क्रमश:
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – लोभ-नरक का एक द्वार…
•Dec 06, 2023 / 12:29 pm•
Anand Mani Tripathi
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।। (गीता 4.17)
अर्थात्-कर्म का तत्त्व जानने योग्य है, विकर्म (निषिद्ध) का तत्त्व जानने योग्य है। अकर्म (कर्माभाव) का तत्त्व भी जानने योग्य है। कर्म का ज्ञान बहुत गंभीर है।
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।। (गीता 4.18)
अर्थात्-जो कर्म में अकर्म देखे और अकर्म में कर्म देखे, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है। वही कर्मयोगी है, वह सब कर्मों का करने वाला है। सब कर्मों का फल उसे प्राप्त हो जाता है।
कर्म ही जीव की गति है, मुक्ति है। शरीर-इन्द्रिय कर्म में सम्यक्-ज्ञान न होने से बहुधा कर्म भी अकर्म बन जाता है। अकर्म भी कर्म बन जाता है। फल प्राप्ति के लिए किया गया कर्म आसक्ति के कारण बन्ध का कारक होता है। लोभ के कारण इस कर्म का संस्कार दृढ़ होता जाता है और बिना प्रयोजन के भी होता रहता है। व्यक्ति कर्म किए बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। किन्तु फलासक्ति होना बांधता है। फल के संस्कार पुनरावृत्ति के लिए पे्ररित करते हैं। आसक्ति और लोभ ही कर्म का कारण बनते हैं। ईश्वर के विरुद्ध (शास्त्र निषिद्ध) किया कर्म विकर्म है। कर्म यदि ईश्वर को अर्पित न हो तो उनमें बन्धन होता है।
शरीर में प्राण संचार के साथ ही मन-बुद्धि-इन्द्रियां पैदा होती हैं। बाह्य विषयों से सम्पर्क होता है। श्वास-प्रश्वास भी बाहर ही चलता है। इसमें कर्म बन्धन के कारण यह अकर्म है। पुनर्जन्म का भी कारण बनता है। जैसे-जैसे मन परिपक्व होता है, जाग्रत होता है, व्यक्ति का मन अन्तर्मुखी होने लगता है। इन्द्रिय व्यापार घटता जाता है। जो कुछ कर्म रहता है वह नैष्कम्र्य रूप – व्यावसायात्मिका बुद्धि से होता है। यह कर्म है। इसी प्राण कर्म को करते-करते मन व्यापार-शून्य हो जाता है। मन का स्थिर होना ही नि:श्रेयस की उपलब्धि है। यही कर्म की अन्तिम अवस्था है। इसी को विकर्म कहते हैं (श्या. च. लाहिड़ी)।
मूल में कर्म-अकर्म-विकर्म सभी कर्म के ही रूप हैं। कर्म में मन नहीं लगना, श्रद्धा नहीं होना, नाटक मात्र करना-कर्म को अकर्म बना देते हैं। चुप बैठे रहना, कुछ नहीं करना अकर्म है, किन्तु मन का गतिमान रहना उस कर्म को गतिमान बनाए रखता है, बन्धन कारक हो जाता है। क्योंकि प्रवृत्ति को रोकना भी कर्म है। आत्मा में कोई कर्म नहीं है, अकर्ता है। किन्तु निवृत्ति भी कर्म ही है। वाहन में यात्रा करते समय बाहर के स्थिर विषय गतिमान दिखाई देते हैं। दूर के गतिमान विषय स्थिर दिखाई पड़ते हैं। आत्मा स्थिर होने पर भी उसमें ‘कत्र्ता’ भाव की गति की अनुभूति सदा रहती है। बैठे हुए भी शरीर में गति रहती है और भ्रान्ति चुप रहने की रहती है। सिद्ध यह होता है कि आत्मा सदा अक्रिय है। प्राकृतिक देह सदा क्रियाशील है।
यहां हिंसा-कर्म का उदाहरण दिया जाता है। ‘बहूनां भवति क्षेमस्तस्य पुण्य प्रदोबध:’-अर्थात् जहां एक की हिंसा से बहुतों की रक्षा होती है, वह सत्कर्म कहा जाता है। ‘परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्’- इसका उद्घोष है।
हिंसा यदि बिना इच्छा या अनजाने में होती है-कीट, पतंगों की-तब वह अकर्म ही है। उपकार के दौरान भी किसी की मृत्यु हो जाए, जैसे चिकित्सा के दौरान, तो वह अकर्म ही है, बन्धक नहीं है। पं. मधुसूदन ओझा ने कर्म के छ: भेद बताए हैं। ब्रह्म के दो रूप हैं-अमृत और मृत्यु। ये ही ज्ञान और कर्म हैं। सदा साथ रहते हैं अग्नि-सोम जैसे। इसमें अमृत भाग से मृत्यु भाग को अलग दिखाना ही कर्म है। इसे क्रतु, यत्न, कृति आदि कहा जाता है। यह कर्म चेष्टा शरीर क्रिया को अन्य वस्तु पर आरोपित करना ‘क्षणकर्म’ है- स्वाभाविक कर्म है। यूं तो सभी कर्म क्षणिक ही होते हैं, किन्तु इनकी क्षणिकता स्पष्ट होती है। इन्द्रियों के कर्म-श्रवण, वाक्, दृश्यता आदि ‘भाव कर्म’ कहलाते हैं। जिसके साधन क्रियावान् हों वह क्रिया कहलाती है। जिसके साधनों में हलचल न हो (स्पन्द) उसे ‘भाव क्रिया’ कहते हैं। क्रिया को यहां क्षण (शब्द) कहते हैं। शरीर के दोष मार्जन, अतिशयाधान संस्कार कर्म कहलाते हैं। इनका फल भी शरीर पर ही होता है। जो अव्यय पुरुष के विरुद्ध पाप रूप कर्म हैं, वे पांचवें हैं। व्यक्ति जो भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएं उत्पन्न करता है वे छठे कर्म ‘कारक कर्मÓ कहलाते हैं। इनमें आत्मा का विरोधी होने से पांचवां कर्म सर्वथा त्यागने योग्य है। अन्य जो भी कर्म आत्मा के विरोधी हों, त्यागने योग्य हैं। ये विकर्म कहलाते हैं।
अमृत-मृत्यु भाग साथ रहते हैं। अमृत भाग के कारण मृत्यु भाग भी अमृत जान पड़ता है। मृत्यु का आत्मा स्वरूप अमृत में प्रविष्ट होता है। गीता में कहा है कि कर्म में अकर्म प्रविष्ट है और अकर्म में कर्म। कर्म के प्रवेश से ब्रह्म के तीन रूप हो जाते हैं। कर्मसहित ब्रह्म या विशिष्ट ब्रह्म को सत्ता-चेतना-आनन्द रूप कहा जाता है। मृत्यु के भीतर का अमृत सत्ता है। स्वतंत्र सत्ता रूप है। मृत्यु स्वतंत्र नहीं है। सत्ता (सत्) रूप अमृत भाग में परिवर्तन नहीं आता। सत्ता भाव-अभाव दोनों में उपलब्ध है। अमृत में जब मृत्यु प्रविष्ट हो जाए तो वह चेतना कहलाती है। चेतना ही विषय गर्भित ज्ञान है। विषय का ज्ञान ही प्रकाश रूप है- जो विषय के साथ नहीं बदलता। मृत्यु के साथ युक्त जो अमृत भाग है, उसे सूक्ष्म रूप से अलग कर देखना ‘आनन्द’ है। अर्थात् सभी कर्म आत्मा पर ही आश्रित हैं। सत्ता और चेतना यद्यपि कर्म मिश्रित है। उनको कर्म को हटाकर देखना ही ब्रह्म दृष्टि है। ऐसा व्यक्ति ही बुद्धिमान कहा जाता है।
जबरदस्ती कर्म त्याग करने पर इच्छारहित कर्म नहीं हो सकता है। तब विहित कर्म नहीं होता, वासनामय-फलदायक कर्म रहता है। अशुद्ध चित्त से कर्म त्याग भी नहीं हो सकता। कर्म का कर्ता अहंकार है। आत्मा में बुद्धि यह अहंकार पैदा करती है। तब आत्मा ही कर्ता रूप भ्रमित करता है। आत्मा का चेतन धर्म बुद्धि में आरोपित रहता है। अत: ऐसे कर्म अहंकार को ही प्रेरित करते हैं। आत्मा के धर्म नहीं हैं। कर्म और कर्ता मिथ्या रह जाते हैं। कर्म करने पर भी न करने के समान दिखाई पड़ते हैं। तब कर्म में अकर्म देखा जा सकता है। इस ज्ञान के हो जाने से अहंकार घटता जाता है। बन्धन खुलते जाते हैं।
जो लोग कर्म बन्धन से डरकर कर्म नहीं करते, और स्वयं को त्यागी मान बैठते हैं, उनका अहंकार नष्ट नहीं हुआ। अत: उनकी कर्मशून्यता भी कर्म से मुक्त नहीं होती। वे अकर्म में भी कर्म करते हैं। इसको समझ लेना बुद्धिमानी है। मन को स्थिर किए बिना बुद्धि स्थिर नहीं होती। आत्मा का अकर्ता भाव समझ में नहीं आता।
यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य है। कृष्ण कहते हैं-”यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’- मेरी विभूति जप यज्ञ और उसमें भी अजपा जप। यह पशुवध के बिना पूर्ण नहीं होता। पशु कौन? मनुष्य के चित्त में काम-लोभादि पशुओं के समूह विचरण करते हैं। साधक इन पशु भावों की बलि देता है। बलि का अर्थ त्याग है-यज्ञ की पूर्णता का आधार है। संकल्प ही बाह्य पदार्थों से जोड़कर रखता है। मन को निष्क्रिय नहीं होने देता। साधना से ही कर्म में अकर्म दिखाई देता है।
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