स्थानीय दलों और स्थानीय मुद्दों का महत्व विधानसभा में अधिक होता है। लोकसभा चुनावों में इनको राष्ट्रीय दलों के साथ देखा जाता है। भाजपा तथा ‘इण्डिया’ राष्ट्रीय दल के रूप में उपस्थित हैं। भाजपा का आकलन मतदाता के पांच साल के निजी अनुभव पर निर्भर करता है। यहां धीरे-धीरे एक नया समीकरण उभरकर आया है। एक नया युद्ध शुरू हो गया है राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी इस संदर्भ में एक बड़ा बयान जारी किया है कि आज भाजपा, संघ की सहायता के बिना भी पूर्णत: सक्षम है। लम्बे समय से दबी अग्नि लपटें फूट पड़ीं और वह भी गलत अवसर पर। यूपी में चर्चा सुनी थी कि भाजपा, योगी आदित्यनाथ को किनारे कर सकती है। उनको संघ के दबाव में ही रातों-रात मुख्यमंत्री बनाया गया था- भाजपा के निर्णय के खिलाफ।
महाराष्ट्र में इस घोषणा का विपरीत प्रभाव होता जान पड़ता है। उद्धव ने ‘ठाकरे’ को सिक्का बना रखा है। संघ और ठाकरे ने ही महाराष्ट्र को भाजपा से दूर रखने अथवा बड़े होने से रोक रखा है। संघ को जड़ माना जा रहा है, भाजपा को वृक्ष। नए समीकरण में प्रधानमंत्री और अमित शाह को गुजराती कहकर सम्बोधित किया जा रहा है। मुम्बई में पहले से मराठी-गुजराती विवाद चल रहा है। इसका प्रभाव भी गहरे में पड़ने वाला है।
इस चुनाव में ‘हिन्दू-मुस्लिम’ विवाद उतना बड़ा नहीं है। यह तय माना जा रहा है कि मुस्लिम मतदाता भाजपा को वोट नहीं देगा। इस बार जातिवाद बड़ा मुद्दा सुनाई दे रहा है। मराठा आरक्षण आंदोलन सफल नहीं हो पाया था, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का डर है कि भाजपा उनके कोटे को कम कर देगी (संविधान संशोधन द्वारा), अजा-जजा तथा अन्य छोटी जातियों का ऐसा ही डर हवा में बह रहा है। प्रधानमंत्री भी करीब बीस सभाएं कर चुके हैं, जो कि पिछले चुनाव में मात्र नौ थीं। मुम्बई में उनका रोड-शो अप्रत्याशित ही था। इससे मुकाबला मोदी बनाम उद्धव जैसा हो गया। चर्चा इस मुद्दे पर आ चुकी है कि उद्धव के पास न कोई सांसद-विधायक या धन है और शिंदे के पाले में स्वयं शिंदे, उपमुख्यमंत्री, वित्त मंत्री व 40 विधायक हैं।
समय देगा उत्तर उद्धव खेमा मराठा है, शिंदे खेमा मराठी है। तीसरा खेमा मुस्लिम है। कांग्रेस घोषणा कर चुकी है कि वह आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को समाप्त कर देगी। स्थानीय समीकरणों का प्रभाव शिंदे और अजीत खेमे को समेट सकता है। चुनाव का केन्द्रीकरण हो गया-मोदी को लाना है अथवा मोदी को हराना है। भाजपा भी खुद के लिए चुनाव नहीं लड़ रही। मोदी और ‘केवल मोदी’ के लिए लड़ रही है। सभी होर्डिंग्स पर मोदी के चित्र हैं। उत्तर प्रदेश में भी योगी के चित्र नहीं थे। इस बहुस्तरीय चुनाव में जहां प्रत्येक मतदाता खोया-खोया है- लोकतंत्र का एक नया स्वरूप दिखा रहा है।
शरद पवार मानते हैं कि 26-28 सीटें उनके गठबंधन को मिलेंगी। नरेन्द्र मोदी आत्मनिर्भर भारत के नारे के साथ चल रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार बीस मई तक 428 सीटों पर हो चुके चुनावों में भाजपा को 250 सीटें मिलने की चर्चा है। अगले दो चरणों में 115 सीटों पर चुनाव होना है। समय उत्तर देगा। मतदान प्रतिशत में प्रखरता कहीं नहीं है। हवा का रुख इण्डिया गठबन्धन तय करेगा। कांग्रेस यूपी की एक सीट जीतकर उत्सव मनाने को आतुर है। सारे दिग्गज नेता रायबरेली में बैठे हैं। क्यों ? क्या योगी भाजपा को हराएंगे? संघ निष्क्रिय रहेगा? क्या मतदाता समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी सरकारों को वापस लाना चाहेंगे? दक्षिण अभी ज्यादा बदलने वाला दिखाई नहीं देता। कुछ आएगा-कुछ जाएगा। भाजपा के आंकड़े में ज्यादा उतार-चढ़ाव आता नजर नहीं आता। कांग्रेस, कर्नाटक-तेलंगाना में कुछ पाएगी, अन्यत्र गंवाएगी भी। मूल परिणाम भाजपा का कार्यकाल, विपक्षी दलों के पांच वर्ष, भाजपा की नई घोषणाएं और युवा पीढ़ी की समझ पर ही निर्भर करेगा।