भोजन की इच्छा क्यों हुई, इसका उत्तर नहीं है, यही कहते हैं कि ईश्वरेच्छा है। ईश्वरतत्त्व अनुमान सिद्ध है। बिना प्राण के वाग्व्यापार नहीं हो सकता। बिना इच्छा के प्राणों की क्रिया सम्भव नहीं है। सृष्टि निर्माण में जो कुछ विचित्रता उत्पन्न होती है, वह सब प्रजापति की इच्छा पर निर्भर है।
प्रजापति कामना द्वारा अपने वेद के वाक् भाग से सर्वप्रथम आप: तत्त्व (सूक्ष्म जल) उत्पन्न करता है-‘त्रय्या विद्यया सहाप: प्राविशत्’ (शत. 6.1.1.9)। इसके बाद स्वयं आप: के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है। इससे मण्डल (ब्रह्माण्ड) का उदय हो जाता है-‘तत आण्डं समवत्र्तत’। पुन: ब्रह्म की इच्छा से आप: में धृतिबल (प्रतिष्ठाबल) उत्पन्न हो जाता है। इसे ‘धाराबलÓ भी कहते हैं। सातों लोकों को आप: ने ही धारण कर रखा है। लोक सबकी प्रतिष्ठा है, लोक की प्रतिष्ठा आप: है-‘सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम्’।
इच्छा-तप-श्रम के निरन्तर व्यापार से नए-नए बल पैदा होते जाते हैं। इस शृंखला में सुब्रह्म तथा बलों के बाद भृगु तत्त्व पैदा होता है। यह भृगु तत्त्व आप: प्रधान है। इसमें मधुर और क्षार (सोम-अग्नि) दो तत्त्व पैदा होते हैं। मधुर स्वधर्म है, क्षार आश्रित धर्म है। यद्यपि जीव और ईश्वर दोनों में दोनों रस रहते हैं। लेकिन ईश्वर में मधुर रस की तथा जीव में क्षार रस की प्रधानता है। मधुर भाग ही सृष्टि का उपादान कारण बनता है। यही भृगु रूप में परिणत होकर सृष्टि का रेत बनता है। भृगु भर्जनशील (भूनने वाला) है। यही भृगु सोम है।
भृगु की घन-तरल-विरल तीन अवस्थाएं होती हैं। इसकी तरल अवस्था वायु है। इस भार्गववायु की प्राण-पवमान-मातरिश्वा-सविता ये चार अवस्थाएं हैं। श्वास-प्रश्वास रूप प्राणवायु ‘पवमान’ है। पवमानवायु और आप: दोनों के संयोग से स्थूल पानी बनता है। दूसरा है मातरिश्वा वायु। माता पिण्ड को कहते हैं, पिता महिमामण्डल का नाम है। पिण्ड को पृथ्वी और महिमा को द्यु कहा जाता है।
पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, परमेष्ठी और स्वयंभू पांचों ही पिण्ड होने से ‘माता’ हैं। माता रूप पिण्ड के चारों ओर व्याप्त रहने वाला भार्गव वायु ही ‘मातरिश्वा’ है। जो वायु सांसारिक पदार्थों को कार्य-कारण भाव के लिए प्रेरित करता है, उसको ‘सवितावायु’ कहते हैं।
बिना सविता वायु की प्रेरणा के कोई भी प्राण, कोई भी वस्तु सृष्टि-उन्मुख नहीं बन सकती। जिस वायु से विश्व के पदार्थ गतिशील बने हुए हैं, अध्यात्म संस्था में जो वायु प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान भेद से विभक्त होकर रक्तादि संचार का कारण बनता है, वही ‘प्राणवायु’ है। मेघ-जल-वृक्षादि वातवायु से चलायमान होते हैं। यह वातवायु भौतिक है और इन चारों से सर्वथा भिन्न तत्त्व है।
भार्गववायु के साथ ही साथ अंगिरावायु का भी विकास होता है। अंगिरा से रुद्र वायु तथा रुद्र से 49 प्रकार के मरुद्वायु विकसित होते हैं। पूर्व दिशा में प्रतिष्ठित प्राण वायु सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त होता है। इसीलिए पूर्व दिशा में स्थित सूर्य के लिए ‘प्राण: प्रजानामुदयत्येष सूर्य:’ यह कहा जाता है। मातरिश्वा वायु दक्षिण दिशा में प्रतिष्ठित रहता है। सर्वत्र व्याप्त हुआ यह पिण्डसृष्टि के स्वरूप का निर्माता बनता है। पश्चिम दिशा में पवमान वायु रहता है। इसी पवमान के लिए-‘पवमानो हरित आविवेश’ (शत. 2.2..5 .5 ) यह कहा जाता है। सविता उत्तरदिशा में प्रतिष्ठित रहता है।
चेतन अथवा अचेतन सभी पदार्थों की उत्पत्ति में योनि, रेत और रेतोधा तीनों भावों की अपेक्षा रहती है। पदार्थों की उत्पत्ति में उपादान कारण रेत है। जिसमें प्रतिष्ठित होकर वह अपनी प्रजननशक्ति को विकसित करने में समर्थ होता है, वह योनि है। रेत का योनि में आधान करने वाला तत्त्व रेतोधा है।
सृष्टि कामना से ब्रह्म व सुब्रह्म रूप में परिणत प्रजापति का ब्रह्म भाग यजु: है, अग्नि है, यही योनि है। सुब्रह्म भाग रेत है, सोम है। मातरिश्वा वायु रेतोधा है। क्षेत्र में रेत की आहुति होती है, सन्तान प्राप्ति के लिए। क्षेत्र माता का अधिकार है। सृष्टि उसी की (ईश्वर) सन्तान है। श्रुति कहती है-
त्वं स्त्री, त्वं पुमानसि, त्वं कुमार उत वा कुमारी।
नैव स्त्री न पुमानेष नचैवायं नपुंसक:।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।
योनिरूप ‘क्षेत्र’ कहलाने वाला प्रजापति विश्व की ‘माता’ बनता हुआ ‘स्त्री’ है। स्त्रिय: सतीस्ताँ उ में पुंस आहु:। यहां स्त्री रूप आत्मा को पुरुष कहा जा रहा है। स्त्री भी एक नहीं तीन तीन-अव्यय, अक्षर, और क्षर। पिता रेतोधा होता है, रेत की आहुति देने वाला है। आरम्भ में वही रेतोधा बनता है।
पिता स्थानीय वह पुरुष अव्यय-अक्षर-क्षर रूप में तीन प्रकार का है। इस प्रकार विश्व की योनि होने से वह स्त्री है। रेतोधा दृष्टि से वह पुरुष है, रेत की दृष्टि से वही पुत्र है। अमृत-ब्रह्म-शुक्र आत्मा के ये तीन विवर्त हैं। कारणातीत, कारक तथा कार्यरूप हैं। इनको ही ज्ञानात्मा, कामात्मा तथा कर्मात्मा कहा जाता है।
ब्रह्मात्मा, दैवात्मा, भूतात्मा ये ही हैं। तीनों अमृत आत्मा कहे गए हैं। यही षोडशी पुरुष ब्रह्मात्मा है। क्षर पुरुष पंचप्रकृति (कला) रूप ब्रह्मभाव है, देवात्मा है। वाक्, आप:, अग्नि की समष्टि विकृति भाव (शुक्र) है, कर्मात्मा है।
विश्व के केन्द्र में स्थित सूर्य हिरण्यगर्भ प्रजापति है। सृष्टि का आत्मा है-‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्चÓ सूर्य की तीन कलाएं-आत्मा, प्राण और पशु हैं। ये ही क्रमश: तीन मनोता हैं-आयु, ज्योति, गौ। आत्मा का आधार आयु भाग है। ज्योति तत्त्व प्रकाश रूप देवता के विकास का आधार है। भूतभाग का जनक तत्त्व गौ है। इनमें आयु तत्त्व मुख्य प्राण है। ज्योति भाग प्राणरूप देवता है।
ज्योति अग्नि-सोम रूप दो भागों में विभक्त है। अत: सौर आत्मा भी दो भागों में विभक्त है। आग्नेय प्राण भाग सौर सावित्री दाहक है, पुरुष है। सौम्य प्राण भाग भार्गव सोम दाह्य है, स्त्री है। इन दोनों के मिथुन से दश प्राण युक्त विराट् (पुत्र) उत्पन्न होता है। सौर रश्मियों में अग्नि-सोम दोनों रहते हैं किन्तु प्रधानता सोम की होती है।
अत: रश्मिमण्डल स्त्री रूप होता है। सोम को भृगु एवं कवि भी कहते है। क्योंकि भृगु सोम ही अग्नि में आहूत होकर विराट् पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। उसी विराट्-पुत्र के कारण अग्नि-सोम का व्यक्तिभाव (माता-पिता) प्रकट होता है। सूर्य में दोनों हैं। विराट् पुत्र ही पिता का अभिव्यंजक भी है। अत: रश्मियां स्त्रीरूप होते हुए भी पुरुष ही हैं।
क्रमश:
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विराट् – ऋक्, यत्, जू, साम, अग्नि, यम, आदित्य, आप:, वायु, सोम इन दस तत्त्वों की समष्टि विराट् कहलाती है।
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