अग्नि आज्य रूप हवि पर निर्भर है। आज्य घी को कहते हैं। यह दूध से बनता है। दूध औषधि का विकार है। औषधि पानी से उत्पन्न हुई है। पानी सोम का विकार है। सोम रेत है। अत: सोम ही आज्यरूप बनता है। आज्य ही रेत है। प्रजोत्पत्ति में योषा-वृषा प्राण का मिथुनभाव ही कारक तत्त्व है।
इसमें भृगु व अंगिरा दो तत्त्वों का समन्वय है। इनमें भार्गव तत्त्व लक्ष्मी है। आंगिरा तत्त्व सरस्वती है। सरस्वती ही श्री है। सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों विष्णु की पत्नियां हैं-‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’ (यजु: संहिता)। यह अप्तत्त्व सम्पूर्ण विश्व में होने के कारण आप: कहलाता है।
जीव/ईश्वर दोनों के स्वेद में दोनों रस रहते हैं। ईश्वर में मधुर रस की तथा जीव में क्षार रस की प्रधानता है। शान्त-मधुर भाग से भृगु तत्त्व का विकास होता है। भृगु भर्जनशील है। अप्तत्त्व का मधुर रस ही सृष्टि का रेत है। ‘तदिदमप्सु पयो हितम्’ अर्थात् जलों में दुग्ध विद्यमान है। इस रूप में अप्तत्त्व का ही ‘नीर-क्षीर-विवेक’ हुआ है।
भृगुतत्त्व ही घनावस्था से आप: है, तरलावस्था से वायु है एवं विरलावस्था से सोम है। आपो-वायु-सोम-इत्येते भृगव: अर्थात् आप:, वायु तथा सोम तीनों तत्त्वों की समष्टि का नाम ही भृगु है, जिनसे क्रमश: असुर-गन्धर्व-पितर नामक तीन प्राणात्मक-सर्ग अभिव्यक्त हुए हैं।
क्षीरभाव दूध है और सौम्य है। यह सौम्य क्षीर आपोमय समुद्र में घुल-मिल रहा है। मध्यस्थ-वायु ही इसको नीर से अलग करता रहता है।
इस सोममय क्षीर में चिदात्मा (विष्णु) अभिव्यक्त होते हैं। चिदात्मा की गर्भभूमि को ‘महद्ब्रह्म’ माना गया है। कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो महद्ब्रह्म है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूं। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। (गीता 14.3)
परमेष्ठी के पितरप्राण सौम्य-तत्त्व ही हैं। इनके सत्व-रज-तम तीन गुण हैं। परमेष्ठी की परिक्रमा करने के कारण सूर्य से अहंकृतिभाव, चन्द्रमा से प्रकृतिभाव एवं भूपिण्ड से आकृतिभाव रूप तीन प्रकृतिभाव भी महद्ब्रह्म में बन रहे हैं।
इन छ: भावों से युक्त यह महद्ब्रह्म ही विश्व की मूलप्रकृति है। इसी महद्ब्रह्म में आप्यजीवों (जल के प्राणी) वायव्यजीवों (वायु के मानव-पशु-पक्षी-कीट-कृमि-प्राणी) एवं सौम्यजीवों (आठ प्रकार की देवयोनियों) की सृष्टि होती है।
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सृष्टि पूर्व केवल सलिल समुद्र था। जैसे ही सृष्टि के लिए बीजप्रद पिता समुद्र को गर्भित करते हैं वैसे ही वह सलिल समुद्र ‘क्षीर सागर’ बन जाता है। स्नेहन तत्त्व के कारण नीर का क्षीर बनना ही सृष्टि है। गर्भ धारण से पूर्व जो माता का रूप है, वह जल के समुद्र की भांति है। गर्भित होने के साथ ही जल समुद्र क्षीर सागर में परिवर्तित होने लगता है।जिस प्रकार बिना गर्भित हुए माता सन्तान को जन्म नहीं देती, वैसे ही बिना प्रसव के दूध उत्पन्न नहीं होता। जल में स्नेहन या घृत नहीं है, दूध में है। दूध के प्रत्येक अंश में घृत व्याप्त है। सन्तान के लिए माता के हृदय का स्नेह घृत के रूप में प्रकट होता है। घी का प्रत्येक कण अग्नि का ही घन रूप है। ‘आग्नेय वै घृतं।’ (शतपथ ब्राह्मण)
तब ‘सरिर’ आप: का रूप ले लेता है। यही सलिल है। जब तक सलिल आप: रूप नहीं बन जाता, तब तक उसमें गर्भ धारण की शक्ति नहीं आती।
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चिदात्मा विष्णु जिसमें गर्भ धारण करते हैं, वहीं क्षीर उत्पन्न होता है। आग्नेय पुरुष तथा सौम्य स्त्री दोनों ही आपोमय हैं। इस विषय में छान्दोग्यश्रुति प्रमाण है-”इति तु पंचम्यामाहुतावाप: पुरुषवचसो भवन्ति।’ किन्तु इन दोनों आपोमय शरीरों की मूल प्रकृति में अन्तर है।आग्नेय वृषा-पुरुष की मूलप्रतिष्ठा अग्नि है। सौम्या योषा स्त्री की मूलप्रतिष्ठा सोम है। अग्नि प्रकृति प्रधान पुरुष में अप्तत्त्व के विद्यमान रहने पर भी सौम्य क्षीर (सोमात्मक दूध) की अभिव्यक्ति नहीं होती। किन्तु आपोमय योषा शरीर में क्षीर (दूध) पैदा हो जाता है।
पुन: जहां क्षीर अभिव्यक्त होगा, वहीं चिदात्मा गर्भ धारण करते हैं वहीं प्रजननधर्म के लिए भूमि हो जाती है। इस आधार पर सौम्या स्त्री ही चिदंश (जीवात्मा) को अपने गर्भ में धारण करती है तथा इसे भौतिक स्वरूप प्रदान करने में समर्थ बनती है।
‘क्षीर’ से इस प्रजा का पोषण-वद्र्धन भी वही कर पाती है। पिता की तुलना में माता का स्थान क्यों सर्वोच्च माना गया, इस प्रश्न का भी यही रहस्य है।
क्रमश: