नवरात्रि, मातृशक्ति की आराधना या स्त्री के सम्मान का पर्व है। पौराणिक कथाओं से इतर भी देखें, तो यह स्त्री के हर स्वरूप को सम्मान देने का पर्व है। हमने प्राचीन काल से ही स्त्री के हर स्वरूप को पूजा है। वह शांत शैलपुत्री हो तब भी, और रौद्र कालरात्रि हो तब भी। स्त्री चन्द्रघण्टा की तरह सुन्दर हो तब भी पूज्य है, और काली की तरह भयावह हो तब भी पूज्य है। क्योंकि स्त्री का बाह्य स्वरूप जो भी हो, उसका आंतरिक स्वरूप माता का ही है।
वह हर स्वरूप में माता है, सिद्धिदात्री है। कथा यह है कि माता को समस्त देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियां प्रदान की थीं। अब तनिक सोचिए, यदि सारी शक्तियां देवताओं के पास थीं तो फिर माता के आह्वान की क्या आवश्यकता थी? पुरुष के पास शक्ति हो तो वह या उसकी सत्ता दीर्घजीवी होती है, पर यदि स्त्री शक्तिशाली हो तो धर्म चिरंजीवी होता है, पूरी सभ्यता चिरंजीवी होती है। पुरुष की शक्तिशाली भुजाएं धर्म की रक्षा करती हैं, पर धर्म स्त्रियों की गोद में ही पल कर दीर्घजीवी होता है।
शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज, चण्ड-मुण्ड या महिषासुर से माता का युद्ध कोई व्यक्तिगत युद्ध या सत्ता का युद्ध नहीं था, यह धर्म का युद्ध था, सभ्यता का युद्ध था, जो कि सदैव स्त्रियों को ही लडऩा पड़ता है। शिव जगतकल्याण के लिए विष पीते हैं और माता असुरों का रक्त पीती हैं। दोनों ही कार्य अत्यंत कठोर और कष्टकारक हैं। हम मानते हैं कि हर धार्मिक पुरुष में शिव का अंश है, और हर सुसंस्कृत स्त्री में माता दुर्गा का।
जीवन के लिए, परिवार के लिए, अपने समाज के लिए, धर्म के लिए, राष्ट्र के लिए या अपनी सभ्यता के लिए दोनों को यह कष्ट उठाना ही पड़ता है। विष पीने की शक्ति का नाम शिव है और अपने कालखंड की बुराइयों के विरुद्ध मुखरता का नाम दुर्गा। नवरात्रि इन दोनों शक्तियों के प्रति सम्मान और समर्पण का मुहूर्त है।