हम कहते हैं-पितृदेवो भव। पिता के बीज से ही आगे सन्तान उत्पन्न होती है। स्वयं पिता भी अपने पिता की ही सन्तान होता है। पिता के शुक्र में पिता के साथ अन्य पूर्व की छह पीढिय़ों के अंश भी रहते हैं। ये सातों पीढिय़ों के अंश सन्तान के शरीर में कार्य करते हैं। फल आने तक कर्म की निरन्तरता रहती है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: अर्द्धेंद्र की पूर्णता दाम्पत्य में
गुठली का कर्म नई गुठली आने तक, उसकी प्रजनन क्षमता का विकास होने तक चालू रहता है। यह प्राण रूप कर्म ही पिता स्थानीय है। गुठली का अस्तित्व भले ही मिट गया होगा, पिता के प्राण कार्यरत रहते हैं। स्थूल पिता की भूमिका प्रजनन की दृष्टि से पूर्ण हो गई। अब शेष उम्र पुत्र के शरीर में प्राण रूप पिता ही बहते रहेंगे। वे इसी रूप में अगले शरीर में विस्तार पाएंगे।पिता के रेत में दो तरह के तत्त्व रहते हैं। सूर्य से प्राप्त प्राण रूप आत्मा का अंश- सूक्ष्म प्राण रूप में। ‘ममेवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन’- गीता। दूसरा भाग अन्न रूप पंच भौतिक शरीर के निर्मापक तत्त्व हैं। मातरिश्वा वायु के प्रभाव से सूर्यगत प्राण शरीर की घनता का माध्यम बनते हैं। पांचों क्षर (मत्र्य) प्राणों-प्राण, आप्, वाक्, अन्न, अन्नाद के पंचीकरण की प्रक्रिया से क्षरसृष्टि अपना स्वरूप ग्रहण करती है।
”मातृदेवो भव’। धरती माता है। जैसा बीज- वैसी फसल। जैसी औषधियां- वनस्पतियां वर्षा से उत्पन्न होती हैं, जैसे प्राणी उनका भोग करते हैं, वैसे ही शुक्र का निर्माण होता है। माता शुक्र को सन्तान रूप में परिणत करती है। शरीर का निर्माण करती है। अग्नि में सेाम की आहुति इस निर्माण यज्ञ का कारण है।
मन्थन से तप्त शोणित मातरिश्वा के सहारे पुंभ्रूण को डिम्ब अथवा स्त्रीभू्रण तक ले जाता है। स्त्री में बीज नही रहता। वह ऋत रूप सौम्या है। सूक्ष्म और स्थूल दृष्टि से उसे तो अग्नि में आहूत होकर अग्नि के साथ एकाकार हो जाना है। शोणित में स्त्रीभू्रण की बहुलता से स्त्री का जन्म होता है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: क्षीरसागर योषा-वृषा का आशय
सोम छाया रूप है। सम्वत्सर में परिक्रमा के कारण पृथ्वी पर प्रकाश-अन्धकार बने रहते हैं। दिन के प्रकाश में भी चन्द्रमा, बुध, मंगल जैसे ग्रहों की छाया भी प्रकाश में बाधक रहती है। शास्त्र कहते हैं कि पुरुष का जन्म प्रकाश क्षेत्र में, स्त्री का जन्म छाया क्षेत्र में होता है।सूर्य का प्रकाश आधी पृथ्वी पर पड़ता है। शेष आधा भाग छाया में रहता है। प्रकाशित भाग में सौर अग्नि प्रधान रहती है, नीचे के अद्र्ध गोलाद्र्ध में चान्द्र सोम की प्रधानता रहती है। आग्नेय ऐन्द्र भाग पुरुष है, सोम मुख्य ऐन्द्रभाग स्त्री है। आधा इन्द्र भाग पुरुष, आधा स्त्री बन रहा है। दोनों का समग्र रूप ही सूर्य है, यही स्वरूप मानव का दाम्पत्य भाव है-
”द्विधा कृत्वात्मनो देहमद्र्धेन पुरुषोऽभवत्।
अद्र्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत् प्रभु:।।’ मनु १/३२
अर्थात्- ब्रह्मा अपने शरीर को दो भागों में विभक्त करके आधे से पुरुष हो गए तथा आधे से स्त्री हो गए और सृष्टि समर्थ ब्रह्मा ने उसी स्त्री में विराट् नाम के पुरुष की सृष्टि की।
गुठली के प्राण बहते हैं। सभी अंग-प्रत्यंग, आकृति-प्रकृति का निर्माण भी सूक्ष्म रूप में चलता है। स्थूलता प्रकट होती जाती है। मां देव रूप में, प्राणवत् निर्माण जारी रखती है। माता के शरीर में माता के अंश के साथ नानी, पडऩानी आदि पीढिय़ों के सूक्ष्म अंश रहते हैं।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: योषा-वृषा सृष्टि के आधारभूत तत्त्व
माता-पिता के प्राण शरीर-मन (मां)-बुद्धि (पिता) के मुख्य हेतु होते हैं। दोनों के अधिभूत, अधिदेव, अध्यात्म के अंश भी सन्तान में रहते हैं। माता-पिता की भूमिका सांसारिक जीवन की प्रधानता लिए होती है।”आचार्य देवो भव’- गुरु का सम्बन्ध शरीर से नहीं होता। मां संसार में जन्म देती है। सांसारिक संस्कार देती है। गुरु द्विज बनाता है। दुबारा नया जन्म देता है। आत्मा के स्वरूप ज्ञान से जोड़ते हुए मोक्षमार्गी बनाता है। गुरु का स्थान माता-पिता से ऊंचा होता है।
गुरु शिष्य के आत्मा से एकाकार होकर शिष्य को अपनी प्रतिकृति बनाता है। गुरु, परम गुरु, परमेष्ठी गुरु एवं परात्पर गुरु रूप में गुरु का सारा क्रम प्राण संस्था में ही चलता है। सृष्टि साक्षी जीवन से मोड़कर श्वोवसीयस मन रूप आत्मा को मुक्ति साक्षी भाव में प्रवृत्त करता है, साथ रहता है, नित्य प्रेरित करता है। जीवन को ऊध्र्वगामी बनाता है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: क्वाण्टम को भारत आना पड़ेगा
इस प्रकार हमारा कर्म, बुद्धि, ज्ञानादि सारे भाव प्राण रूप में चल रहे हैं। स्थूल में न तो माता-पिता, न ही गुरु और न ही मैं (स्वयं) जी रहा हूं। शरीर में सारे कर्म अभिव्यक्त होते हैं। शरीर इन चारों में से कोई नहीं है। मैं कौन हूं? शरीर की भूमिका क्या है? मेरा शरीर से क्या सम्बन्ध है?शरीर मरता है, मैं नहीं मरता। न मुझे माता-पिता पैदा करते हैं। मैं शरीर में आया और निकलकर अन्य शरीर में चला गया। तब स्थूल-सूक्ष्म और कारण को समझे बिना स्वयं को समझ पाना संभव है? क्या इसके बिना मैं अपने आत्मरूप में जी भी पाऊंगा या नहीं?
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com