इस बार तमाम प्रयासों के बावजूद चुनाव आयोग वोटरों को मतदान केंद्रों तक खींचकर लाने में बहुत सफल नहीं रहा। बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में मतदान कम होना लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। यह जाहिर करता है कि राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान और जनमुद्दों से बेरुखी ने मतदाताओं का विश्वास खोया है। यद्यपि कांग्रेस समेत यूपीए के घटक दल और महागठबंधन के लोग सर्वे के आकलनों को सही नहीं मान रहे। उनका कहना है कि कुछ लोगों से बातचीत करने भर से सम्पूर्ण जनादेश का आकलन नहीं किया जा सकता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी संभवत: पहली प्रेस कान्फ्रेंस में एक ही घोषणा की थी कि एनडीए फिर से सरकार बनाने जा रही है।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की प्रेस कान्फ्रेंस में अचानक प्रधानमंत्री ने पहुंचकर संपूर्ण मीडिया को आश्चर्यचकित कर दिया था। पांच साल के बाद यकायक प्रेस के समक्ष आना उसी आत्मविश्वास का द्योतक था। तब तक हुए छह दौर के मतदान ने उनके मन में स्थिति काफी कुछ स्पष्ट कर दी थी। हालांकि एग्जिट पोल मात्र अनुमान भर है। मतदाताओं के मानस का असली पता तो 23 मई को ही चलेगा, जब नतीजे इवीएम से बाहर निकलेंगे। 2014 में 30 साल बाद पहली बार एक पार्टी भाजपा अकेले बहुमत का जादुई आंकड़े के पार जा पाई थी। इस बार क्या वापस ऐसा होगा? यदि ऐसा हुआ तो तमाम विफलताओं के बावजूद एनडीए की लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी होगी।
बेतहाशा बेरोजगारी, कमजोर होती आर्थिक स्थिति तथा खेती-किसानी पर बड़े संकट के बावजूद यह करिश्मा कैसे होगा? कौन से ऐसे कारण रहे कि मतदाता इतनी दुश्वारियों के बावजूद नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा दिख रहा है? विश्लेषण करें तो सबसे बड़ा कारण एनडीए के पक्ष में जो दिखा, वह है केन्द्रीय योजनाओं का लाभ समाज के अंतिम सिरे तक पहुंचना। यूपीए सरकार के समय भले ही योजनाएं बनीं लेकिन उनको सरकार रूप एनडीए ने दिया। उज्ज्वला, स्वच्छ भारत मिशन, मुद्रा और प्रधानमंत्री आवास हो या किसान निधि योजना, तमाम खामियों के बावजूद धरातल पर नजर आईं।
राष्ट्रीय सुरक्षा और बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसे मुुद्दे जोर-शोर से उठाए गए। अनुमानों में एनडीए के वोट प्रतिशत में वृद्धि होती दिख रही है। 2014 में 38.5 फीसदी मत मिले थे जो बढ़कर इस बार 41 से फीसदी से कुछ ज्यादा रहने का अनुमान है। यूपीए और कांग्रेस का मत प्रतिशत भी 23 से 32 फीसदी होने का अनुमान है। एग्जिट पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक हों यह जरूरी नहीं है। पहले भी कई मौकों पर इनमें और वास्तविक नतीजों में काफी अंतर देखा गया है। 2004 इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मतदाताओं के मन की बात आगामी गुरुवार को सामने आ जाएगी और तभी तय होगी भारत