scriptपत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख- बिन पानी सब सून… | patrika group editor in chief gulab kothari special article 8 september 2024 bin paanee sab soon | Patrika News
ओपिनियन

पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख- बिन पानी सब सून…

देने वाला तो छप्पर फाड़कर देता है। लेने वाले दरिद्र हैं, उम्रभर रोते रहते हैं। राजनीति खुद भी अंधी खेती बन गई है।

जयपुरSep 08, 2024 / 10:41 am

Gulab Kothari

gulab kothari
गुलाब कोठारी
देने वाला तो छप्पर फाड़कर देता है। लेने वाले दरिद्र हैं, उम्रभर रोते रहते हैं। राजनीति खुद भी अंधी खेती बन गई है। क्षुद्र स्वार्थ के आगे देश छोटा पड़ता जा रहा है। फिर से प्रादेशिक राजघराने पैदा होते जा रहे हैं, जो देश से भी बड़े हैं। प्रकृति ने जो वैभव दिया उसका बंटवारा भी वोटों के अनुपात में, सत्ताधीशों के स्वार्थों के अनुसार ही होता है। जनता इन दोनों ही श्रेणी में नहीं आती। अत: इनकी चिन्ता जैसे पुराने राजा नहीं करते थे, आज के राजनेता भी नहीं करते।
आज विश्वभर में जल संकट है-क्यों? क्या बरसात कम हो रही है अथवा उस पानी को संग्रह नहीं किया जाता? कई देशों में संग्रह भी होता है, किन्तु उसका लाभ प्रभावी लोग अधिक उठाते हैं। बांध-नहरें-भू-जल दोहन के स्वरूपों का आकलन करें तो समझ में आ जाएगा। ईश्वर ने सृष्टि बनाई, उसके खाने-पीने की व्यवस्था की। मानव-पशु-पक्षी आदि सभी के लिए जल उपलब्ध कराया। आज सब उल्टा होने लगा है। कुल उपलब्ध जल का 80-85 प्रतिशत भाग खेती में खप रहा है। पीने के लिए मात्र 10 प्रतिशत तथा शेष में उद्योग धंधे आदि। क्योंकि खेती आवश्यकता से आगे जाकर व्यापार बन गया। सृष्टि छोटी रह गई।
राजनीति, मानवता के हितों को नजरअंदाज करने लगी है। जो सावधानी प्रकृति ने रखी थी उसे भी धीरे-धीरे नकारती गई। जितना जल ईश्वर देता है, वह भी कम पड़ने लगा। व्यापार सर्वोपरि हो गया। आपातकाल-अकाल आदि के लिए भूमिगत जल की व्यवस्था को भी लूटना शुरू कर दिया। पूरी सृष्टि का हिस्सा केवल कृषि व्यापार में? क्या यह सृष्टि का अपमान नहीं है? आज भी जितना भू-जल स्तर वर्षा से बढ़ता है, उसका 25 प्रतिशत से ज्यादा का दोहन होता है। इसके बाद भी कृषि आय नहीं बढ़ी उल्टी खाद्यान्न की गुणवत्ता भी घटी है। पर्यावरण भी दूषित होता जा रहा है। सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से मिलकर रिपोर्टें भी बनवाई किन्तु विपरीत परिणाम उजागर होने के डर से दबा दी गई। इधर छीजत भी बढ़ी है। बड़, पीपल के पेड़ लुप्त होने लगे। कम जल खपत की फसलें भी घटीं, बाजरा-ज्वार जैसी। 56 प्रतिशत क्षेत्र में भूजल 2 से 4 मीटर नीचे गया। इनमें राजस्थान के पुराने 21 जिले प्रभावित हुए।
सड़कों के फैलते जाल और बहुमंजिला इमारतों की बसावट ने वर्षाजल पुनर्भरण (रिचार्ज) का क्षेत्र कम कर दिया। जल के संग्रह-उपयोग को लेकर कोई मास्टर प्लान नहीं बना। किसी प्रकार का नया नीति-निर्धारण भी नहीं हुआ। गांवाें का शहरीकरण, शहरों का फैलाव भी रिचार्ज में बड़ी बाधा है।

माटी से लगाव गायब

ऊपर से हमारे ‘देशभक्त’ नेता-अधिकारी प्राकृतिक जल स्रोतों पर असुरों की तरह अतिक्रमण कर बैठ गए। जयपुर के रामगढ़ बांध का ‘कंकाल’ इन देशद्रोहियों के कुकृत्यों का जीता-जागता उदाहरण है। आज तो सम्पूर्ण आबादी तक पीने का शुद्ध पानी भी नहीं पहुंचा। किन्तु बड़ी व्यापारिक फसलों (कैश क्रॉप) फसलाें- कपास, गन्ना, चावल, जैतून, मूंगफली, अनार आदि के लिए जल की व्यवस्था प्राथमिकता बन गई। प्रभावी लोग तो नहर के बम्बे खोलकर खेत को भर लेते हैं। पीछे के खेतों को सप्लाई करने की शिकायतें आई थीं। जल के अन्धाधुंध प्रयोग से नहरी क्षेत्रों की जमीनें खारड़ा बन गई, बंजर हो गईं। सेम की समस्या से कई गांव उजड़ गए। किसकी कोठियां जगमगाईं, देख सकते हैं।
राजस्थान का आधे से अधिक भाग रेगिस्तान है, एक-चौथाई के लगभग पर्वत-पथरीला क्षेत्र है। ऊपर से शहरीकरण-सड़कें जैसे नासूर। रिचार्ज कहां से होगा। रिचार्ज से अधिक दोहन ही डार्क-जोन का जनक है। जल बचाने की जितनी योजनाएं बनीं, वे ऊंट के मुंह में जीरा हैं। बढ़ती आबादी और घटता जलस्तर कैसे जीवन को सुखद अनुभव कराएगा। कमाने वाले भाग जाएंगे। जो यहां रहेंगे वे ही दंश भोगेंगे- बुद्धिमानों की अज्ञान-दृष्टि का।
यह भी पढ़ें

पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-फैसले लागू भी हों

आवश्यकता है मानवता को बचाने की। जीवन को अर्थ (धन-सम्पत्ति) से अधिक महत्वपूर्ण मानने की। जलनीति के साथ जल के उपयोग का मास्टर प्लान भी बने और लागू भी हो। ऐसा न हो कि फिर राजस्थान पत्रिका को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ जाए। जल की आवक, भूजल रिचार्ज, प्राणियों के पीने की आवश्यकता का आकलन हो। पहले शत प्रतिशत पीने के जल की मात्रा तय होनी चाहिए। इसमें कोई समझौते की छूट नहीं होनी चाहिए। हमें मानव-जीवन की पहले चिंता होनी चाहिए। अन्यथा अफसर तो पहले चांदी टटोलता है।
यह भी पढ़ें

पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-वंचितों को बधाई!

कृषि विभाग को संवेदनशील अधिकारियों के हाथों में ही सौंपना चाहिए, न कि संगदिल परायों के हाथों। हम गन्ना, चावल, गेहूं बेचकर, निर्यात करके धन कमाने के लिए जुटे हैं। चीनी आयात को बढ़ाने के समाचारों से खुशी के मारे गाल लाल हो जाते हैं। ये सारी पैदावार पानी मांगती है। हमारे प्रदेश में तो पानी ही जनता का लहू है। इसको ही बेचकर जनता को प्यासा मारा जाता है। अफसर दूषित पेयजल सप्लाई करके ड्यूटी की इतिश्री कर लेते हैं। सच्चाई यह है कि हम इन जीन्स (फसलों) के माध्यम से जल बेच रहे हैं। यह तथ्य न किसानों को दिखाई देता है, न ही अधिकारियों को। जानते भी होंगे किन्तु आय को देखकर गांधारी बने बैठे हैं। अधिकारी तो पीने के उपलब्ध पानी को रोक देने वाले होते हैं। बांध-तालाब, झीलों के सूखते ही पट्टे काटने लग जाते हैं। सड़कें बनाने लगते हैं। कहीं गलती से लोगों को पीने का पानी मिल न जाए। ऐसा व्यवहार तो इतिहास में शायद अंग्रेजों और मुगलों ने भी नहीं किया होगा। हमारे राजा-रानी तो तालाब-बावड़ियां खुदवाने के लिए जाने जाते हैं। उनको अपनी धरती से लगाव था। आज अपनी धरती से लगाव का भाव गायब हो गया।

यह भी पढ़ें

पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-जल से सृष्टि की निरन्तरता

दूसरी मार पड़ी पैदावार बढ़ाने की। उन्नत बीज, उन्नत खाद और जानलेवा कीटनाशकों ने भी जल की खपत को बढ़ाया ही है। इसने जल की ऊर्जावान शक्ति यथा वीर्य का ह्रास करना शुरू कर दिया। अन्न में उपलब्ध स्नेहन और मधु (शर्करा) ही वीर्य का आधार है। दोनों तत्त्वों का अभाव ही रोग निरोधक क्षमता का ह्रास है। किसानों में, आगे जन-जीवन में बढ़ते हुए कैंसर की जड़ भी यही है। अंधी दौड़ में जीवन का निर्यात और मौत का आयात इस स्थिति में तो अवश्यम्भावी है।

Hindi News / Prime / Opinion / पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख- बिन पानी सब सून…

ट्रेंडिंग वीडियो