scriptब्रह्माण्ड : एक संहिता | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 27 Aug 2022 Universe A Code | Patrika News
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ब्रह्माण्ड : एक संहिता

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: वेद के अनुसार ब्रह्माण्ड भी ऐसी संहिता है जिसके सभी तāव एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के कार्यों में परस्पर सहयोग करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्माण्ड में असंख्य विश्व विद्यमान हैं, वे सभी संहितभाव में परस्पर सहयोगी हैं… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख –

Sep 03, 2022 / 11:22 pm

Gulab Kothari

ब्रह्माण्ड : एक संहिता

ब्रह्माण्ड : एक संहिता

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: साथ रहने का भाव संहिता कहा जाता है। सहितस्य भाव: संहिता पाणिनी के अनुसार पर: सन्निकर्ष: संहिता अर्थात् वर्णों की अत्यधिक निकटता को ही संहिता कहा जाता है। यही संहिता ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड की भी होती है। ब्रह्माण्ड व पिण्ड के समस्त अवयवों का साथ-साथ रहने का भाव ही संहिता है। इस रूप में एक ऐसी पूर्ण इकाई जिसका प्रत्येक अंग अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता हो, संहिता कहा जाता है। संहितभाव में परस्पर सम्बद्ध वे सभी अवयव एक-दूसरे के हित सम्पादन के निमित्त हैं। उनका अस्तित्व भी तभी तक है जब तक वे संहिता के अंग हैं। अत: संहिता एक सर्वोच्च स्तरीय समीपता या सायुज्य है, जिसमें सभी अवयव परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।
वेद के अनुसार ब्रह्माण्ड भी ऐसी संहिता है जिसके सभी तत्त्व एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के कार्यों में परस्पर सहयोग करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्माण्ड में असंख्य विश्व विद्यमान हैं, वे सभी संहितभाव में परस्पर सहयोगी हैं। यही विश्वविद्या है।

यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे सिद्धान्त के अनुसार पिण्ड और ब्रह्माण्ड में साम्य स्थापित किया जा सकता है। यदि यह समस्त संसार समष्टि एक ब्रह्माण्ड है तो प्रत्येक पिण्ड में भी एक पूर्ण संसार समाहित है। संसार में स्थित सभी ससंज्ञ, असंज्ञ अथवा अन्त:संज्ञ जीवों में प्रत्येक एक दूसरे के सहयोग के लिए जी रहा है।

सभी के परस्पर सहयोग से यह ब्रह्माण्ड अश्वत्थ वृक्ष के समान एक पूर्ण संहित इकाई रूप में दिखाई देता है। गीता में कृष्ण स्वयं को अश्वत्थ कह रहे हैं और यह भी कह रहे हैं-”ममैवांशो जीवलोके…’। यही अश्वत्थ का प्रमाण भी है।

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कर्मों से बंधी पशुयोनियां

ब्रह्माण्ड में अनेक पिण्ड हैं, उन पिण्डों में भी अनेक जड़ व चेतन तत्त्वों की सत्ता विद्यमान है। किन्तु हमारा सम्बन्ध हमसे जुड़े पंचपर्वा विश्व से है। इस पंचपर्वा विश्व में पांच पर्व हैं-स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी। ये ही पांच पर्व सात लोकों में विभक्त हो जाते हैं-भू, भुव:, स्व:, मह:, जन: तप: तथा सत्यम्। पुन: ये सात लोक ही तीन त्रिलोकियों में विभक्त हो जाते हैं-रोदसी, क्रन्दसी तथा संयति।

ये सभी लोक समग्र रूप से एक साथ कार्य करते हैं। एक के बिना दूसरा अपने अस्तित्व को बनाए रखने में समर्थ नहीं होता। पंचपर्वा विश्व में स्वयंभू तथा परमेष्ठी के अग्नि व सोम से मिलकर निर्मित सूर्य का अस्तित्व तभी सम्भव रहता है जब तक उसे परमेष्ठी के सोम की निरन्तर प्राप्ति होती रहे। इसी प्रकार पृथ्वी स्थित सभी प्राणियों का अस्तित्व सूर्य पर निर्भर है।

यदि हमें सौर प्रकाश एवं ताप ही नहीं मिले तो हमारा जीवन सम्भव नहीं हो सकता। हमें सूर्य से ज्योति, आयु एवं गौ तीन तत्त्वों की प्राप्ति होती है, अत: वेद में सूर्य को जगत् की आत्मा कहा गया है-”सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।’ चन्द्रमा भी सौर किरणों से प्रकाशित होता है। उसको अन्न परमेष्ठी सोम (श्रद्धा) से मिलता है। यह चन्द्रमा रेत, श्रद्धा और यश का प्रदाता है।

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अग्नि और सोम ही पशु के पोषक

पृथ्वी के सभी प्राणियों की उत्पत्ति पंचाग्नि विद्या के आधार पर होती है। जीव पांच धरातलों से अपनी जीवन यात्रा करता हुआ स्थूल शरीर प्राप्त करने के लिए योनि विशेष को प्राप्त करता है। इस योनि की प्राप्ति में उसके पूर्व जन्म में किए कर्मों के फल मुख्य रूप से कारण है।

यह पंचााग्नि विद्या भी ब्रह्माण्ड की एक-दूसरे के प्रति क्रियाशीलता को इंगित करती है कि एक जीव के जन्म में सभी लोकों का सहयोग रहता है। इसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड में दधि, घृत, मधु और सोम के समुद्र हैं। समस्त पदार्थों में इन चारों सामुद्रिक तत्त्वों की अवस्थिति रहती है।

चाहे वो पदार्थ पिण्डगत हो, अथवा ब्रह्माण्डगत। अत: संसार में सभी पिण्ड समष्टि भाव में कार्यरत हैं उनका प्रत्येक का भी अपना एक ब्रह्माण्ड है जैसे यह विश्व है।

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पशु : अग्नि भी, अन्न भी

इसी संहितभाव की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि यह संहिता, पांच प्रकार की होती है-अधिलोक अर्थात् लोक से संबंधित। पृथ्वी तथा उससे साक्षात् सम्बद्ध लोक जिनको हम देख पाने में समर्थ हैं उनका परस्पर का संहितभाव अधिलोक संहिता कहा जाता है।

इस दृष्टि से पृथ्वी पूर्वरूप, द्युलोक उत्तररूप तथा इनको जोडऩे वाला मध्यम भाग अन्तरिक्ष कहा जाता है। पृथ्वी तथा द्युलोक को वेद में पत्नी-पति की संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार पति-पत्नी सहचर भाव से रहते हैं। उसी प्रकार इनका भी सहचर भाव है। इसके मध्य अन्तरिक्ष लोक है जो इनमें समन्वय करता है।

दूसरी संहिता अधिज्योतिष कही जाती है। इसमें अग्नि पूर्वरूप, सूर्य उत्तररूप, आप: संधि स्थल, तथा विद्युत् सन्धान है। सूर्य से पृथ्वी तक 33 देव विद्यमान हैं। इनमें 8 वसु, 11 रुद्र तथा 12 आदित्य हैं जो कि अग्नि हैं। यह अग्नि वस्तुत: स्वयंभू लोक की है।

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पंच पशु : मानव सबसे विकसित

यही अग्नि सृष्टि विस्तार क्रम में विरल, (12 आदित्य) तरल (11 रुद्र) तथा घन (8 वसु) रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त है। दो अश्विन कुमार इनके संधि स्थलों पर प्रतिष्ठित रहते हैं। इस अग्नि को प्रज्जवलित रहने हेतु ईंधन की आवश्यकता रहती है। परमेष्ठी का सोम ही अग्नि का अन्न बनता है।

यह भी घन तरल तथा विरल रूप में अग्नि के साथ हर लोक में विद्यमान रहता है। इनको ही क्रमश: अप्, वायु तथा सोम कहा जाता है। इनके मिलने से ही जगत् का निर्माण होता है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं है क्योंकि अग्नि सत्य तथा सोम ऋत रूप है। सोम को सत् रूप में परिणत होने के लिए अग्नि की तथा अग्नि को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए सोम की आवश्यकता होती है। अत: परस्पर सहभाव में रहकर ही ये समस्त जगत् में व्याप्त रहते हैं।

अधिप्रजा संहिता में प्रजा की समृद्धि हेतु परस्पर सहभाव में माता पूर्वरूप, पिता उत्तर रूप, सन्तान संधि तथा परस्पर समागम सन्धान है। इस रूप में पिता बीजप्रदाता है तथा माता उस बीज को अपने गर्भ में धारण करने वाली है। अध्यात्म संहिता में नीचे की ठोड़ी का भाग प्रथमवर्ण है।

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वर्णसंकरता का प्रवाह

ठोड़ी के ऊपर का भाग नासिका का अन्तिम वर्ण है। वाणी संधि है। जीभ सन्धान है। अध्यात्म संहिता के वर्णन में मानव के मुख प्रदेश के सभी अवयवों को लिया गया है। यही समस्त मानव देह का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि समस्त ज्ञानेन्द्रियां हमारे मुख प्रदेश में रहती है। हमें अपने शारीरिक कार्यों की परिणति के लिए अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर आश्रित रहना पड़ता है।

कर्मेन्द्रियों को कार्य की प्रेरणा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही मिलती है। अत: ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के संहित भाव से ही शारीरिक कार्य किये जाते हैं। यही उनका संहित भाव है। अभिप्राय यह है कि सभी लोकों में या सभी स्तरों पर विविध अवयव परस्पर सम्बन्ध रखते हैं। जिस प्रकार वृक्ष के सभी अवयव मूल, तना, पत्तियां आदि मिलकर फल व पुष्प की प्राप्ति के लिए संहित भाव में कार्य करते हैं।

कोई भी अंग स्वयं के लिए या अन्य अंग के लिए कार्य नहीं करता बल्कि सारे अवयव मिलकर किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास कर रहे हैं। यही संहित भाव पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र देखा जाता है। अश्वत्थ ब्रह्म इसी संहित भाव की व्याख्या है।

क्रमश:

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