आकाश के तीन शरीर, आकाश से वायु बना-उसके भी तीन शरीर। वायु के भीतर आकाश भी रहता है-उसके तीन शरीर। पृथ्वी में शेष चारों महाभूत भी रहते हैं। अर्थात् पांच महाभूतों के पन्द्रह शरीर। मन भी चार, बुद्धि, प्रज्ञा, विज्ञानात्मा, अहंकार (बुद्धि का जनक) अलग। कर्म का अपना कुनबा है, इसके अपने अवयव है।
कर्म स्वयं में एक ब्रह्माण्ड है। शरीर भी ब्रह्माण्ड है। कर्म के आधार पर ही शरीर प्राप्त होता है। अत: कर्म करने में भी सम्पूर्ण शरीर रूपी ब्रह्माण्ड काम करता है। यह ब्रह्माण्ड कर्म का ही साम्राज्य है, कर्मों के फल की ही अभिव्यक्ति है। ब्रह्माण्ड में ब्रह्म के अलावा कर्म ही तो है, जो ब्रह्म के विवर्त का निर्माण करता है। ब्रह्म के एकमात्र स्वप्न- एकोऽहं बहुस्याम्- को फलित करता है। जिस प्रकार पिता ही पुत्र बनता है, उसी के समानान्तर ब्रह्म स्वयं ही कर्म बनता है।
यह भी पढ़ें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : सूर्य जैसा हो यज्ञ-तप-दान संसार में एक ही ब्रह्म होने से उसके कर्म की दिशा-उद्देश्य भी एक ही है। एकोऽहं बहुस्याम्। तब यह सारा खेल क्या है? कर्म के लिए सर्वप्रथम मन में इच्छा पैदा होना अनिवार्य है। इच्छा पैदा होने का आधार क्या हो? इच्छा ज्ञात विषय के लिए ही उठती है।
ज्ञान से इच्छा होना एक बात है, इच्छा को पूरी करने की स्वीकृति मिल जाना दूसरी बात है। यह भी मन और बुद्धि के मध्य होने वाले अत्यन्त गतिमान सम्प्रेषण का क्षेत्र है। स्वीकृति के भी तो कई पहलू होते हैं। इच्छा पूरी की जाए अथवा नहीं, कब की जाए, क्या फल मिलेगा और उसकी जीवन में क्या उपयोगिता होगी।
क्या इच्छा को दबा देना उचित होगा? कर्म सृष्टि साक्षी होगा या मुक्ति साक्षी, क्या कर्म करने से पूर्व गुरु, माता-पिता, जीवनसाथी, सन्तान, परिजनों आदि की भी स्वीकृति लेनी चाहिए? मेरे किए गए कर्म का इन सब पर भी प्रभाव पड़ता है। क्या कर्म मेरा स्वनिर्मित है?
गीता में कर्म की प्रेरणा के तीन कारण कहे गए है़-ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय। ये तीनों प्रेरक तत्व भी स्वयं में त्रिगुणी हैं। कर्ता की प्रकृति ही तय करती है कि ज्ञेय के बारे में क्या जानकारी उसके पास है और क्या जानने की इच्छा उसके मन में है। तात्विक दृष्टि से तो ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय भिन्न नहीं होते, एक ही रहते हैं। विषय सामने हो तो ही कोई उसका ज्ञाता हो सकता है। विषय नहीं तो न ज्ञान, न ही ज्ञाता।
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कर्म भी एक-एक बिन्दु करके पूरा होता है। अगला कर्म होते ही पिछला बिन्दु लीन हो जाता है। बिन्दुओं की शृंखला ही कर्म बनती है। जिसको त्रिगुणी प्रकृति-स्वभाव कह रहे हैं, वह आत्मा का अंग है। ये ही आत्मा को शरीर में बांधते हैं।
सत्त्व गुण निर्मल है तथा सुख और ज्ञान के सम्बन्ध से व्यक्ति की आत्मा को बांधता है। रजोगुण कामना और आसक्ति के द्वारा कर्म-फलों से बांधता है। सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बांधता है। लोभ रजोगुण के कारण, कर्मों से विरक्ति तम के कारण होती है। प्रमाद-आलस्य बढ़ जाता है।
गीता कहती है कि कर्ता, करण और क्रिया तीनों ही कर्म संग्रह कहे जाते हैं। कर्म के पांच कारण भी कृष्ण ने गिनाए हैं-अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएं (प्रयास) तथा देवयोग ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। गीता 18.14
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ईश्वरीय इच्छा त्रिगुण मुक्त रहती है, जबकि जीवेच्छा त्रिगुणी होती है। स्वीकृति मन देता है। ईश्वरीय इच्छा तो प्रारब्ध है, स्वयं स्वीकृत होती है। जीव इच्छा की स्वीकृति प्रतिबिम्बित – त्रिगुणी मन देता है। स्वीकृति के साथ ही सूक्ष्म शरीर में प्राणों की हलचल होने लगती है। मन-प्राण-वाक् सदा साथ रहते हैं।
प्राण सदा मन का अनुसरण करते हैं। इसी आधार पर स्थूल शरीर में क्रिया का क्रम चालू हो जाता है। कर्म होता है और फल के लिए बन्ध हो जाता है। बन्धनमुक्त कर्म के लिए कृष्ण ने एक मार्ग बताया है-निष्काम कर्म अर्थात् वैराग्य बुद्धियोग।
कर्म ही विश्व रूप है अत: कर्म की व्याप्ति भी तीनों ही कालों में रहती है। कर्म का स्वरूप क्रियामात्र तक सीमित नहीं है। क्रिया से पूर्व भूतकाल के कर्म और फल, वर्तमान की इच्छाएं तथा चेष्टाएं और साथ ही साथ भविष्य में प्राप्त होने वाले फल भी सम्मिलित रहते हैं। अर्थात् कर्म का आरंभ पिछले कर्म के फल के साथ ही हो जाता है तथा वर्तमान कर्म की समाप्ति फल प्राप्त होने पर ही होती है।
फल प्राप्ति भी सातों लोकों में व्याप्त रहती है। जिस प्रकार जीवात्मा महद्लोक से चलकर क्रमश: भूपिण्ड पर अथवा अन्य पिण्डों पर आकर ठहरता है, उसी तरह प्रतिसृष्टि में भी उसकी ऊध्र्वगति क्रमश: ही होती है। कुछ साधक सूर्य मण्डल का भेदन करने में सफल हो सकते हैं।
कर्म की इसी त्रिकाल गति, त्रि-शरीर (तीन शरीर) तथा सप्तलोक यात्रा से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कर्म करने वाला, फल भोगने वाला आत्मा भी एक ब्रह्म ही है जो कर्म के भेद से शरीर (योनियां) बदलता रहता है। स्वयं ही स्वयं के साथ लीलाएं करता है। पूरा विश्व ही ब्रह्म के कर्म का मंच है।
क्रमश:
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