सृष्टि का मूल प्रवर्तक तत्त्व अमृत-ब्रह्म तथा शुक्र तीन रूपों में परिणत हो जाता है। अमृत आत्मयोनि है। ब्रह्म प्रकृति योनि है एवं शुक्र विकृति योनि है। अमृत तत्त्व अव्यय-अक्षर-क्षर भेद से तीन प्रकार का है। ब्रह्म तत्त्व प्राणादि (प्राण-आप:-वाक्-अन्नाद और अन्न) भेद से पांच रूप वाला है।
शुक्र तत्त्व यत्-जू भेद से दो प्रकार है। इन सब तत्त्वों की समष्टि दशिनी विराट् कहलाती है। वास्तव में अमृत, ब्रह्म और शुक्र तीनों एक ही तत्त्व हैं। सृष्टि से बहिर्भूत (बाहर) रहता हुआ जो तत्त्व अमृत है वही सृष्टि की ओर उन्मुख होता हुआ ब्रह्म कहा जाता है। पुन: सृष्टि का उपादान -आरम्भक बनता हुआ वह शुक्र कहलाता है।
क्वाण्टम को भारत आना पड़ेगा
शुक्र, रेत और वीर्य तीनों शब्दों केपृथक्-पृथक् अर्थ हैं। रेत में रहने वाला, आत्मबल को बढ़ाने वाला वीर्य कहलाता है। बल-वीर्य-पराक्रम भी तीन भिन्न अर्थों से सम्बन्ध रखते हैं। शारीरिकशक्ति बल, प्राणशक्ति वीर्य तथा मन की शक्ति पराक्रम है। हाथी में बल, सिंह में मन तथा पुरुष में वीर्य की प्रधानता रहती है। रेत के क्षय से वीर्य का भी क्षय हो जाता है।पुरुष के सोम रूप रेत का नहीं अपितु अग्नि का नाम शुक्र है। शुक्राग्नि स्त्री में रहता है। रेत रूप सोम पुरुष में रहता है। शुक्र का प्रधान आयतन स्त्री का रज है। रेत का प्रधान आयतन पुरुष का सोम भाग है। रेत को सृष्टि का उपादान द्रव्य कहा जाता है। क्योंकि प्रजा केवल पुरुष के सौम्य भाग से अथवा स्त्री के आग्नेय शोणित भाग से उत्पन्न नहीं होती है।
अपितु दोनों के समन्वय से होती है अत: दोनों को रेत कहा जा सकता है। इनमें एक सौम्य रेत तथा दूसरा आग्नेय रेत कहा जाता है। आग्नेय रेत को शुक्र तथा सौम्य रेत को रेत कहते है। घन रेत शुक्र तथा तरल रेत रेत है। घनता अग्नि का धर्म है तथा तरलता पानी का धर्म है ये ही योषा-वृषा हैं।
अनन्त विश्व की सृष्टि तभी हो सकती है जबकि उस व्यापक ब्रह्म (अग्नि) के किसी एक प्रदेश में व्यापक सुब्रह्म (सोम) के किसी एक अवयव की आहुति हो। मातरिश्वा वायु से ब्रह्म पर सुब्रह्म के एक अवयव विशेष की आहुति होती है। यही अवयव रेत है। इन अवयवों के समन्वय से सारा विश्व बना है। ईश्वर सृष्टि से लेकर जीव सृष्टि तक समस्त सृष्टि के निर्माण में इसी अवयव सम्बन्ध की प्रधानता रहती है।
उदाहरण के लिए पुरुष (मनुष्य) के समस्त शरीर में रेत व्याप्त है तथा स्त्री के सम्पूर्ण शरीर में रज विद्यमान है। किन्तु सभी रेत या सभी रज सन्तति के कारक नहीं बन सकते । इन दोनों का आंशिक रेत-रज ही प्रजा को उत्पन्न करता है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: कर्म ही मेरा धर्म
अग्निसोमात्मक जगत् की अवधारणा में दोनों का सतत् साहचर्य रहता है अर्थात् अग्नि और सोम शुद्ध अवस्था में कहीं नहीं रहते। परमेष्ठी में भी अग्नि-सोम का युगल रूप ही रहता है। अग्नि की बहुलता से अंगिरा तथा सोम की बहुलता से भृगु तत्त्व बनते हैं।इसी प्रकार हृदय में ब्रह्म प्रतिष्ठा है और अग्नि-सोम गति-आगति रूप हैं। इसी सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ में हम ज्यों का त्यों देखते हैं। जहां शुद्ध रस कहा जाता है, वहां वह ‘बलगर्भित’ होता है। यह अमृत भाव है, मुक्ति अवस्था है। सृष्टि भाव में ‘रसगर्भित बल’ होता है। दोनों में दोनों रहते हैं। इसी की प्रतिकृति यह विश्व है।
वस्तुत: सातों लोकों में युगल तत्त्व ही सृष्टि का कारक है। यहां हमारा स्वरूप भी अद्र्धनारीश्वर का है। दोनों में दोनों हैं। कहना यह है कि पुरुष में आग्नेय तत्त्व की प्रधानता तो है, किन्तु भीतर में सोम भी है। स्त्री भीतर में अग्नि भी है। पुरुष रेत सोमात्मक है, स्त्री का रज आग्नेय है। सोम ही यज्ञ के लिए अग्नि में आहुत होता है।
पुरुष भीतर सोम है-ऋत है। केन्द्र विहीन-हवा, पानी की तरह निराकार है। इसे आकार के लिए सत्य का आश्रय चाहिए। यह सत्य अग्नि स्त्री के भीतर प्रतिष्ठित होता है। बाह्य स्वरूप में-स्थूल देह-स्त्री का कोमल, ऋत रूप है। सत्य का सहारा-पुरुषाग्नि-की आवश्यकता है।
पुरुषाग्नि में आहूत हो जाती है। शेष जीवन उसका आग्नेय भाग-सत्य संकल्प रूप-ही प्रतिष्ठित रहता है। उसके मन में विकल्पों की लहरें वैसी नहीं उठती, जैसी पुरुष के मन में उठती हैं। दोनों के हृदय में प्रतिष्ठा तो ब्रह्म की ही है।
मुझसे बाहर नहीं ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय
इसी प्रकार शरीर भी क्षर-पुरुष की प्रतिष्ठा है। भीतर वैश्वानर अग्नि शरीर के ताप को बनाए रखती है। इसी में सोम रूप अन्न आहूत होता है। अन्न के माध्यम से ही जीव शुक्र तक पहुंचता है। यही अग्नि शरीर के बाहर उपलब्ध होती है।इसी में पृथ्वी की वसु-स्वरूप अग्नि सम्मिलित रहती है। परमेष्ठी (वायुमण्डल) का सोम इसमें निरन्तर आहुत होता रहता है। इससे शरीर की स्वरूप प्रतिष्ठा बनी रहती है।
विज्ञान की सीमा है-उपकरण। वहां प्राणों की चर्चा संभव ही नहीं है। किसी भी अमूर्त संस्था का आकलन संभव नहीं है। सृष्टि के मृत्यु-अमृत भाग का भेद समझ पाना उपकरण की पकड़ के बाहर है। कारण शरीर आत्मा है-विज्ञान की पहुंच के बाहर भी है तथा सभी प्राणियों में समान भी है। ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन:’ कृष्ण का स्पष्ट उद्घोष है।
क्रमश: