सूर्य स्थित प्राण देवताओं से पृथ्वी का निर्माण होता है। इन देवताओं में पांच पशु होते हैं जो पृथ्वी के उपादान कारण हैं। इन पशुओं के द्वारा ही देवता पृथ्वी का निर्माण करते हैं। ये पांच पशु निम्नलिखित हैं-
1. वीर्य-ब्रह्म, क्षत्र, विट् (देववित्तानि),
2. छन्द-गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती (वयोनाध),
3. शिपिविष्ट-पदार्थस्वरूप (भौतिक अग्नि),
4. पशु- पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज 5. ऋतु-ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, वसन्त।
पशु : अग्नि भी, अन्न भी
सूर्य स्थित प्राणदेवताओं में तीनों वीर्य रहते हैं। उषाकाल वाला सूर्यप्रकाश ब्रह्म वीर्य युक्त है। मध्याह्न का प्रकाश क्षत्रवीर्ययुक्त है तथा सायंकाल का प्रकाश विट्वीर्ययुक्त है। ये तीनों वीर्य देवताओं के वित्त कहलाते हैं। चौथा वीर्य वह है जो रात्रि में रहता है। रात्रि में सौर-प्राण आता अवश्य है किन्तु अन्धकार में लिप्त ही होकर आता है, अतएव उस तमोमय सौर प्राण को शूद्र-वीर्य कहते हैं। प्रकृति में ब्रह्म, क्षत्र, विट्, शूद्र ये चार वीर्य हैं।दूसरा छन्द पशु है। देवताओं को परिच्छिन्न बनाने वाले उनके स्वरूप का निर्माण करने वाले, उनके वाहन कहलाने वाले जो ‘वयोनाध’ हैं, उन्हीं को ‘छन्द’ कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का कोई न कोई वयोनाध अवश्य होता है।
वस्तु के चारों तरफ जो एक घेरा है, जिस घेरे को तोडऩे से वस्तुस्वरूप नष्ट हो जाता है, उसे ही वयोनाध कहते हैं। उसे ही वैदिक परिभाषा के अनुसार छन्द कहा जाता है। आठ अवयवों द्वारा अग्नि का स्वरूप निर्मित होता है, इसलिए अग्नि का छन्द आठ अक्षरों का माना जाता है-‘अष्टाक्षरा वै गायत्री’
पंच पशु : मानव सबसे विकसित
तीसरा पशु शिपिविष्ट है। पृथ्वी के सभी पदार्थों में एक प्रकार का अग्नि होता है जो भौतिक अग्नि कहलाता है तथा जिससे पदार्थ का स्वरूप बनता है। वह स्वरूप वय कहा जाता है अर्थात् वयोनाध के भीतर रहने वाली जो वस्तु है उसे ही वय कहते हैं। वयोनाध के भीतर भौतिक अग्नि ही रहता है, अत: वही शिपिविष्ट कहलाता है।चौथा पशु, पशु ही कहलाता है। वेद में स्थूल रूप से पांच पशु माने गए हैं-पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज। ये पांचों पशु प्राणस्वरूप हैं।
पांचवां पशु ऋतु है। अग्नि के तारतम्य से छह ऋतुएं बन जाती हैं अर्थात् एक ही अग्नि छ: स्वरूपों में परिणित हो जाता है। इनसे शरीर का निर्माण होता हैं।
वर्णसंकरता का प्रवाह
जब देवप्राण सहित पांचों पशु एक स्थान में आ जाते हैं तो उसी समष्टि को पृथ्वीपिण्ड कहते हैं। पृथ्वी के केन्द्र में पृथ्वी को प्रतिष्ठित रखने वाला एक अग्नि है, जिसे प्रजापति कहते हैं। उस अग्निस्वरूप प्रजापति के अधीन ही वे पांचों पशु रहते हैं। यदि अग्नि न रहे तो पृथ्वी न रहे। पृथ्वी न रहे तो पशु न रहें। यह अग्नि वैश्वानर रूप में सभी प्राणियों में विद्यमान रहता है। कृष्ण भी कह रहे हैं- अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: …(गीता 15.14)अग्नि पोष है। यह सृष्टि का पोषक तत्त्व है। सभी पदार्थ इसी से निर्मित होते हैं। यह अग्नि अमृत-मत्र्य भेद से दो भागों में विभक्त रहता है। अमृताग्नि प्राणरूप है और मत्र्याग्नि भूतात्मक है। अमृताग्नि को देवता कहा जाता है और मत्र्याग्नि को भूत कहा जाता है। भूपिण्ड भूताग्नि की चिति मात्र है।
इस अग्नि को चित्याग्नि कहा जाता है। अमृताग्नि चितेनिधेय कहा जाता है। सूर्य अग्नि का पोष है। सूर्य स्वयं भी अग्नि से ही पुष्ट रहता है। परमेष्ठी का वरुण अग्नि सूर्य का पोष है। अन्तरिक्ष की रुद्राग्नि का पोष सूर्य है। अग्नि सूर्य से पहले पैदा होता है, अत: सौर अग्नि का पिता कहा जाता है।
हर प्राणी का आत्मा ईश्वर समान
सोम का पोष वृष्टि (वर्षा) का अधिष्ठाता वायु पर्जन्य (बादल) है। दिक्सोम का पोष भी पर्जन्य है। वायु (सोमयुक्त) ही सोम कहलाता है। पृथ्वी का पोष ओष है, उष्मा है। औषधियां अपने गर्भ में ओष पशु को धारण करती है। ओर्ष धत्ते इति औषधि। ये शरीर में गर्मी प्रतिष्ठित रखती हैं।पुरुष का रेत स्त्री का पोष है। प्रजा बनता है। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र के पोष क्रमश: ब्रह्म-क्षत्र-विट्-वीर्य तथा पार्थिव पूषाप्राण है। पूषा देवताओं में शूद्र कहलाता है। ब्रह्म वीर्य का गायत्राग्नि से, क्षत्र का सावित्राग्नि से, विट् का विश्व देवताओं से सम्बन्ध है।
ऋषि-पितर-देव का मृत्युलोक में सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी से ही सम्बन्ध रहता है। शरीर ही छन्द है, आकृति का आधार पृथ्वी (भूपिण्ड) ही होता है। चन्द्रमा देव प्राण – रजोगुण-कर्म का प्रतिनिधि है। इससे ही प्रकृति (मन) से वर्ण का विकास होता है। यह प्रत्येक प्राणी का भिन्न होता है। शरीर कर्ममूला है, वहीं वर्ण जन्ममूला है।
आसक्त मन बाहर भागता है
वर्ण-अवर्ण आठ प्रकार के होते हैं। वर्ण आत्मा के वीर्य के कर्म स्वरूप का द्योतक है। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र चार वर्ण हैं। ये वर्ण कर्म द्वारा मन का पोषण करते हैं। अत: पोष कहे जाते हैं। पोषक ही भुक्त होने से अन्न कहलाता है। अन्न से ही यज्ञ सम्पन्न होते हैं। सृष्टि विस्तार होता हैं।कृष्ण भी गीता में वर्णव्यवस्था को बताते हुए कहते हैं कि-
चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (4.13)
अर्थात्-मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गई है। उस (सृष्टि रचना आदि) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता।
क्रमश: