यही स्थूल रूप में क्षर सृष्टि बनकर- विश्व रूप में प्रकट होता है। अक्षर तरंग है, क्षर कण है। तरंगों में विकल्प रहता है, स्थूल कण में विकल्प नहीं रहता। स्थूल विश्व की 84 लाख योनियां मूल में तो तरंगों का विकल्प ही हैं।
परमेष्ठी लोक के तीन मनोता हैं-भृगु, अंगिरा, अत्रि। भृगु-अंगिरा ही सोम और अग्नि हैं। दोनों में दोनों रहते है। मात्रा भेद से ही स्वरूप बनता है। जिस प्रकार से स्त्री-पुरुष का निर्माण x-y क्रोमोसोम के मात्रा भेद से होता है। आगे चलकर दोनों ही सृष्टि के मूल कारक बनते हैं।
शब्दवाक् अदृश्य है, अक्षर संस्था है। अर्थवाक् दृश्य है, स्थूल है। दोनों के स्वरूप भिन्न होते हुए भी नियम समान हैं। यज्ञ संस्था में मंत्रों के माध्यम से अर्थ प्राप्ति के कर्म तो वेदों का मुख्य विषय रसायन शास्त्र है। अर्थवाक् ही भौतिक शास्त्र है, जिसका नियंत्रण शब्द वाक् में निहित है। यही मन्त्र शास्त्र का महात्म्य है। अर्थ सारा जड़ है।
शब्द चेतना से जुड़ा है। सम्पूर्ण सृष्टि ही वाक् है। सृष्टि के आरंभ में सूर्य नहीं था, अधंकार था। ब्रह्म और माया ने प्रथम सृष्टि की जो ब्रह्मा कहलाया। माया ब्रह्म के मन में इच्छा पैदा करती है। माया ही ब्रह्म को सीमित करके आकार देती है। यहां सम्पूर्ण सृष्टि मानसी-सृष्टि होती है। चेतना तथा इच्छा (विचार) के आधार पर।
सभी 84 लाख योनियां यहीं से तरंगित होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति सूर्य की सन्तान है, सूर्य का अंश है। ध्यान में बैठकर जब अपने मंत्रों का विस्तार करता है, तब वह भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाता है। वह इच्छानुसार कहीं भी गमनागमन कर सकता है। एक साथ एक से अधिक स्थानों पर हो सकता है।
पं. गोपीनाथ कविराज के गुरु स्वामी विशुद्धानन्द सूर्य सिद्धान्त में पारंगत थे। उनका मत था कि प्रकृति की प्रत्येक रचना में प्रकृति के सभी तत्त्व रहते हैं। प्रमाण रूप में वे सूर्य के प्रकाश में एक प्रिज्म कांच को घुमा-फिराकर किसी भी वस्तु को अन्य वस्तु में बदल देते थे। रूई को फूल बना देते थे। जैसे आज क्वाण्टम सिद्धान्त के वैज्ञानिक मानते हैं कि कोई भी वस्तु अन्य वस्तु बन सकती है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: कर्म ही मेरा धर्म
ये कार्य तो सूर्य से नीचे की सृष्टि के ही हैं। क्वाण्टम को तो अभी सूर्य का भेदन करके मूल सृष्टि की दिशा में बढऩा होगा। वहां कोई आकार अथवा आकृति नहीं है। सब कुछ वायु-तत्त्व है। सारे घटक भी वायु रूप हैं। इन सबकी विस्तृत व्याख्या भारतीय वाङ्मय में उपलब्ध है।क्वाण्टम सिद्धान्त में कई परिभाषाएं खड़ी कर रखी हैं। ‘वेव पार्टिकल डुआलिटी, डबल स्लिट एक्सपेरिमेन्ट, क्वाण्टम एन्टेंगलमेंट, पेरेलल यूनिवर्स, यूनिवर्स क्रियेटेट बाय कॉन्सियसनेस एण्ड थॉट’ आदि । क्वाण्टम यह भी घोषणा करता है कि काल जैसा कुछ अस्तित्व में नहीं है।
हमारे यहां तो सृष्टि को ब्रह्मा का दिन और प्रलय को ब्रह्मा की रात कहते हैं। इनकी गणना-मन्वन्तर, युग-युगान्तर में की गई है। खण्ड और अखण्ड प्रलय के काल में, महाकाल है।
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवात्यकृत्सञ्ज्ञके॥ (गीता 8.18)
इस देश में मानव युग (सौ वर्ष), दिव्ययुग (1000 मानव युग का) महादिव्य युग (खण्ड प्रलय) तथा 100 ब्राह्मवर्षों का एक ब्राह्म युग माना गया है। सहस्र ब्राह्मयुगों की समष्टि ईश्वर युग अथवा महाप्रलय कहलाता है। इनमें भी चारों युग 12000 दिव्य वर्षों के (एक दिव्यवर्ष=100 मानव वर्ष) होते हैं।
क्वाण्टम की एक अवधारणा यह भी है कि देखते समय चीजें जैसी दिखाई देती हैं, वैसी देखने के पहले या बाद में नहीं होती। अस्तित्व कई विकल्पों से भरा होता है। माप होते हैं। किसी एक विकल्प (योनि) का चुनाव हो जाता है, और वही दिखाई देता है। अस्तित्व में आने से पूर्व 84 लाख विकल्प होते हैं। प्रकृति कर्मों के मापदण्ड से स्वरूप का निर्णय करती है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: स्वभाव का आधार वर्ण
यहां भी क्वाण्टम एक अवधारणा देता है-‘सुपर पोजीशन स्टेट’। इसमें दो तरफ गति होने का संकेत है। अमृत-मृत्यु, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, मुक्ति-सृष्टि भेद से जीव (आत्मा) की दो ही गतियां होती हैं। हम सब एक-दूसरे से जुड़े भी हैं। यह तो भारतीय ज्ञान का मूल ही है। गीता का मूल भी यही है।‘ममैवांशो जीवलोके…’ तथा ‘ईश्वर सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन..’ जैसे उद्घोष यही कहते हैं। आत्मा सबमें समान है। समदर्शन का चिन्तन भी यही कहता है। विशुद्धानन्द जी के प्रयोग में तो ‘ईपीआर पेराडॉक्स’ वस्तु और तरंगें एक साथ बदलते हैं। एक को बदलो, दूसरा बदल जाता है। आप प्रकृति को बदलो तो अहंकृति और आकृति दोनों बदल जाती हैं। मन के भाव बदलते ही सारे दृश्यों के अर्थ भी बदल जाते हैं।
क्वाण्टम की यह मान्यता कि सृष्टि में घटनाओं का कोई व्यवस्थित क्रम नहीं है, हमारे धरातल पर खरी नहीं उतरती। प्रकृति में कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है। कुछ भी अमर्यादित नहीं है। अव्यय ही नियन्ता है। वही तात्त्विक द्रष्टा भी है। उसी के केन्द्र (हृदय) में सृष्टि की सारी गतियां समाहित रहती हैं।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: वर्तमान में रहना ही पूजा
इन गतियों की तरंगें ही स्थूल विश्व का निमित्त है, निर्माता भी है। चूंकि हमारे यहां प्रलय-सृष्टि दोनों का अस्तित्व है, अत: अव्यवस्था, मंत्रहीनता, तारतम्यता, सामंजस्यता अथवा काल मर्यादा आदि का टूटना कुछ भी संभव नहीं है।क्वाण्टम में उपकरण हैं, उसकी अपनी दृष्टि है, भाषा है, दिशा है।
एक अनजान जंगल की यात्रा की तरह नित्य रोमांचकारी जानकारियां प्राप्त भी होती हैं। भाषा से बाहर निकलकर, संकेतों में उतरें। वेद की भाषा का अनुवाद संभव नहीं है। ज्ञान उपलब्ध है। हमारे शिक्षण केन्द्र भी विश्व को कुछ देने की स्थिति में नहीं आ पाए।
फिर कोई आइन्स्टीन-मैक्समूलर पैदा होगा जो इस ज्ञान का पुन: उद्धार करेगा। कल्कि अवतार से यह कार्य नहीं होगा। क्वाण्टम अपने-आप भी नहीं पहुंच पाएगा। इसकी चाबी भारत में है। क्वाण्टम को ही भारत आना पड़ेगा।
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