लोक शिक्षक प्रेमचंद के शिक्षा संबंधी विचारों से जब हम रू-ब-रू होते हैं तो यह आसानी से समझने में कामयाब होते हैं कि उनके साहित्य में जो बहुविध संदर्भों के विस्तार का वितान नजर आता है, उसके निर्माण में उस शिक्षक की भूमिका रही जो अपने सरोकारों को लेकर बहुत संजीदा था। वे कक्षाओं में भाषा, साहित्य और इतिहास का अध्यापन करते थे। वे जब इतिहास का अध्यापन करते थे तब बेजान तिथियों की जगह सभ्यताओं के विकास की कहानी कहते थे। बेहतरीन बात यह थी कि वे जिस विषय को पढ़ाते थे, उसमें इस कदर डूब जाते थे कि उस विषय का वे हिस्सा हो जाते थे। विद्यार्थियों के अनुशासन के बारे में प्रेमचंद का नजरिया बिल्कुल साफ था। उनको बाहरी अनुशासन पर भरोसा नहीं था। वे मानते थे कि अनुशासन अंत:करण की चीज है। उसमें स्वविवेक के निर्माण से यह दिशा तय होनी चाहिए कि हम किसी बात को समझ सकें कि क्या सही है और क्या गलत है। अपने बेहतरीन निबंध ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ में वे कहते हैं घर के निर्णयों में बच्चे-बच्चियों की भागीदारी जरूरी है ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों का प्रशिक्षण भी ले सकें।
प्रेमचंद अध्यापकों की खराब आर्थिक स्थिति को लेकर चिंतित दिखाई पड़ते हैं। ‘संयुक्त प्रांत में आरंभिक शिक्षा’ लेख में वे कहते हैं कि हमारी आरंभिक शिक्षा के सुधार और उन्नति के लिए सबसे बड़ी जरूरत योग्य शिक्षकों की है। उनका स्पष्ट मानना था कि यदि वेतन कम दिया जाए तो शिक्षक की योग्यता इससे प्रभावित होती है। आगे वे लिखते हैं, जिस आदमी को पेट की फिक्र से आजादी नसीब न होगी, वह तालीम की तरफ क्या खाक ध्यान देगा। उनका मानना था, व्यवस्था को चाहिए कि वह शिक्षकों की आर्थिक चिंता को समझे और संवेदनशीलता से कोई हल निकाले। लोकशिक्षक प्रेमचंद आबादी के बड़े हिस्से की समस्या फीस वसूली पर भी बेहद संवेदनशील थे। प्रेमचंद इस समस्या को लेकर कई जगह खुलकर अपनी राय रखते हैं। उनके उपन्यास ‘कर्मभूमि’ की शुरुआत ही इस बात से होती है कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन निर्धारित कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है। या तो फीस दीजिए या नाम कटवाइए, या जब तक फीस न चुके, रोज कुछ जुर्माना दीजिए। वे शिक्षा को बेहतर मनुष्य का निर्माण करने वाली सामथ्र्य मानते थे। उनका मानना था कि यदि शिक्षा प्राप्त करने का मूल उद्देश्य बस रोजगार पाना हो तो लोग केवल पैसों के पीछे भागेंगे, पैसों के लिए गरीबों का शोषण करेंगे, इसलिए वे शिक्षा का मुख्य उद्देश्य संवेदनशील मनुष्य बनना मानते हैं। कर्मभूमि का मुख्य पात्र अमरकांत कहता है, जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है- हमारा सेवा भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा की जागृति नहीं हुई, तो कागज की डिग्री व्यर्थ है।
प्रेमचंद का रचना समय भारतीय पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी की सक्रिय उपस्थिति का भी समय रहा है। गांधी के शिक्षा दर्शन का असर प्रेमचंद पर भी नजर आता है। शिक्षा पर विचार करते हुए उन्होंने राय दी- ‘शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा का उत्कृष्ट एवं सर्वांगीण विकास करे।’
प्रेमचंद, गांधी की तरह ही शिक्षा में हस्त कौशलों को महत्त्व देते थे। उनका मानना था, बच्चों की स्वाभाविक रचनाशीलता को जगाना चाहिए। बच्चा खिलौने बनाना चाहे, बेतार का यंत्र बनाना चाहे, मछली का शिकार करना चाहे, बीन बजाना चाहे, तो उसमें बाधा उत्पन्न मत करो। अगर कोई बालक साल के चंद हफ्ते भी प्राकृतिक शक्ति के बीच रहे, दरिया में कश्ती चलाए, मैदान में गाड़ी चलाए या फावड़ा लेकर खेत में काम करे, तो उसे आत्मविश्वास का जो अनुभव होगा, वह पुस्तकों और उपदेशों से नहीं हो सकता। कहना न होगा, लोक शिक्षक प्रेमचंद के जीवन और सृजन संसार से गुजरते हुए हमें उनका वह रूप उभरता नजर आता है जिसमें हम अनेक शिक्षायी सूत्रों को हासिल करने में सफल होते हैं।