scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: अभाव ही बन्धन | Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand lack is bondage 26 feb 2022 | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: अभाव ही बन्धन

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: अभाव शब्द मृत्यु समान है। अभाव में कभी पूर्णता दिखाई नहीं देती। ईश्वर पूर्ण है, उसकी सृष्टि भी पूर्ण है। पूर्ण भी निरन्तर व्यय होने से अपूर्ण होता रहता है। इस अभाव को पूर्ण करना ही सृष्टि चक्र का मूल बनता है… शरीर ही ब्रह्माण्ड श्रृंखला में ‘अभाव’ और ‘पूर्णता’ को समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख –

Feb 26, 2022 / 09:19 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड: अभाव ही बन्धन

शरीर ही ब्रह्माण्ड: अभाव ही बन्धन

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: शरीर स्थूल सृष्टि है, जड़ है, लक्ष्मी है, पृथ्वी है। वाणी सूक्ष्म स्तर है, सरस्वती है, ऊष्ण है, वाक्-ब्रह्म है। शरीर नश्वर है, वाणी प्राणवान है। मन का अनुसरण प्राण करते हैं। मन के विचार- इच्छा-भाव आदि समग्र रूप में कार्य करते हैं। मन-वाणी-शरीर तीनों साधन हैं। इनकी दिशा ये अपने आप तय नहीं कर सकते। तीनों शरीरों-कारण, सूक्ष्म और स्थूल के मन भी भिन्न-भिन्न स्तर के हैं। फिर सबके केन्द्र में चौथा श्वोवसीयस मन सबका नियन्ता है। किन्तु मन भी क्रियाशील नहीं होता। इसमें केवल कामना पैदा होती है। हां, कामना भी क्रियाशील नहीं होती। कामना का स्वरूप भावना-वासना से तय होता है।
सृष्टि में भाव और अभाव दो ही तत्त्व हैं। सत् है, असत् है। गीता में कृष्ण ने प्रतिपादित किया है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:।। गीता 2.16
असत् की सत्ता नहीं है, सत् का अभाव नहीं है। अविनाशी का नाश नहीं होता, किन्तु उसके सारे शरीर ही नाशवान हैं। आत्मा मरता नहीं है। यह होना, नहीं होना ही भाव और अभाव है।

इस श्लोक में दो सिद्धान्त प्रतिपादित हो रहे हैं। एक, सत्-असत् का और दूसरा भाव-अभाव का। प्रकृति में कुछ शुद्ध प्राकृत है, तो कुछ संयोगजन्य हैं, मिश्रित हैं। अर्थात् पदार्थ के दो रूप हैं-सत्तावान। सत्य अथवा असत्। जिसकी सत्ता है, वह पहले भी था, आज भी है, और कल भी रहेगा।

तीनों कालों में सत्ता रहेगी। उसकी सत्ता का कभी अभाव नहीं होगा। जो कभी है, कभी नहीं है, उसकी सत्ता नहीं होती। वह असत् है। जैसे कि हम। हम जन्म से पूर्व नहीं थे, आज हैं, मृत्यु के बाद भी नहीं रहेंगे। स्वयं में भी संयोगज हैं-रेत, शुक्र संयोग से होते हैं। अत: हमारी वास्तविक सत्ता नहीं होती।
रेत-शुक्र में अंशत: रहने वाले अवयवों को एकत्र कर दिया है। नई वस्तु नहीं बनाई। एक अवस्था को दबाकर दूसरी अवस्था पैदा कर देना मात्र है। इसे सांख्य में नई के स्थान पर दोनों का सम्मिश्रण कहा है। इसी प्रकार विनाश को भी परिवर्तन कहा है। सत् का अभाव या असत् की उत्पत्ति नहीं होती। अवस्थाओं को सत्-असत् नहीं कहा जा सकता।

सत् तो एक ही मूल तत्त्व है। वह सदा सत् ही रहेगा। असत् कभी नहीं हो सकता। जो अन्य अवस्थाएं हैं, वास्तविक सत्ता न रखने वाली- सत् से भिन्न होने के कारण- असत् ही हैं। वे वास्तविक सत् नहीं हो सकती। स्वर्ण सत् है और आभूषण असत् है। तत्त्व रूप में स्वर्ण भी सत् नहीं है। तेज और पृथ्वी के अंशों को मिलाकर बनता है।

कारण और कार्य की भिन्न सत्ता नहीं होती। पृथ्वी जल से, जल तेज से, तेज वायु से, वायु आकाश से भिन्न नहीं हो सकते। आगे आकाश अहंकार से, अहंकार महतत्त्व से, मह: प्रकृति से और प्रकृति मूल तत्त्व से पृथक् सिद्ध नहीं होगी। अन्त में एक ही मूल तत्त्व रह जाता है।
आधुनिक विज्ञान, मूल में इलेक्ट्रोन-प्रोटोन को मूल तत्त्व मानता है। अब यह भी मानने लगा है कि ये दोनों भी एक ही तत्त्व से निकले हैं। हम तो प्रारंभ से एक ही सत् मान रहे हैं। ”सदैव सौम्य दमप्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्।’ इलेक्ट्रोन-प्रोटोन भी शतपथ ब्राह्मण के यत् और जू ही सिद्ध होते हैं। इनको वायु और आकाश की पूर्व अवस्था कहा है।

ये वेद-विज्ञान में क्षर पुरुष कहे गए हैं, जो अक्षर से बनते हैं। अक्षर भी अव्यय से बनता है। अव्यय भी मूल तत्त्व का माया विशिष्ट रूप है। आधुनिक विज्ञान यहां पहुंचने के प्रयास से लगा है। फिर भी केवल भौतिक विज्ञान के सहारे पहुंचना संभव नहीं है। आधिदैविक और आध्यात्मिक विज्ञानों को भी साथ लेना पड़ेगा। क्योंकि मूल तत्त्व वाक् और मन से भी परे है। मूल तत्त्व में गुण-धर्म भी नहीं है। ये तो अवस्था के साथ पैदा होते हैं।

गुण-धर्म न होने के कारण सत् पदार्थ की प्रतीति नहीं होती। मन-इन्द्रियादि की वहां गति नहीं है। जो पदार्थ प्रतीत होते हैं उनमें अनुगत सत् की अवश्य प्रतीति होती है। कुछ भी प्रतीति नहीं हो तो भी ‘नहीं है’ रूप अभाव ‘अस्ति का अनुभव कराता है। अत: सत्ता का अभाव नहीं होता।
यह सत्ता ज्ञान से सिद्ध होती है। जब हम जानते हैं, ‘तब है’ कह देते हैं। ज्ञान का अभाव भी सिद्ध नहीं होता। अत: सत्ता, चेतना और आनन्द तीनों ही ब्रह्म के रूप में- मूल तत्त्व रूप में- सर्वत्र व्याप्त है। अपरिवर्तनीय ही है। इन्हें ही सत् कहा जाता है।

जो पदार्थ किसी देश-काल में है, किसी देशकाल में नहीं है, उसकी मुख्य सत्ता नहीं मानी जाती। मुख्य सत्ता उसी की है जिसका किसी देश या काल में अभाव न हो। सत्ता का तो सुषुप्ति काल में भी अभाव नहीं होता। ”मैं खूब आनन्द से सोया’- यह आनन्द और विज्ञान का स्मरण ही है। आत्म स्वरूप मुख्य ज्ञान तो सदा ही रहता है। अत: असत् की उत्पत्ति और सत् का अभाव सिद्ध नहीं होता। एक ही तत्त्व पर सम्पूर्ण विश्व कल्पित है। यही अद्वैतवाद है।

अभाव शब्द मृत्यु समान है। अभाव में कभी पूर्णता दिखाई नहीं देती। ईश्वर पूर्ण है, उसकी सृष्टि भी पूर्ण है। पूर्ण भी निरन्तर व्यय होने से अपूर्ण होता रहता है। इस अभाव को पूर्ण करना ही सृष्टि चक्र का मूल बनता है। हृदय में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र तीन अक्षर प्राण हैं। मूल में तो एक ही है। ब्रह्मा की श्वसन प्रक्रिया से, भुक्त अग्नि रूप में अपूर्णता बनती है। बाहर निकलने वाला अग्नि इन्द्र कहलाता है।

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इस अभाव की पूर्ति विष्णु करता है। यही विश्व रचना की व्यवस्था है। हमारा जीवन भी इसी प्रक्रिया से चलता है। शरीर से अग्नि निकलती रहती है। दिग् सोम इसे पूरा करता जाता है। विकास में जो अग्नि खर्च होता है, उसकी पूर्ति अन्न से होती है। हमारे हृदय में भी तीनों अक्षर प्राण प्रतिष्ठित हैं।

हमारा जीवन अर्थ और काम पर आधारित है। इन दोनों क्षेत्रों की अपूर्णता ही हमारे जीवन संचालन का आधार बनता है। हमारी कामनाएं अन्तहीन होती हैं। कामना ही अभाव है, मृत्यु है। हम कामना के रहते सत्ता-सुख भोग ही नहीं पाते। अब तो कामनाएं भी मूलत: अर्थ प्रधान ही होने लगी हैं। व्यक्ति सदा धन की कामना में बंधा दिखाई पड़ता है। हमारे वेद कामना पूर्ति के मार्गदर्शक हैं।

हम देवताओं से सदा मांगते रहते हैं। मांगना हमारी मूल वृत्ति बन गई है। मांगने वाला ही याचक है। चाहे ईश्वर से ही क्यों न मांगा जाए। आज लगभग सभी सत्ताधारी इसी श्रेणी में जीने लगे हैं। अर्थात् मृत्यु के हाथों में खेल रहे हैं। तभी समझ में आता है कि कृष्ण ने वेदों को किस कारण से त्रैगुण्य कहा। अर्जुन को नि:स्त्रैगुण्य हो जाने की सलाह दे डाली।

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अभाव ही कामना का जनक है। कामना ही माया है। ”या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेणसंस्थिता।’ क्षुधा ही अभाव का प्रतिबिम्ब है। काम-क्रोध-लोभ को कृष्ण ने नरक के तीन द्वार कहे हैं। कामना ही दृढ़ होकर राग-आसक्ति का हेतु बनती है। आसक्ति अविद्या का ही मार्ग प्रशस्त करती है।

माया ही भाव है, माया ही अभाव है। अभाव में ही तो फल की इच्छा रहती है। कर्ताभाव, कर्म एवं कर्मफलों का चक्र चलता है। यही तृष्णा आग की तरह कभी शान्त नहीं होती। घी डालते रहो, अग्नि प्रकर्ष होती जाएगी। तृष्णा पैदा करेगी। इसके विपरीत एक संन्यासी यदि कामना मुक्त है तो-”हाथ में लोटा, बगल में सोटा, चारों दिशा जागीरी में।’ इसलिए कहते हैं कि देवता भाव के भूखे हैं।

भावपूर्ण ढंग से देवता के साथ जुडऩा अभावों की पूर्ति कर देता है। भाव से देवता के अभाव भी पूर्ण होते हैं। कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ से देवता उन्नत होते हैं और हमको उन्नत करते हैं। (गीता 3/11) । मूल में तत्त्व इतना ही है कि अभाव से बाहर निकलना ईश्वर भाव में प्रतिष्ठा कर देता है। यही अच्युत भाव की प्रतिष्ठा बन जाता है। कृष्ण को अच्युत कहने के पीछे यही भाव है। क्रमश:

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