यह कहानी आज की नहीं है। वन विभाग के अफसर या तो खनन पट्टों को वन भूमि में दिखाने में, या फिर बाहर करने में व्यस्त रहते हैं। क्योंकि वन विभाग ने अपनी भूमि की तारबन्दी नहीं की है। ऐसे दर्जनों मामले मीडिया में आ चुके हैं। दूसरा, इनको श्रेय जाता है, वन विभाग की भूमि, आस-पास की निषिद्ध भूमि पर अतिक्रमण करने और कराने के लिए। इनके पास पुलिस की तरह के अधिकार भी होते हैं और शिकारियों का विवरण भी। न तो जानवरों में आपसी संघर्ष का वीडियो होता है, न ही सड़क दुर्घटना का। एक सुविधा इनके पास और है घायलों/मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने की। इनके क्षेत्र वैसे भी आदमी के लिए बन्द ही होते हैं। अत: ये खास लोगों से मिलकर ‘देश की सेवा’ में लगे रहते हैं। सवाईमाधोपुर, सरिस्का और जयपुर ने इनके काले चेहरे उजागर कर दिए। इनको बुरा भी कुछ नहीं लगता। पुलिस की तरह कितना ही कोसते रहो। ये कागजों में जांच करते रहेंगे, रिपोर्ट बदलते रहते हैं। आज ही समाचार है कि ‘कई होटल-रेस्टोरेंट को सरिस्का बफर एरिया से बाहर निकाल दिया।’ पहले पढ़ चुके हैं कि कई होटलों को रिपोर्ट में दिखाया ही नहीं था। यह भी जानते हैं कि सिलीसेढ़ झील संरक्षित घोषित हो गई। इस क्षेत्र में कोई कारोबारी प्रतिष्ठान संचालित नहीं हो सकता। इनके दिल भी अवैध शिकारी होने लगे हैं। कोर्ट के आदेश भी धूल चाट गए-इतिहास गवाह है।
अच्छे ग्रह-गोचर भी चल रहे हैं। जयपुर-आमेर-झालाना-आमागढ़-नाहरगढ़ में ही लगभग 80 बघेरे हैं। झालाना जैसे आबादी के क्षेत्र में इनका डर प्रतिदिन बना रहता है। वन विभाग की बहादुरी इनको रेस्क्यू करने (पकड़कर बचाने) में दिखाई देती है। भीतर रखने में कभी सफल नहीं हुए। अलवर के आस-पास देख लो।
बघेरे बढ़ रहे हैं-चुनौतियां बढ़ रही हैं-अफसर बढ़ रहे हैं। क्षेत्र उतना ही है, बढ़ नहीं रहा। चुनौती है-एक म्यान में दो तलवार। कहीं वर्चस्व का संघर्ष है, कहीं भूख से, कहीं शहरी आक्रमण से। कहीं-कहीं वन भूमि पर नेताओं-अधिकारियों के अवैध कब्जे क्षेत्र को संकुचित करते जा रहे हैं। खान और वन मंत्री तथा इनका मंत्रालय जिस प्रकार से विभाग का संचालन कर रहे हैं, जनता को भयग्रस्त करके बैठे हैं, कानूनी दांव-पेच लड़ाते हैं, उस पर किसी का बुलडोजर नहीं चला। दशकों से कब्जे चल रहे हैं।
करीब ढाई साल पहले वन विभाग ने योजना बनाई कि हिंसक पशुओं के लिए भरतपुर से चीतल लाने की व्यवस्था करेंगे। योजना को सरकार की स्वीकृति भी मिल गई थी। बाद में अधिकारी ही तैयार नहीं हुए। ऐसी जानकारी मिली है। आज पैंथर, श्वानों-गायों व भेड़-बकरियों को खा रहे हैं। भोजन की तलाश में जब बस्ती में निकलते हैं, तब लोगों के आक्रोश को भी झेलना पड़ता है। वन विभाग भूखे जानवरों को ‘रेस्क्यू’ करके गाल फुलाता है।
बढ़ती संख्या और घटता क्षेत्र इनके आपसी संघर्ष का निमित्त बनता रहता है। वर्चस्व का अपना संघर्ष होता है, उसमें जितनी मौतें होती हैं, वे भी उपहार बन जाती हैं। हाल ही में रणथम्भौर में बाघ टी-120 तथा टी-121 में खूनी संघर्ष हुआ था। इससे पूर्व बाघिन एरोहेड की पुत्रियों-रिद्धि-सिद्धि में खूनी संघर्ष हुआ, जिसके वीडियो भी वायरल हुए। एरोहेड का ही दूसरे बाघों से खूनी संघर्ष हो चुका है। बाघिन टी-114 की मृत्यु भी खूनी संघर्ष में ही हुई। राज्य में 75 से अधिक छोटे-बड़े बाघ हैं। क्षेत्र में अतिक्रमणों की होड़ लगी है। झूठी रिपोर्टें बन रही हैं। क्षेत्र घटता जा रहा है। जानवर शांत आश्रय की तलाश में सरिस्का-अलवर के आस-पास भटकते रहते हैं। बाघ एसटी-24 अब अचरोल-जमवारामगढ़ के आस-पास ही संघर्षरत है। 12-13 वर्ग किलोमीटर तो अतिक्रमण में गया। एसटी-4 भी संघर्ष में मारा गया। ‘संघर्ष’ शब्द की विवेचना सहज नहीं है।
झालाना के आधे क्षेत्र में बाघ ‘राणा’ का साम्राज्य है। यहां भी 40 छोटे-बड़े बघेरे हैं। क्षेत्र मात्र 20 वर्ग किलोमीटर है। आमागढ़ में भी 6-7 हैं। इस वर्ष हुई गणना में 253 पैंथर गिने गए। जानकार दोगुना मानते हैं। इस वर्ष सितम्बर तक 329 पशु शिकार हो चुके हैं। राजसमंद के उपवन संरक्षक गर्व से कहते हैं कि पशु मालिकों को उचित मुआवजा दिया जाता है। उधर स्थानाभाव में पर्यटकों को मजे आ रहे हैं। चारों ओर जानवर ही जानवर!