समय बदल रहा है। बाजार में अन्न बदल रहा है, वहीं घर में मां बदल रही है। बदलाव का उदाहरण एक समाचार है-‘बच्चा टिफिन नहीं ले गया तो नो टेंशन, ऑनलाइन का विकल्प आ रहा पसन्द। अब लंच से पहले गरमा-गरम टिफिन पहुंच रहा स्कूल।’ यह तो हुआ मां के बदलते स्वरूप का उदाहरण। अन्न के बदलाव का उदाहरण तो समाचार में ही दिया है। इसमें तीन प्रकार की डाइट लिखी है-हैल्दी-प्रोटीन-कीटो। तीनों में ही राजस्थान और कुछ सीमा तक भारत भी दिखाई नहीं देता। सारी शब्दावली ही विदेशी है। खाने वाले का मन देशी कैसे हो जाएगा! मैं तो सपना देख रहा हूं। एक कपड़े में एक रोटी-सूखा नमक, मिर्च-अमचूर-बूरा। पानी के छींटे और लगावण तैयार! फ्रूट, सलाद का नाम पुस्तकों में पढ़ते होंगे। आते तो नहीं थे। समय के साथ विकास का लाभ तो मिलना भी चाहिए।
मां कह रही है-‘मेरे बच्चे सुबह जल्दी स्कूल जाते हैं। घर में काम बहुत होता है। वेण्डर से खाना-अच्छा मिल जाता है। ऑनलाइन फूड स्कूल तक पहुंचाना अच्छा विकल्प है।’ मां-बच्चे के बीच का एक सूत्र टूटे तो कोई बात नहीं है। मेरी जिन्दगी की प्राथमिकता बच्चे से अधिक महत्वपूर्ण है। यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि पिछले ही दिनों के कुछ और समाचार मुझे ज्यादा भयावह लग रहे हैं। मां को भी तो लगने चाहिए। उसका अपना उत्तरदायित्व स्कूल और वेण्डर से तो बड़ा होना चाहिए। उसके सम्बन्ध में तो व्यापार नहीं है।
बच्चे भी सामग्री
खाद्य पदार्थों में मिलावटखोरी का मुद्दा क्या जानलेवा नहीं हो सकता? बड़े स्कूल व्यापार करते हैं, तो टिफिन में भी कमीशन ढूंढते ही होंगे। कहीं न कहीं समझौता तो होता ही होगा। बाजार में घी-तेल के नकली होने के समाचार रोज छप रहे हैं। स्वयं कोर्ट ने कहा है कि-‘स्वास्थ्य मंत्रालय के रिकार्ड के अनुसार 20 प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिलावटी या असुरक्षित गुणवत्ता के हैं। खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के सर्वे के अनुसार 70 प्रतिशत दूध में पानी मिला होता है।
दूध में डिटर्जेण्ट होने के प्रमाण भी सामने आए हैं।’ राजस्थान हाईकोर्ट ने खाद्य पदार्थों में मिलावट के कारण कैंसर सहित कई जानलेवा बीमारियां होने पर चिन्ता जताई है। सरकारों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम- 2006 को पुख्ता बनाने के निर्देश भी दिए हैं।
आपने यह भी समाचार पढ़ा होगा-‘खाने में मिला रहे लेड-मर्करी, रसायनों से पका रहे फल-सब्जियां।’ कोर्ट ने बताया है कि दालों-अनाज में मिट्टी-पत्थर-मार्बल चिप मिलाए जा रहे हैं। लेबल पर दी जा रही जानकारियां उपभोक्ता के लिए घातक सिद्ध हो सकती हैं। भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने पोषण सम्बन्धी जानकारियां देने के लिए डिब्बा बन्द खाद्य पदार्थों पर बड़े और मोटे अक्षरों में चीनी-नमक-सैचुरेटेड फैट की मात्रा लिखने के निर्देश जारी किए हैं। केमिकल प्रिजर्वेटर का प्रयोग अनिवार्य रूप से होता है। एक ओर सरकारें इतने ठोस कदम उठाने का प्रयास कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर धनाढॺ माताएं अपने बच्चों को मिलावटखोरों और व्यापारियों के हवाले करके निश्चिंत होना चाह रही हैं। कितनी भोली हैं!
किसी भी मां के लिए संतान से मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं होता। संतान का शरीर भी मां का दिया होता है। उसमें खून भी मां का ही बहता है। सपने भी मां के ही बहते हैं। बीमार हो गया तो कष्ट भी मां को ही होता है। फिर ऐसा क्या बदला कि संतान का सुख खुद मां के लिए दो नंबर पर चला गया! वैण्डर के हवाले कर दिया! पूजा योग्य कर्म को अपनी सुविधा के लिए ठुकरा दिया!!
शिक्षा और भौतिकवाद ने मां को बदल दिया। आज दाम्पत्य भाव शरीर पर सीमित हो गया। संतान प्राप्ति कर्म से पूर्व दंपति ईश्वर से प्रार्थना नहीं करते-निर्मल आत्मा को परिवार में भेजने के लिए। विकसित कहे जाने वाले समाज की महिलाओं को तो डॉक्टर से पता चलता है कि संतान ने प्रवेश कर लिया है। हर महीने डॉक्टर ही मरीज को चैक करेगी कि सबकुछ ‘नॉर्मल’ है। मां-जीवात्मा के मध्य का संवाद-संगीत-वातावरण सब तो खो गया। कैसे मां-जीव का सम्बन्ध बनता? अभिमन्यु बनाने की कथा तो रुढ़ि बनकर सिमट गई। पूरे नौ माह का काल विटामिन्स और टॉनिक, फिजियोथैरेपी में सिमट गया। प्रसवकाल में भी यदि डॉक्टर सलाह दे दे तो ऑपरेशन हो जाता है। बच्चा तो पैदा हो गया, किन्तु स्त्री मां बनने की पीड़ा से वंचित रह गई। यह पीड़ा या मृत्यु द्वार की यात्रा जिस संतान के लिए होती है, वही सूत्र मां को मृत्युपर्यन्त संतान से बांधे रखता है। संतान में वह स्वयं को एकाकार पाती है। आधुनिक मां, समृद्धि के साथ ही संतान को छात्रावास में, दूर शिक्षण संस्थानों में भेजकर गौरवान्वित होती है।
पश्चिम में दाम्पत्य बन्धन नहीं है। संतान भी और पति भी बंधन नहीं है। सुख और सुविधा ही वहां का मूल मंत्र है। अब हमारा होता जा रहा है। देश ने ‘मातृ देवो भव’ की जो गूंज दी, मंद पड़ती जा रही है। बाजार का अन्न-बाजार का मन-बच्चे भी सामग्री।