आम आदमी को तो कई बार दो पीढ़ी बाद फैसला मिल पाता है। उसके पास अवमानना याचिका दायर करने का साहस ही कहां बचेगा! अवमानना भी किसकी? किसी पद की, कमिश्नर-सचिव-निदेशक आदि की? व्यक्ति बदलता रहता है। फैसला न कोई लेने वाला, न कार्रवाई होने वाली। आज सुप्रीम कोर्ट हो अथवा हाई कोर्ट, कहां रिकार्ड है कार्रवाई का? उच्च न्यायालय के आदेशों की पालना का तो डर ही नहीं दिखाई पड़ता। न न्यायाधीश ही गंभीर दिखाई पड़ते, न्यायालय की गरिमा को लेकर। कम से कम अपने दिए फैसलों को तो लागू होते देखना उनके लिए गर्व की बात होगी। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों के जिन फैसलों को लागू कराना अभी शेष है। यदि आज भी दिशा-निर्देश दें तो साल-दो साल लग जाएंगे उनकी सूचियां बनाने में। न्यायाधीशों को याचक के साथ एकाकार होना पड़ेगा। भारतीय सांस्कृतिक धरातल अभी छूटा हुआ है। फैसले हो जाते हैं लेकिन उनकी पालना हो रही है या नहीं इससे किसी का वास्ता नहीं है। फैसला देना ही दायित्व का हिस्सा नहीं बल्कि इसे लागू कराने का जिम्मा भी होना चाहिए। कार्यपालिका पर यह जिम्मेदारी है लेकिन वह भी कहां गंभीर नजर आती है?
छत्तीसगढ़ में न्यायिक अधिकारियों को बकाया पेंशन और सेवानिवृत्ति लाभों के भुगतान के आदेश की पालना नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सहित 15 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने को कहा है। उनसे यह भी पूछा गया है कि दूसरे राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग की सिफारिशों को क्यों नहीं लागू किया गया? प्रधान न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़ ने कहा-‘मैं देख सकता हूं कि कोई ठोस अनुपालन नहीं हुआ है। उन्हें व्यक्तिगत रूप से हमारे सामने पेश होना होगा अथवा हम उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी करेंगे।’ सुनवाई कर रही पीठ में अन्य न्यायाधीशों में जस्टिस जे.बी.पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं।
फिर ऊपर कहां जाएं
प्रश्न यह है कि क्या न्यायालय की दृष्टि में सभी फैसलों को समान रूप से लागू करने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। फैसला लागू नहीं होना क्या अन्याय नहीं है? एक ओर तो न्याय में देरी को भी सही नहीं लिया जाता। राजस्थान में सबसे बड़ा उदाहरण आज भी जयपुर का रामगढ़ बांध है। आज प्रदेश के सारे बांध लबालब हैं। अकेला 65 फुट भराव क्षमता वाला यह बांध खाली है। कितने आदेश जारी हो गए। एक भी एनीकट नहीं टूटा, पक्के निर्माण और सड़कें न्यायालय के आदेशों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। क्या एक भी नेता-अधिकारी अवमानना का सामना कर रहा है? हमारी चिन्ता है कि जनहित की कार्रवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के ऊपर कहां जाएं? क्या कोर्ट की घोषणा (मूक) मान ली जाए कि वह अपने फैसले अधिकारियों से लागू नहीं करवा पाएगा?
ऐसा ही एक बड़ा उदाहरण राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले का है जो जयपुर के मास्टर प्लान को लेकर दिया गया था। कोर्ट को भी जानकारी होगी ही कि उसके साथ कैसा खिलवाड़ हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2023 में केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने कार्यालयों में अनिवार्य रूप से सीसीटीवी लगाने के आदेश दिए थे। लोगों को इसकी रिपोर्ट देने के भी आदेश थे। बेघरों को रैन बसेरे उपलब्ध कराने का आदेश भी दिया। गिरफ्तारी से पहले व्यक्ति को सुनवाई का मौका देने और गिरफ्तारी की परिजनों को सूचना देने का आदेश भी दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ही निजी स्कूलों द्वारा वसूल की गई फीस, कमेटी की सिफारिशों के आधार पर तय करने को कहा लेकिन कमेटियां सही कार्य ही नहीं कर पा रहीं।
वर्ष 2018 से राजस्थान के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव पीके गोयल एवं अन्य के खिलाफ अवमानना का केस चल रहा है। इंदौर के परमानन्द सिसोदिया मामले में 159 अवैध निर्माण के केस में अवैध निर्माण नहीं होने की व्यवस्था दी थी। निगम आयुक्त को जिम्मेदार भी ठहराया था। न भवनों के निर्माण रुके, न ही कार्रवाई हुई। जगन्नाथ ट्रस्ट, इंदौर की जेल रोड सम्पत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कर माफ करने से इंकार कर दिया था। निगम में छूट आज भी जारी है।
गिनती कराना मेरा लक्ष्य नहीं है। असली बात यह है कि डर नहीं लगता किसी को। जयपुर के परकोटे में और बाहर अवैध निर्माण (विभिन्न न्यायिक फैसलों के बाद) आज भी चालू है। सरकारें स्वयं भी राजनीतिक कारणों से अवैध निर्माण करवाती रहती हैं। जयपुर बड़ा उदाहरण है। सरकार के विरूद्ध हाईकोर्ट में कौन जाए? नगर परिषदें-विकास प्राधिकरण अतिक्रमण करवा रहे हैं, लूट रहे हैं। क्या यह संभव नहीं कि हर प्रदेश में उच्च न्यायालय स्तर की एक कमेटी हो जहां आम आदमी पहुंच सके?
राजस्थान के ही सवाईमाधोपुर-सरिस्का में अवैध निर्माणों की बाढ़ आई है। कोर्ट फैसले देता है, आदेश देता है, रिपोर्टें बनती हैं। निर्माण नहीं टूटते। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (सीटीएच) के एक किलोमीटर के दायरे में बन्द खानें नहीं खुलेंगी। अवैध निर्माण भी इसी क्षेत्र में चल रहे हैं। कितनी होटलें अधिकारियों की हैं। आदेश भी है और अवैध भी सब हैं। इसका उत्तर न्यायपालिका के हाथ में ही है। जनमानस में जो कुछ विश्वास बचा है वह न्यायपालिका पर ही बचा है।