अधिभूत संस्था में सूर्य-चन्द्रमा में दाम्पत्य भाव है। सूर्य और पृथ्वी का भी दाम्पत्य भाव है। सूर्य विष्णु है और पृथ्वी को लक्ष्मी कहा है। सूर्य जगत का पिता है, धरती माता है। सूर्य से प्राण निरन्तर शरीर में आते-जाते हैं। इसी तरह पृथ्वी के प्राण भी निरन्तर आते-जाते हैं। दोनों प्राणों के आवागमन की दिशा विपरीत है। इन दोनों का अध्यात्म जगत से सम्बन्ध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है क्योंकि हमारे शरीर में दायीं नासिका सूर्य नाड़ी तथा बायीं नासिका चन्द्र नाड़ी है।
यह अद्र्धनारीश्वर रूप शरीर और प्राण दोनों में समझ आता है। स्थूल प्राणों का केन्द्र नाभि है। नाभि का अर्थ भी केन्द्र ही होता है। गर्भस्थ शिशु का मां के साथ सम्बन्ध नाभि से ही जुड़ा रहता है। पांचों महाभूत नाभि द्वारा ही पोषित किए जाते हैं। श्वास-प्रश्वास क्रिया में नाभि-क्षेत्र ही ‘धौंकनी’ की तरह कार्य करता है। श्वास का बाहरी ओर पेट फुलाना प्रसार तथा भीतर को समेटना संकुचन है। यही नर-मादा भाव है। हम सभी अनभिज्ञ हैं। साधारणत: चर्या में कहां इस तरह का विचार होता है। हम तो कृष्ण के इस उद्घोष को भी नहीं समझ पाते कि हम स्वयं ईश्वर हैं—
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61) यह शाश्वत सिद्धान्त है कि अग्नि के केन्द्र में सोम तथा सोम के केन्द्र में अग्नि रहता है। पुरुष के भीतर स्त्री तथा स्त्री के भीतर पुरुष रहता है। यह भी अद्र्धनारीश्वर का ही उदाहरण है। ये सारे तथ्य प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में उपलब्ध रहते हैं।
नया निर्माण ही यज्ञ का लक्ष्य होता है। इसी को ब्रह्म का विवर्त कहते हैं। इस यज्ञ का आधार है योषा-वृषा तत्त्व। यही क्रमश: सोम और अग्नि हैं। मूल में दोनों एक ब्रह्म ही है। एक ही दो बनकर विवर्त बनाते हैं। विवर्त का आरंभ तो ऋत भाव का सत्य रूप होना ही है। गतिरूप सोम का स्थिति रूप अग्नि में मातरिश्वा वायु द्वारा आहुत होना ही आरंभ है। इसी से केन्द्र रूप अग्नि की सोम रूप परिधि बनती है। अव्यक्त संस्था का विकास होता है। इसी का यज्ञ रूप से व्यक्त भाव बन जाता है जिसे अव्यय पुरुष कहते हैं। यही ब्रह्म का पहला विवर्त है। स्वयंभू तत्त्व है। आग्नेय है, ऋषि प्राणरूप है। इसी के तपन और स्वेदन से जल (सलिल रूप) आप: बनता है।
आप: में स्नेहन पैदा हो जाता है। यहां अग्नि-सोम दोनों ही तत्त्व साथ रहने लगते हैं। जब अग्नि अधिक हो जाता है तब इसे अंगिरा कहते हैं। सोम की अधिकता भृगु तत्त्व है। आगे की सृष्टि के दो ही आधार हैं।
अग्नि में सोम को मातरिश्वा वायु आहुत करता है। किन्तु इस यज्ञ से भी सृष्टि नहीं होती। यहां- परमेष्ठी लोक में- भृगु, अंगिरा के साथ तीसरा मनोता भी होता है- अत्रि प्राण। यह पारदर्शिता को बाधित करने वाला प्राण है। भृगु-अंगिरा यज्ञ का बिम्ब इसी अत्रि प्राण पर पड़ता है। यह क्रिया मह:लोक के अन्तरिक्ष में होती है। यहीं जीवात्मा की उत्पत्ति है—ममयोनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन गर्भं दधाम्यहम्। (गीता)
यहां अग्नि और सोम दोनों ही ब्रह्म हैं। मूल में एक हैं, दिखाई दो दे रहे हैं। निर्माण में सहायक तत्त्व अत्रि आकृति का जन्मदाता है। अग्नि-सोम से अहंकृति एवं प्रकृति बनती है। अग्नि-सोम दोनों आकृति में गर्भित रहते हैं। सूक्ष्म स्तर पर अत्रि ही योनियों का धारक बनता है। आगे चलकर स्थूल जगत में अत्रि ही जननी का रूप लेता है। विश्व में जो कुछ है वह ब्रह्म ही है—’एकोऽहं बहुस्याम् प्रजायेय’ का यही अर्थ है। पंचाग्नि का सिद्धान्त इसकी पुष्टि करता है।
अग्नि और सोम मिलकर (एकाकार होकर) ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म का बीज रूप बनाते हैं। अक्षर पुरुष ही क्षर पुरुष (ब्रह्म) रूप में सृष्टि रूप लेता है। हृदय के ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र ही अक्षर से क्षर में प्राण-आप-वाक् बनते हैं। अग्नि-सोम यहां क्रमश: अन्नाद (अग्नि) तथा अन्न (सोम) बनते हैं। मन-प्राण-वाक् ही आत्मा है। अन्न-अन्नाद देह है। पृथ्वी पर युगल सृष्टि नर-मादा के रूप में दृष्टिगोचर होती है। ब्रह्म ही पुरुष रूप में आगे बढ़ता है। प्रकृति के अनुरूप और आकृति के अनुरूप योनियों का निर्माण होता जाता है। आगे के जन्मों में पूर्व-पूर्व जन्मों के कर्मफल भी प्रभावी होते जाते हैं। वैसी ही आकृतियां (विवर्त) बनती जाती हैं।
पुरुष का आश्रय शुक्र संस्था है। शुक्र की प्रतिष्ठा स्त्री है। अकेला ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता। उसने उपकरण रूप में स्त्री बनाई। उसके पास जाकर कहता है—’मंत यह हूं, तू वह है। तू वह है, मैं यह हूं। मैं सोम हूं, तू ऋक् है। मैं द्यौ हूं, तू पृथ्वी है। आओ! हम तुम दोनों मिलें। पुत्र की उत्पत्ति के लिए अपने वीर्यों को मिलावें।’ (शत. 14-9-4-19)
”विष्णु योनि बनावे, त्वष्टा रूप बनावे। प्रजापति सींचे, धाता गर्भ धारण करावे। (सभी आदित्यों के नाम)। हे सिनीवाली (अमावस्या), गर्भ धारण कर! दोनों अश्विन देव (कमल की माला वाले) गर्भ धारण करावें।’
बड़े रहस्य की बात यह है वर्षण करने वाला वृषा (पुरुष) ब्रह्म के सूक्ष्म अंश का धारक है तथा गर्भधारक योषा (स्त्री) स्थूल स्वरूप में है। आत्मा प्राण रूप है। उसे स्थूल शरीर देने के लिए मादा की आवश्यकता पड़ती है। जीवात्मा बीजरूप में पुरुष शरीर में ही आता है। पुरुष का ही बीज (ब्रह्म) होता है। स्त्री का बीज पिता के शरीर में ही रह जाता है। बाद में उसे पति के शरीर में स्थापित किया जाता है। पति के शरीर में पिता और श्वसुर दोनों के बीज समाहित हो जाते हैं। स्त्री धरती मां रहती है।
पुरुष के शरीर का सप्तम् धातु शुक्र है जो मन का निर्माण करता है। इसी क्रम में स्त्री के मन का भी निर्माण होता है। देह के धातु-निर्माण की व्यवस्था भिन्न प्रकार की स्थूल व्यवस्था है। जीव की यात्रा की स्थूल व्यवस्था नहीं हो सकती। जीव पुरुष शरीर में हृदय में प्रतिष्ठित रहता है। शुक्र में शरीर का सम्पूर्ण रूप (देह) समाहित रहता है। इसी में शुक्राणु पैदा होता है। शुक्राणु का शुक्र ही पुंभ्रूण बनता है।
स्त्री शरीर में शोणित ही आर्तव रूप में अत्रि प्राण को धारण करता है। इसका केन्द्र गर्भाशय में डिम्ब होता है। शुक्र भृगु कहलाता है। आप:-वायु-सोम ही भृगु तत्त्व हैं। शुक्र का घन भाग आप: है। वायु द्वारा आप: का आधान होता है। आप: के शुक्राणु पुन: अग्नि में आहुत होते हैं। यहीं से वायु (मातरिश्वा) पुंभू्रण को लेकर स्त्रीभ्रूण (डिम्ब) तक जाता है। यहां अत्रि प्राण पर जीव (अग्नि-सोमात्मक) का प्रतिबिम्ब पड़ता है। शोणित के बुद्बुद् में जीव नई यात्रा के लिए तैयार हो जाता है। कलल रूप में जीव बड़ा होने लगता है। कलल ही जीव का शरीर बनता है।
समय पाकर प्रसवकाल में बाहर आ जाता है। चेतनायुक्त जीव का आश्रय पुरुष शरीर है। वही बीजी कहलाता है। इसी बीज में ब्रह्म के प्राण रहते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों के पिता के बीज पुन: पुरुष शरीर में ही स्थापित होते हैं। स्त्री तो शरीर मात्र का निर्माण करने, मानव रूप में संस्कारित करने के लिए ही पैदा की जाती है। शरीर निर्माण और उसका पोषण भी मृत्युपर्यन्त स्त्री ही प्राण रूप में करती रहती है। ब्रह्म इस शरीर में प्राण रूप में व्याप्त रहता है। वही नए बीज के रूप में स्वयं को तैयार करता है। जब तक शरीर है, ब्रह्म इसका उपयोग करता है। अपनी मनुष्य योनि के लक्ष्य को सम्पूर्ण करके अगली योनि में—नए शरीर में चला जाता है।
क्रमश:
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