कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ।। गीता 4.18
जो कर्म में अकर्म को और अकर्म में कर्म रूप ब्रह्म भाव को देखता है, वही बुद्धिमान है। यही धर्म को समझने का धरातल है। कर्म को धारण करना ब्रह्म का धर्म है। ब्रह्म को धारण करना अकर्म का धर्म है। जिस प्रकार तेज सूर्य का धर्म है, इच्छा माया का धर्म है। ब्रह्म एक होते हुए भी शान्त और क्षुब्ध दो भावों में विकसित हो रहा है।
शान्त भाव ब्रह्म है, क्षुब्ध भाव कर्म है। कर्म भाव भी चेतन और जड़वर्ग में- दो रूपों में- प्रतिष्ठित रहता है। चेतन वर्ग में कर्म में उत्थान, प्रत्युत्थान एवं प्रतिष्ठा भाव जो चलता है वह ज्ञान रूप ब्रह्म के अधीन ही चलता है। जड़ अवस्था के कर्म भी किसी अलौकिक वृहत् ज्ञान के अधीन ही चल रहा है। यह ज्ञान रूप मूल तत्त्व ही सबका अधिष्ठाता है।
चेतना ही इसका शरीर है। इसी को ईश्वर कहते हैं। धर्म को समझने के लिए कर्म के स्वरूप को भी भलीभांति समझ लेना आवश्यक है। कर्म मात्र में लक्ष्य रखना ही कर्म की फल प्राप्ति नहीं है। यह कर्म का वास्तविक ज्ञान है। विरुद्ध भावपूर्ण कर्मों को भी जानना आवश्यक है। अकर्म रूप जो अकरणीय तत्त्व है उनमें भी करणीय तत्त्व क्या है, देखना चाहिए।
धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।। गीता 4.17
देश-काल-पात्रभेद से अनुचित प्रतीत होने वाली क्रियाएं भी धर्म हो सकती है और उचित क्रियाएं भी अधर्म हो सकती हंै। परिस्थिति विशेष में नीति को प्रधानता दी जाती है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण का उपदेश था कि अपने धर्म अर्थात क्षत्रियोचित् कर्म युद्ध से विकम्पित न होना ही नीति है।
कर्ण के रथ के पहिए के भूमि में धंसने पर भी जब अर्जुन लगातार बाण-वृष्टि करता रहा तब कर्ण बोला कि क्षत्रधर्ममवेक्षस्व अर्थात् अर्जुन क्षत्रिय धर्म की ओर देखो। आपत्ति में पड़े हुए पुरुष पर प्रहार करना क्षत्रिय का धर्म नहीं है। तब कृष्ण ने अर्जुन को विष-मोदक, लाक्षागृह दाह, द्रौपदी का चीरहरण, द्यूतक्रीड़ा, अभिमन्यु-वध आदि प्रसंगों की याद दिलाई तथा अर्जुन को आदेश दिया कि यह जैसी भी स्थिति में है, इसे मार देना ही तुम्हारा कत्र्तव्य है। इस रूप में कृष्ण ने यहां नीति को ही धर्म के रूप में स्थापित किया।
आत्मा का धर्म है-देखना (दर्शन) और जानना (ज्ञान)। इन्हीं से चरित्र का विकास होता है। चरित्र ही धर्म की परिणति है। धर्म के मार्ग पर किया जाने वाला कर्म कभी बन्धन का कारक नहीं होता। न बुरे कर्मों का, न ही अच्छे कर्मों का। कर्म पूरा होते ही व्यक्ति की स्मृति से निकल जाता है। वहां चूंकि फल की इच्छा नहीं है। ‘संन्यासे कर्मसंगयो।’ कर्म और कर्म फल के साथ चिपकने की जरूरत नहीं।
अव्यय से बाहर कुछ भी नहीं
हमारे शास्त्रों में तीन शरीर माने गए हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। स्थूल शरीर पंचभूतों से निर्मित होता है। यह क्षर संस्था है। सूक्ष्म शरीर अठारह पदार्थों का समूह है जिसमें पंाच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार सम्मिलित है। सूक्ष्म शरीर ही लोक-परलोक में जाने वाला, भिन्न योनियों में जन्म लेने वाला व्यावहारिक जीव है।यह स्थूल शरीर के साथ नष्ट नहीं होता। मृत्यु के समय एक स्थूल शरीर को छोड़कर कर्मों के अनुसार दूसरे स्थूल शरीर में चला जाता है। कारण शरीर का प्रलयकाल में भी नाश नहीं होता। यह केवल कामना करता है। धर्म का कार्य है-शरीर के माध्यम से सूक्ष्म शरीर से गुजरते हुए कारण शरीर (आत्मा) तक की यात्रा तय करना। वहां जाकर धर्म ही आत्मा-स्वरूप हो जाता है।
धर्म की जड़ आत्मा में है। बाकी सब आत्मा के साधन हैं। बदलते रहते हैं। आत्मा नहीं बदलता। उस पर चढऩे वाले आवरण बदलते रहते हैं। नाम और रूप बदलते रहते हैं। इस बदलाव में तीन शक्तियां ही प्रमुख रूप से कार्य करती हैं-ऋषि, पितर और देव प्राण। इन्हीं तीन ऋणों से हमें मुक्त भी होना पड़ता है। इनको समझकर ही हम आवरण हटाने में सफल हो सकते हैं। इन्हीं से आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक संस्थाएं बनती हैं। व्यक्ति इन्हीं के बीच में जीवनयापन करता रहता है।
सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण
अधिभूत और अध्यात्म के बीच अधिदेव एक सेतु का कार्य करता है। आत्मिक धरातल की शरीर में अभिव्यक्ति सूक्ष्म शरीर (प्राण) के द्वारा होती है। इन्द्रियों द्वारा गृहीत बाह्य ज्ञान भी सूक्ष्म शरीर मन तक पहुंचाता है। चूंकि हमारे मन और बुद्धि पर प्रकृति के आवरण होते हैं, अत: मूल मन (आत्मा) हमें दिखाई नहीं देता।इच्छा का मूल मन है। भाव ही इच्छा को दिशा देते हैं। इच्छा ही कर्ममूलक है। क्रिया फलकारक है। फलपर्यन्त क्रिया रहती है। फल से यदि आसक्ति मुक्त होना है तो इस भाव से कार्य करने से पहले इच्छा के साथ जोडऩा पड़ेगा। करने के बाद भी कर्म को ईश्वर के आगे समर्पित कर देना है। इससे कर्ता भाव भी ईश्वर का हो जाएगा। जो फल आएगा, वह भी ईश्वर को ही भोगना है। हमें जो मिलेगा, वह तो प्रसाद होगा। बिना किसी अपेक्षा भाव के। फूल हो या कांटे, प्रसाद तो प्रसाद ही है। सहर्ष हमें स्वीकार लेना है। न तो नए कर्म बंधेंगे, न कर्म युक्त कार्य होगा।
प्रसाद मानने से प्रारब्ध कर्मों-ऋणानुबन्ध की प्रतिक्रिया नहीं होगी। उनको हम भोगकर पूर्ण कर जाएंगे। निमित्त हमें प्रेरित कर घेर नहीं सकेंगे। नए पैदा नहीं हुए तो खाता बराबर शून्य पर आ जाएगा, हम निमित्त रह जाएंगे। यही धर्म का स्वरूप और लक्ष्य भी है। यही मुक्ति है, स्वतन्त्रता है, शान्ति है। शान्तानन्द है।
क्रमश: