सृष्टि की कामना से प्राण क्षुब्ध हो जाता है। फलसिद्ध होने तक कामना के कारण प्राणों का यह क्षोभ बना रहता है। यह प्राणाग्नि संघर्ष के कारण अप् रूप में परिणत हो जाता है। इसके बाद भी वह प्राणाग्नि समाप्त नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाल बनाती है किन्तु फिर भी मकड़ी का स्वरूप वैसा ही बना रहता है, जैसा जाल बनाने से पहले था।
इसी तरह वेद प्राण का जो भाग क्षुब्ध होकर पानी बनता है इसके बाद भी शेष भाग वैसा ही बना रहता है। क्षोभ द्वारा सर्वप्रथम पानी उत्पन्न होता है। एक ही प्रजापति प्राण और आप: भेद से दो भागों में विभक्त हो जाता है। प्राण भाग वृषा है, पुरुष है, पति है। अप्भाग योषा है, स्त्री है, पत्नी है। इसी दम्पती के मिथुनभाव से प्रजा उत्पन्न होती है।
प्रजापति के इस योषा-वृषा रूप के मिथुन से सर्वप्रथम विराट् पुरुष उत्पन्न होता है। वह स्वयं ही मिथुनभाव से विराट् रूप बन जाता है। विधरण और प्रतिष्ठा यह दो काम स्वायम्भुव (स्वयंभू की) ब्रह्माग्नि के हैं। क्षर परमाणुओं को एक स्थान पर बांधे रखना, पदार्थ को संगठित रखना विधरण कहलाता है।
यह काम प्राण रूप ब्रह्माग्नि का है। हर वस्तु में एक ठहराव होता है। पत्थर जैसी चीजों में यह ज्यादा होता है, हवा-रुई में ठहराव कम है। पदार्थों में यह कम-ज्यादा रहने वाला ठहराव ही प्रतिष्ठा तत्त्व है। रूप और विकास ये दो धर्म सौर देवाग्नि के हैं। कली विकसित होकर खिल जाती है। यह प्रसादभाव ही विकास है। सूर्योदय से ही सारी प्रजा विकसित हो जाती है। इन्द्र प्रधान सौर अग्नि इसका प्रवर्तक है।
तीसरा है पार्थिव भूताग्नि। पाक और विलयन इसके स्वाभाविक धर्म हैं। दस प्रकार के सोम हैं, इनमें एक सोम ‘वृत्त’ है। वृत्त सोम की घन-तरल-विरल-गुण, ये चार अवस्थाएं होती हैं। इन चारों के धु्रव-धत्र्र-धरुण और धर्म नाम हैं। इनमें धु्रव सोम को अश्मासोम कहते हैं। पत्थर आदि घन पदार्थों का स्वरूप अश्मासोम से होता है। तरल सोम से ही तरलता है।
जैसे पानी, घृत आदि। वायु-प्राण आदि में विरल सोम की प्रधानता है। गुणसोम आत्मा में प्रतिष्ठित रहता है। अश्मासोम प्रधान अन्नाद अग्नि पदार्थों का परिपाक करता है। तरल सोममय अन्नाद अग्नि पदार्थों को पिघला देता है। कर्पूर अग्नि की पाक अवस्था है, पिघला हुआ कर्पूर अग्नि की विलयन अवस्था है। अग्नि ही संघात करता है, अग्नि ही वियलन करता है।
चौथा मिश्र अवस्था सम्पन्न यज्ञाग्नि नाम का वैश्वानराग्नि है। ताप और दाह यह दो इसके स्वाभाविक धर्म हैं। स्वायम्भुव ब्रह्माग्नि, सौर देवाग्नि और पार्थिव भूताग्नि-इन तीन सत्याग्नियों में न ताप है, न दाह है। मौलिक अग्नि में ताप-दाह का नितान्त अभाव है। संघर्ष से ही ताप उत्पन्न होता है, संघर्ष से ही दाह होता है। सत्याग्नि निराकार है। उसमें संघर्ष सम्भव नहीं है। संघर्ष पार्थिव तूलाग्नियों में होता है।
इन चारों अग्नियों से चार प्रकार का भिन्न-भिन्न पानी उत्पन्न होता है। इसका कारण पानी उत्पन्न करना अग्नि का स्वाभाविक धर्म है। स्वायम्भुव ब्रह्माग्नि से पारमेष्ठय अम्भ नाम का पानी उत्पन्न होता है। सौर देवाग्नि से मरीचि नाम का पानी (दिव्य पानी) उत्पन्न होता है। पार्थिव भूताग्नि से मर नाम का पानी उत्पन्न होता है। आन्तरिक्ष्य चान्द्र प्राणमय वैश्वानर से श्रद्धा नाम का पानी उत्पन्न होता है।
किसी कार्य सिद्धि के लिए मनुष्य जब परिश्रम करने लगता है तो इस से स्वायम्भुव प्राणाग्नि क्षुब्ध हो पड़ता है। प्रतिष्ठाभाव शिथिल होने लगता है। प्राणाग्नि के विधरणशक्ति, और प्रतिष्ठाशक्ति के ह्रास का ही नाम थकान है। प्राणाग्नि के तप से पसीने निकलते हैं।
मनुष्य प्रेमविभोर हो जाता है तो प्रेमाश्रु निकल पड़ते हैं। शान्ति का उदय होता है। यह सौराग्नि की कृपा है। सौराग्नि बुद्धि का अनुग्राहक है। बुद्धि और मन साथ रहते हैं। बौद्ध सौर अग्नि के घर्षण से मन पर आघात होता है। मन पिघल पड़ता है और आंसू निकल आते हैं। तीसरा है पार्थिव भूताग्नि ही पाशुकाग्नि कहलाता है।
यही पशुपति रुद्र है। रुलाना इनका स्वाभाविक कर्म है, रोदनकर्म के अधिष्ठाता यह पार्थिव भूताग्नि रुद्र नाम से प्रसिद्ध हैं। यह मोह विज्ञानशक्ति (सौर अग्नि) को निर्बल बनाता हुआ पार्थिव अग्नि को क्षुब्ध कर डालता है। इस क्षोभ से जो रोद्र पानी उत्पन्न होता है, वही शोकाश्रु है। जो मनुष्य इन आंसुओं को पी जाते हैं- वे अवश्य रोगी बन जाते हैं। चौथा वैश्वानराग्नि है। मूत्रादि की उत्पत्ति इसी अग्नि से होती है।
अग्नि में ताप है, पानी में ताप नहीं, वह ठण्डा है। वस्तुत: अग्नि ही तो पानी बना है, अतएव पानी को ठण्डा अग्नि (ठंडी आग) कहा जाता है। परिश्रम-प्रेम-शोक भेद से अध्यात्म संस्था में तीन ही प्रकार के पानी प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं। ललाट स्वेद परिश्रमजन्य है।
सूर्य देवाग्निमय है। इसी को शुक्राग्निमय भी कहते हैं। दोनों पानी मन के द्वारा चक्षु से ही बाहर निकलते हैं। चन्द्रमा सोम रसमय है, अप्मूत्र्ति है। यदि पवित्र सौर अग्नि का इस पर आघात होता है तो चान्द्रमन दु्रत होता है। इस दु्रति में प्रेम का उद्रेक (आधिक्य) है। इसलिए इसे ‘प्रेमरस’ कहा जाता है। श्रद्धा-वात्सल्य-स्नेह-काम-रति इन नामों से प्रसिद्ध हैं।
चारों प्रेमों का यदि एक ही स्थान में समावेश हो जाता है तो ‘रति’ भाव का उदय होता है। स्त्री एक सन्मित्र की भांति उचित परामर्श देने वाली जीवनसंगिनी है। मनुष्य का जो प्रेमाकर्षण है, वह कामरूप है। यही रति है।
क्रमश:
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