाग्नि में आहुत होता है। नई आकृति में बन्द हो जाता है। जीवित रहता है। इस अन्न को जब मां खाने के लिए तैयार करती है, तब उसमें मां की सौम्यता, मां का स्नेहन और उसके मन के भाव अन्न में प्रतिष्ठित ब्रह्म के साथ जुड़ जाते हैं। तीनों मन-प्राण-वाक् रूप आत्मा हैं-मां की। मां रोटी सेंकती है तो मन में प्रार्थना करती जाती है कि संतान/पति इसको खाकर निर्मल बनेगा, बुद्धिमान बनेगा, घर का नाम करेगा, सबसे प्रेम करेगा…आदि। गर्भावस्था में भी मां बिना शब्दों के भावों से ही संतान का पोषण करती है। अब भी मन के भावों से ही, स्थूल अन्न के माध्यम से, मन का पोषण करती है। यह स्त्री का सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। इससे सम्पूर्ण परिवार के मन का सींचन/परिवर्तन कर सकती है।
संतान को देखकर मां सदा प्रसन्न होती है। श्रद्धायुक्त होती है। संतान ही उसे मां का दर्जा देती है। प्रसव पीड़ा में काल के मुंह से निकालती है। अत: मां की सम्पूर्ण शक्तियां और मनोभाव संतान के शरीर में बहते रहते हैं-अनवरत-मृत्यु पर्यन्त!