आज देश में राजनीति की जिस खास ‘संस्कृति’ पर बहस तेज है, उसकी शुरुआत बहुत पहले हो गई थी। 1967 में डीएमके के संस्थापक सीएन अन्नादुरई ने वादा किया था कि अगर उनकी पार्टी चुनी जाती है तो लोगों को एक रुपए में 4.5 किलो चावल का बैग मिलेगा। उनके अभियान ने पार्टी को जीत दिलाई। विडंबना यह रही कि पार्टी वादा निभाने में नाकाम रही और नतीजा यह हुआ कि एक रुपए में एक किलो चावल देने की योजना भी समाप्त हो गई। क्या मुफ्त राशन, पानी, बिजली, यात्रा किराए में छूट और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नकद लाभ योजनाओं की घोषणाओं की मानसिकता से कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मकसद खतरे में नहीं आ जाएगा? बात चाहे पश्चिम की करें या आजादी के बाद के भारत की, इस बात में कोई संदेह नहीं कि एक राजनीतिक दर्शन के रूप में कल्याणवाद की जड़ें खासी गहरी हैं।
हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था ऐसी योजनाओं से भरी हैं – चाहे कोई उन्हें मुफ्त की रेवड़ी, कर्जमाफी या रियायत कहे या कि प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण। क्या ऐसी नीतियों की ओर मुडऩे का आशय यह है कि भारतीय नीति निर्माताओं ने गरीबी और असमानता से निपटना छोड़ दिया है। दरअसल, सार्वजनिक संपत्ति, सामाजिक क्षमता निर्माण पर जोर देने के बजाय, भारत के नीति निर्माताओं ने प्रत्यक्ष हस्तांतरण की ओर रुख करते हुए कल्याणवाद की राह पकड़ी है। ऐसे में सवाल है कि क्या सरकार की निष्क्रियता और अच्छी सार्वजनिक सेवाएं देने पर ध्यान न देने के बदले राज्य का मॉडल भविष्य में प्रतिपूरक प्रकृति का होने जा रहा है? समय के साथ ऐसे वादों के बड़े प्रतिकूल आर्थिक नतीजे प्राप्त हुए हैं। राज्यों को मुफ्त उपहारों की घोषणाओं के लिए धन जुटाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मौजूदा वित्त वर्ष में ऐसी घोषणाओं पर आंध्र प्रदेश को कर राजस्व का 30.3%, मध्य प्रदेश को 28.8%, पंजाब को 45.4% और प. बंगाल को 23.8% खर्च करना होगा। पिछले पांच वर्षों में बैंकों ने 10 लाख करोड़ रुपए के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए हैं। ऐसे एनपीए राइट-ऑफ में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी पिछले एक दशक में 60-80% के बीच है।
वैसे हर योजना या घोषणापत्र के वादे मुफ्त की रेवड़ी की तरह नहीं हैं। स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों से जुड़ी ऐसी किसी भी योजना को, जो सकारात्मक सामाजिक बेहतरी से जुड़ी हो, ‘रेवड़ी संस्कृति’ के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। अलबत्ता इस दिशा में कुछ बुनियादी सुधार की दरकार जरूर है। सबसे पहले तो केंद्र या राज्य सरकारों को मुफ्त की घोषणाओं को पूरा करने के लिए एक वित्त पोषण योजना को शक्ल देनी होगी। साथ ही संसद और विधानसभाओं की बजटीय समझ व कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए बजट कार्यालयों की स्थापना होनी चाहिए, जो संबंधित नीतियों को ड्राफ्ट करने और उनके बजटीय विश्लेषण में मददगार हों। किसी भी योजना को जरूरी या फ्रीबी के रूप में वर्गीकृत करने में अंतर्निहित कठिनाई को देखते हुए सरकारोंको प्रमुख वित्तीय संकेतकों के लिए वैधानिक रूप से बाध्य होना चाहिए। अन्य योजनाओं की तुलना में पूंजीगत व्यय योजनाओं के हस्तांतरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। चुनाव प्रचार के दौरान मुफ्त उपहार का वादा करने के लिए राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगाना दूर की कौड़ी होगी। वैसे चुनाव आयोग को जरूर राजनीतिक दलों को ऐसे वादों के लिए फंडिंग तंत्र या स्वरूप के बारे में अवगत कराने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे भी अहम यह है कि इस तरह की पहल के दुरुपयोग को रोकने के लिए हमें राजनीतिक दलों के भीतर और उनके साथ संवाद की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। कई वादे अधूरे छोड़ दिए जाते हैं, ऐसे में ये मतदाताओं का अपमान भी है। वैसे जो वादे समय के साथ पूरे भी कर लिए जाते हैं, उनसे सामान्य मतदाताओं पर उच्च करों का या तो बोझ बढ़ता है या फिर विकास की संभावना सिकुड़ जाती है। इस राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए सरकारों को राजकोषीय ईमानदारी और विश्वसनीय नीतियां बनाने की आवश्यकता होगी, जो हमारी राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता से कब की बाहर हो चुकी हैं।
इस मुद्दे पर मतदाताओं के साथ भी बहस और संवाद चाहिए। आखिरकार आज एक बड़ा सवाल मतदाताओं के सामने भी है। देश के मतदाता भारतीय नीति निर्माताओं से लंबे समय से निराश हैं कि वे लोगों के जीवन में वास्तविक सुधार के बदले अल्पकालिक लाभ देने की राह पर बढ़ रहे हैं। इस तरह की बहस और संवाद की सकारात्मक पहल से एक अलग राज्य और समाज उभर सकता है। एक ऐसा राज्य, जो सक्षम सार्वजनिक अस्पतालों, बेहतर स्कूलों का नेटवर्क तैयार करने के साथ कामकाजी आबादी को कौशल-समृद्ध बनाने और निवेश के लिए एक सक्षम वातावरण तैयार करे।