”द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति शुष्कं चेवाद्र्रं च। यच्छुष्कं तदाग्नेयं, यदाद्र्रं तत् सौम्यम्।’ (शत. 1.6.3.23)
इस प्रकार सृष्टि का उपादान द्रव्य पुरुष एवं स्त्री दोनों में है-रज एवं शुक्र रूप से। अत: दोनों को रेत भी कह देते हैं। एक आग्नेय रेत है, दूसरा सौम्य रेत है। शुक्र आग्नेय होने से तेज है, रेत सौम्य होने से स्नेह है। दोनों में दोनों हैं। बस प्रधानता ही स्वरूप की अभिव्यक्ति है।
एक ऐसा तत्त्व है जो कम्पनरहित है और सदैव मन से भी अधिक वेगवान है। यह अव्यक्त तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। यह सदा स्थिर है तो गतिमान भी है। श्रुति ने इसे अनेजत्-एजत् कहा है। एजत का अर्थ कम्पन अथवा गतिमान। एक ही विशिष्ट तत्त्व में दो विरुद्धभाव हैं। निरन्तर चल रहा है तो ठहरा हुआ भी है।
वह ही अव्यय पुरुष है। अव्यय का अमृत रूप विद्याभाग सर्वथा स्थिर (अनेजत्) है। मृत्युरूप कर्म अथवा अविद्या भाग गतिमान है। इन्हीं दो नियतियों से वह संसार में व्याप्त हो रहा है। इसी द्विनियति शब्द से ‘दुनिया’ शब्द बना है।
विद्या ही अव्यय का रस भाग है। कर्म बल भाग है। रस अमृत और बल मृत्युरूप है। सारे बल जब रस में पूर्णत: प्रविष्ट हो जाए तो यह अव्यय द्विनियति स्थिति से बाहर निकलता हुआ ‘परात्पर’ कहलाता है। आंशिक बल प्रवेश से सीमित रसभाग अव्यय कहलाता है। बलक्षोभ क्षणिक होता है, असत् है। रस अक्षण है, शान्त-सत् है।
पदार्थों के तीन भेद-स्वगत, सजातीय और विजातीय हैं। गज और मनुष्य का भेद विजातीय है। मनुष्य-मनुष्य का भेद सजातीय है। एक ही मनुष्य में आंख-कान, हाथ-पैर आदि अवयवों का पारस्परिक भेद स्वगत भेद है। ब्रह्म के भी तीन पर्व-सत्, चित्, आनन्द हैं। यही अस्ति अर्थात् सत्ता, भाति अर्थात् चेतना तथा प्रिय अर्थात् आनन्द हैं।
ब्रह्म तत्त्व तीन तरह से भासित होते हुए भी सत्ता तीनों की एक ही है। अनेक रूपों में भासित होने वाला बल तत्त्व ही है। मूल में ब्रह्म एक ही है। ब्रह्म ही विश्व है, सत्य है। अव्यक्त ब्रह्म ही व्यक्त विश्व बनता है। अव्यय कृष्ण कह रहे है कि
अहं सर्वस्य प्रभवो मत: सर्वं प्रवर्तते (गीता 10/8)
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: (गीता 15/7)
गति-स्थिति रूप तत्त्व (अव्यय पुुरुष) में मातरिश्वा (वायु) अप् (कर्म) का आधान करता है। आधान का अर्थ है आहिति यानी आहुति। इस आहुति से अव्यय पुरुष यज्ञपुरुष बन जाता है। मातरिश्वा सूत्रवायु है। एक आलम्बन पर दूसरी वस्तु रखना ही आहिति यानी आधान है। यह आलम्बन भोक्ता (अत्ता) अर्थात् अन्नाद कहलाता है। आहित होने वाला पदार्थ आहुति यानी अन्न है। अन्न की अन्नाद में आहुति ही यज्ञ है। सूर्य (अन्नाद) पर चन्द्रमा यानी सोम (अन्न) की आहुति प्राकृतिक आधिदेविक नित्ययज्ञ है।
सूत्रवायु मातरिश्वा जब गति-स्थिति रूप तत्त्व में अप् का-कर्म का आधान करता है, तब अव्यय के यज्ञपुरुष रूप में परिणत होने का तात्पर्य यह है कि पुरुष जब यज्ञ का आश्रय लेता है तभी प्रजा की उत्पत्ति होती है।
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। (गीता 3.10)
इसका अर्थ है सृष्टि का मूल उपक्रम यज्ञ प्रजापति है। अव्यय पुरुष में यज्ञ नहीं है। अप् से परमेष्ठी में पहला यज्ञ होता है। परमेष्ठी का अप् प्राणमय स्वयंभू से उत्पन्न होता है। स्वयंभू का प्राण ही ‘ब्रह्म से निकलाÓ वेद है। इसी वेद वाक् यानी स्वयंभू की वाक् से अप् उत्पन्न होता है। अप् तत्त्व का भी विकास होता है, जिसका मातरिश्वा अव्यय ब्रह्म पर आधान करता है। इसका तात्पर्य है कि अव्यय तत्त्व वेदमय ही है। अप् की आहुति वेदमूर्ति ब्रह्म पर ही होती है। अव्यय से युक्त वेद-विद्या कर्ममय है।
विद्या-अविद्या (अनेजत्-एजत्) का सम्मिलित नाम है-एकम्। इसके भीतर दोनों अनेजत्-एजत् रहते हैं। ‘अनेजत्-एकम्-मनसो जवीय:’-यही विद्या-कर्ममय अव्यय है। इसी में अप् का आधान होता है। अव्यय अन्नाद और कर्म (अप्) अन्न बनता है। रस-बल तो स्थिति-गति लक्षण है। यही स्नेह-तेज रूप सोम-अग्नि है।
रस-बल पहले परात्पर बना, अव्यय बना, अव्यय पुरुष (यज्ञ) बना। अप् की आहुति से अव्यय पुरुष, यज्ञ पुरुष अर्थात् अग्नि-सोम या अन्नाद-अन्न रूप यत्-जू बना। कर्म में कर्म और क्रिया- ये दो भाग रहते हैं। क्रियाओं की समष्टि (समूह) ही कर्म है। अनेक क्रियाओं से एक कर्म पूरा होता है। क्रिया बल रूप (क्षरण), क्षोभ युक्त है जबकि कर्म अवस्था शान्त है।
हलचल क्रिया है, स्थिति कर्म है। क्रिया के दो भाव हैं-अपने स्वस्थान पर क्रिया-कम्पन है। अपनी जगह छोड़कर आगे बढऩा गति है। हर वस्तु में एक स्थिर भाव और एक चल भाव है। सारे कर्म अग्निमय हैं। शरीर भी अग्निमय पिण्ड है। इसे चलाने में भी अग्नि निरन्तर खर्च हो रही है।
इस तरह कर्म रूप पिण्ड और विसं्रसन (विस्तार) रूप क्रिया दोनों ही अग्नि हैं। इन्द्रियजनित कर्म और रोमकूपों से शरीर का अग्नि खर्च होता रहता है। इस कमी की पूर्ति सोम रूप अन्न की आहुति से की जाती है। हमारा देखना, बोलना, चलना आदि सभी कर्म ही हैं। सभी कर्मों में अग्नि खर्च हो रहा है, जिसकी पूर्ति हम भोजनादि अन्न से करते हैं। अग्नि की दो अवस्थाएं-प्राण और भूत हैं। प्राणाग्नि अमृत है, देवाग्नि है। भूताग्नि मत्र्य है। पिण्डभूत अग्नि कर्म है और प्राणाग्नि क्रिया है।
पंचपर्वा विश्व में स्वयंभू सत्याग्नि, सूर्य देवाग्नि और पृथ्वी भूताग्नि है। परमेष्ठी और चन्द्रमा सोममय हैं। ऋक्,यजु:, साम तीनों अग्निवेद है, चौथा अथर्ववेद सोमवेद है। अग्नि की तीन अवस्थाएं अग्नि-वायु-आदित्य वेदत्रयी में ऋक यजु: साम होती हैं। सोम तत्त्व के दिक् सोम (निरायतन) और भास्वर सोम (सायतन) दो भेद हैं। अत: सोमवेद के दो भेद घोरांगिरा और अथर्वांगिरा हैं, दोनों की समष्टि अथर्ववेद है।
अग्निवेद आत्मा, प्रतिष्ठा, ज्योति भेद से तीन भाग में विभक्त है। ऋग्वेद प्रतिष्ठा, यजु: आत्मवेद और साम ज्योतिवेद है। इनको ही मन-प्राण-वाक् कहते हैं। ये अव्यय पुरुष की सृष्टि साक्षी कलाएं है। ये ही सत्ता-चेतना-आनन्द हैं।
पार्थिव सत्याग्नि ही अग्नि-वायु-आदित्य बनता है।
रस भाग से भृगु तत्व बनता है। अप्-वायु-सोम। अप् तत्व का मधुरस ही सृष्टि का उपादान बनता है। इसे रेत (उपादान-शुक्र) कहते हैं। यही रेत वेदाग्नि से संतप्त होकर भृगु बनता है। भृगु ही स्वसोम शक्ति से प्रकाश बनता है। दीपशिखा-अंगारा, दीपप्रभा-सोम (भृगु) है। भृगु वायु ही प्राण, पवमान, मातरिश्वा, सविता चार रूप में हैं।
आत्मा – मन, प्राण, वाक् है। विद्यागर्भित कर्मात्मा है। इसी को उक्थ, ब्रह्म, साम अथवा ऋक्, यजु:, साम कहते हैं। आत्मा की मन-प्राण-वाक् कलाओं से मत्र्य कलाओं-रूप, कर्म, नाम का उदय होता है। मन को रूपों का उक्थ, ब्रह्म, साम लक्षण आत्मा कहते हैं। प्राणकला को कर्मों का उक्थ-ब्रह्म-साम कहते हैं। वाक् कला को नामों का उक्थ-ब्रह्म-साम लक्षण आत्मा कहा है।
क्रमश:
‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में प्रकाशित अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –