वर्णव्यवस्था के अनुरूप ही व्यक्ति की कर्म में रुचि हो जाती है। ज्ञानयोग में ब्राह्मण (ब्रह्म) की रुचि अधिक होगी। भक्ति में ज्ञान और कर्म दोनों रहते हैं-क्षत्रिय का क्षेत्र है। कर्मयोगी वैश्य है। तीनों योगों का लक्ष्य एक ही है, मार्ग भिन्न है। फिर भी तीनों सृष्टि साक्षी जीवन के अंग हैं, आत्मा के अंग नहीं हैं। प्रकृति भी सृष्टिसाक्षी है।
इसीलिए जीवन के विषयों को त्रिगुण से प्रभावित कहा गया है। ”त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन” (2.45)। मुक्तियात्रा के लिए गुणातीत होना अनिवार्य है। शायद इसी का अभ्यास करने के लिए ही जीवन का अन्तिम चतुर्थांश संन्यास के नाम लिखा है। गीता संन्यास की भी विशद् व्याख्या करती है। सभी योगों के साथ इसकी तुलना करती है।
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। (5.3)
-हे महाबाहो, जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझने योग्य है क्योंकि द्वन्द्वों से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
पुन: संन्यासी के विषय में कहते हैं कि जो कर्मफल का आश्रय न लेकर कत्र्तव्यकर्म करता है, वही संंन्यासी तथा योगी है। अग्नि तथा क्रियाओं का त्याग करने वाला नहीं।
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।। (6.1)
कर्मसंन्यास और कर्मयोग के विषय में अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि दोनों में से कौनसा श्रेष्ठ हैं। तब कृष्ण कहते हैं कि दोनों ही समान फल देने वाले हैं इनमें से एक में भी अच्छी तरह स्थित मनुष्य दोनों का फल प्राप्त कर लेता है-
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। (5.4)
सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा ही जिसका आत्मा है ऐसा निर्मल अन्त:करण वाला जितेन्द्रिय कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता। कर्मसंन्यासी भी यद्यपि देखना-सुनना-छूना-खाना-सोना आदि सभी शारीरिक कर्मों को करता हुआ भी यह समझता हैं कि मैं कुछ नहीं करता।
इस प्रकार कर्मयोग व कर्मसंन्यास दोनों ही निर्लिप्तता के कारण बन्धनकारक नहीं होते हैं। भक्तियोग भी बन्धनकारक नहीं है। क्योंकि जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मों को भगवान में अर्पण कर और आसक्ति का त्याग कर कर्म करता है वह जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता-
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। (5.10)
कर्मों की कुशलता योग है। योग को कृष्ण ने संन्यास कहा है। यं संन्यासमिति प्राहुर्याेगं तं विद्धि पाण्डव- यह संन्यास सृष्टि व मुक्ति दोनों ही ओर प्रवर्तित होता है। सृष्टि साक्षी संन्यास में आसक्ति-त्याग प्रधान है। मुक्ति साक्षी संन्यास में त्याग प्रधान रहता है। काम-फल-आसक्ति का सहज त्याग संन्यास है, वैराग्य बुद्धि योग है।
गीता ने ग्रहणात्मक त्याग को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है। ‘नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि। (3.22) भगवान स्वयं पूर्ण रूप से सांसारिक थे, लौकिक मर्यादाओं का पालन भी करते थे। कर्मगर्भित ज्ञानयोग कर्मत्याग के कारण संन्यास कहलाता है। संन्यास में व्यक्ति का अभ्युदय प्रधान रहता है।
संन्यासी के मन में आसक्ति का भाव नहीं होता। ईष्र्या नहीं होती। जो ईश्वर ने दिया उसी में संतुष्टि है। अधिक पाने का लोभ नहीं है। साधना में भी आकांक्षा का होना उचित नहीं है। गुरु ने आदेश किया उतना कर देना है। आनन्द भाव से कर देना है। क्या होगा- क्या नहीं होगा, यह चिन्ता का विषय नहीं होता। इसी प्रकार प्रकृति के अनुरूप भी सिद्धि के विरुद्ध भाव पैदा होते हैं, उनसे भी द्वेष नहीं पैदा होना चाहिए।
प्रकृति में गुणों की घटा-बढ़ी चलती रहती है। भाव क्रियाएं भी बदलती रहती है। उन पर नियंत्रण आवश्यक है। गुणादि से उत्पन्न राग-द्वेष भी कर्म करने के लिए विवश करते रहते हैं। आत्मा ज्ञान-कर्म का समन्वय है, कर्ममुक्त हो ही नहीं सकता। क्षर-अक्षर भी अपने परिणामों से सदा कर्म करते रहते हैं।
बिना कर्म के अन्त:करण शुद्ध नहीं होता। इसके बिना ज्ञान नहीं हो सकता। संन्यासी कर्म के आरंभ से अन्त तक प्रसन्न भी रहता है, सफल हो या न हो। वे जानते हैं कि जिनके आदेश से काम किया है, उनकी यही इच्छा है तो यही हो। यह निश्चिन्तता का भाव ही संन्यास है।
ब्रह्म का अणु अति सूक्ष्म होता है। उस अणु में जिसका मन लग गया है, उस मन को विषय-अणु स्पर्श भी नहीं कर सकते। अत: प्रकृति के स्वभाव से जो विषयादि उत्पन्न होते हैं, वे ब्रह्माणु में मग्न मन को आकर्षित नहीं कर सकते। ब्रह्माणु इतने हल्के होते हैं कि वे विषयाणुओं के साथ मिलकर भी ऊपर तैरते हैं।
विषयों से चिपकते नहीं हैं। केवल आसक्ति-शून्य मन ही निश्चित रूप में ब्रह्म में प्रविष्ट होता है। अहंकार (अस्तिभाव) शून्य अवस्था में देही देह में जीता है। अहंकार के अभाव में शरीर कोई कर्म नहीं करता। किसी के द्वारा-ममकार-शून्य (ममता, स्वयं से प्रियता) मन कुछ कराता भी नहीं है।
शुद्ध चित्त व्यक्ति के लिए संन्यास ही श्रेष्ठ है। अशुद्ध चित्त संन्यास लेकर पुन: कर्म करता-कराता है। कौषीतकि ब्राह्मण कह रहा है-”ईश्वर जिसे इस लोक से ऊपर उठाना चाहता है, उससे साधु कर्म कराता है। जिसको अधोलोक में भेजना चाहता है, उससे असाधु कर्म कराता है।
आत्मा के साथ प्रकृति रहती है। जीव भाव में स्वभाव की तरंगें उठती रहती है। फिर भी उसमें जीव की स्वाधीनता बनी रहती है। इन्हीं तरंगों के बीच ज्ञान की एक धारा भी मौजूद रहती है। उसी को खोजकर बाहर निकालना होगा। प्रकृति में विभिन्न गुणों के कारण फल पैदा होते हैं। आत्मा में गुण साम्य-अवस्था में रहते हैं।
अत: वहां न कर्म और न फल ही रहते हैं। आत्मस्थ होते ही व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है, जीवत्व छूट जाता है। आत्मा स्वयं तो सत्तावाला है किन्तु अन्त:करण, इन्द्रियां आदि माया भाव के कारण स्वतंत्र सत्ता नहीं रखते। अनिर्वचनीय/असत् ही हैं। अव्यय पुरुष जीवरूप भी होता है और ईश्वर रूप भी होता है। कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ-दान-तप का भोक्ता मैं ही हूं। ईश्वर अंश होने से जीव भोक्ता है। भोक्ता का अर्थ जीव अव्यय भाव ही है।
गीता में वर्णाश्रम व्यवस्था उच्चतम जीवनमुक्त दशा का ही निरूपण है। इसे सामान्य पुरुषों पर लागू नहीं किया जा सकता। गीता में समदर्शिन: कहा है, समवर्तिन: नहीं कहा गया। दृष्टि में समानता होनी चाहिए। व्यवहार की समानता उचित नहीं है। (गीता 5.18)। किन्तु ब्रह्म सर्वत्र समभाव में विराजमान रहता है। जिन पुरुषों का मन सर्वत्र समभाव में स्थिर हो जाता है। वे इसी जन्म में संसार को जीत लेते हैं। सदा जीवन मुक्त दशा का अनुभव करते हैं।
क्रमश:
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