समय की कसौटी पर एक और वर्ष पत्रिका की यात्रा में जुड़ गया। पत्रिका प्रत्येक दिन पर्व की भांति मनाते हुए नवीन उत्साह और नए संकल्पों का सूत्रपात करता रहा है। पाठकों के स्नेह ने संकल्पों को दृढ़ता का आधार दिया। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि पत्रिका आज भी अपनी वही पहचान बनाए हुए हैं जिसको लेकर इसकी शुरुआत हुई थी।
•Mar 07, 2024 / 12:08 pm•
Gulab Kothari
गुलाब कोठारी
समय की कसौटी पर एक और वर्ष पत्रिका की यात्रा में जुड़ गया। पत्रिका प्रत्येक दिन पर्व की भांति मनाते हुए नवीन उत्साह और नए संकल्पों का सूत्रपात करता रहा है। पाठकों के स्नेह ने संकल्पों को दृढ़ता का आधार दिया। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि पत्रिका आज भी अपनी वही पहचान बनाए हुए हैं जिसको लेकर इसकी शुरुआत हुई थी। इसका अर्थ यह भी है कि एक संकल्प था जो जनतंत्र में भागीदारी निभाना चाह रहा था-जनता के लिए और जनता के द्वारा। संकल्प टूटते रहते हैं-यदि व्यक्ति या संस्थान की इच्छाशक्ति कमजोर पड़ जाए। पत्रिका में ऐसा नहीं हुआ। कई परीक्षाएं ईश्वर ने ली, कई प्रलोभन पत्रिका के सामने आए। समय के साथ पत्रकारिता के आयाम भी बदले। आज तो स्वयं मीडिया ही चौथा पाया बन बैठा है। यह कहना मुश्किल हो गया है कि आने वाले समय में मीडिया की नई परिभाषा क्या होगी?
एक तरफ हम देखते हैं कि संवाद के बिना जीवन चलता ही नहीं है। मीडिया, संवाद का उद्योग है। साथ में यह भी दिखाई देने लगा है कि मीडिया किसको संबोधित कर रहा है और क्यों? एक समय था जब मीडिया के सामने लक्ष्य था, समाज के विकास में भागीदारी का संकल्प था। मीडिया यह जानने की भी कोशिश करता था कि वह जो संदेश पाठकों को दे रहा है वह पाठकों के पास उनकी ही भाषा में पहुंच रहा है या नहीं। मीडिया यह भी ध्यान रखता था कि उसके संदेश की पाठकों में क्या प्रतिक्रिया है? इस प्रतिक्रिया से वह अपनी विश्वसनीयता का आकलन भी करता रहता था। पत्रिका का अमृतं जलम् अभियान तो उदाहरण मात्र है। पत्रिका ने जनभागीदारी का आह्वान किया तो जो प्रतिक्रिया पाठकों ने दिखाई और जो परिणाम सामने आए वे प्रमाणित कर रहे हैं कि पत्रिका के जनभागीदारी के हर प्रस्ताव पर जनता तुरंत जुड़ाव दिखाती है। मीडिया की यही तो एक सार्थकता है। इस दृष्टि से मीडिया केवल समाचार का स्रोत ही नहीं है बल्कि जनशिक्षण का भी एक बड़ा माध्यम है। इसके बिना मीडिया की आवश्यकता ही क्या रह जाती है? आप कुछ कहो और सुनने वाला आपकी बात पर भरोसा ही नहीं करे तो कहने वाले की इज्जत क्या रह जाती है?
इस देश की संस्कृति हजारों-हजार साल बाद भी जीवित है तो वह केवल मीडिया की विश्वसनीयता के कारण। पहले मास मीडिया नहीं था और न ही संचार के इतने साधन थे फिर भी त्रेता युग के राम आज भी जनजीवन का अंग हैं, यह हाल ही पूरे देश ने देखा है। महाभारत दूसरा प्रमाण है, गीता प्रमाण है और छोटे-छोटे समुदायों के सांस्कृतिक धरातल की संवाद परंपरा प्रमाण है। कथकली, भरतनाट्यम, गवरी, नौटंकी आदि इस बात के साक्षी रहे हैं। आज मानव अति शिक्षित है, तकनीक में बहुत आगे है। पहुंच बहुत बढ़ गई है पर विश्वसनीयता उतनी ही खो गई है। लोग मीडिया का कितना अनुसरण कर पाते हैं-प्रतिदिन देखा जा सकता है। समय के साथ हमारी इस नई सभ्यता ने ऐसा क्या दिया कि आज आदमी का आदमी से विश्वास घटता ही जा रहा है। तब मीडिया राष्ट्र के विकास में अपनी भागीदारी कैसे निभाएगा?
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