सत्ता में दो तरह की लूट होती है-पहली कानून बनाकर जिसमें लूट का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ढेरों प्रावधान छोड़े जाते हैं। दूसरी लूट ऐसी जिसमें नियम-कायदे कुछ नहीं, कानून का डंडा दिखाकर वसूली होती है। गुजरात में मद्य निषेध के नाम पर वसूली, राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में अफीम खेती के लाइसेंस देने में भ्रष्टाचार, देश भर में बने मिलावट निरोधी कानून और इसके लिए चलने वाली छापेमारी, मोटर व्हीकल एक्ट में सीट बेल्ट लगाने व वाहन गति सीमा जैसे प्रावधान ऐसे हैं जिनमें कानून बनाकर लूट होती है। कानून-कायदे तय किए बिना जनता से वसूली को दूसरी तरह की लूट कहा जा सकता है।
देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, कहीं पार्किंग, कहीं नो वेंडर जोन तो कहीं ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम के नाम पर ऐसी लूट होती है। पुलिस जितने भी चालान काटती है, यातायात नियमों के उल्लंघन के उससे कई गुणा मामले तो ऊपर के ऊपर सुलट जाते हैं। यानी सरकारी खाते खाली। दवाओं के मनमाने दाम तय करने से लेकर, नशीली दवाइयों के कारोबार तक में लूट कम है क्या?
देखा जाए तो लोकतंत्र में सेवा का पर्यायवाची बन गया है-लूट। देश की आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे, बेरोजगारी व महंगाई के बोझ से दबी हो और बीमारियों की बाढ़ से संघर्ष कर रही हो वहीं सरकारों का ध्यान मदद के बजाए लूटने में ही लगा रहे तो इसे जंगलराज से कम क्या कहेंगे? ऐसा लगता है कि ‘दलाली’ को बढ़ावा देना सरकारों का मुख्य व्यापार हो गया। जनता की सुविधा-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि भी ऐसी ही ‘दलाली’ की भेंट चढ़ जाते हैं।
बेचो और खा जाओ
लूट की शुरुआत सरकारों के बजट से ही होती है। बजट सड़कें-पुल बनाने, नगरीय क्षेत्र के विस्तार के नाम पर गांव-खेतों को उजाडऩे में ज्यादा खर्च होता है। क्षेत्र की पहचान ही खत्म हो जाती है। बजट को खपाने में माफिया संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। बंटवारे में नेताओं और बड़े अफसरों की हिस्सेदारी ज्यादा होती है। निचले स्तर के कार्मिकों के लिए वसूली के नए दरवाजे खोले जाते हैं।
अतिक्रमण हटाने से लेकर खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने व नशे के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर ऐसे ही दरवाजों से वसूली की राह निकाली जाती है। यहां तक कि फुटपाथ पर कारोबार करने वाले भी ऐसी लूट की मार खाते रहते हैं। सरकारी विभागों और नेताओं के होर्डिंग्स अवैध तरीके से खूब लगते हैं। अकेले जयपुर शहर में करीब सात हजार अवैध होर्डिंग्स लगे हैं। अन्य बड़े शहरों की भी यही स्थिति है।
शहरों की पार्किंग व्यवस्था को लेकर तो जैसे सरकारों ने आंखें मूंद रखी हैं। स्थानीय निकायों को तो रोज सोने के अण्डे मिलते हैं। न ठेका, न रसीद, न कोई दरों की सूची और न ही निश्चित समय। सुनने वाला भी कोई नहीं। दरअसल, कानून बनाना और व्यवस्था न करना ही सरकार का सबसे बड़ा अपराध है। तो फिर नागरिकों को सजा किस बात की? पार्किंग स्थल ही नहीं तो ऑटोरिक्शा को लाइसेंस क्यों? शहरों में भारी वाहनों को प्रवेश की छूट क्यों? मनमर्जी पैसा लूटने का प्रयास क्यों?
लोकतंत्र किसके लिए?
राजस्थान की बात करेंं। हाल ही में मुख्यमंत्री ने ट्रेफिक पुलिस को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे इंटरसेप्टर से 200 मीटर की दूरी से ही तेज गति से वाहन चलाने वाले को पकड़ सकते हैं। उनको शायद राजधानी जयपुर में आए दिन लगने वाले जाम की जानकारी नहीं। लोग न समय पर अस्पताल पहुंच पाते हैं, न ही हवाई जहाज/ट्रैन पकड़ सकते हैं। जाम से निकलते ही भागेंगे नहीं क्या? क्या जाम और भीड़ भरे किसी भी शहर में कोई गति सीमा लागू करना उचित है?
सरकारों को तो ट्रेफिक के इस संत्रास से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए। पर इस काम में तो सब फेल और दो-चार मार्गों पर गति सीमा के नाम पर चालानों की बौछार होने लगती है। हर त्योहार के एक माह पहले लूट का यह मंजर देखा जा सकता है। होना तो यह चाहिए कि तेज रफ्तार वाहन चालकों का चालान हाइवे पर ही हो जहां हर साल डेढ़ लाख लोग हादसों में मरते हैं।
हाल ही में एक और आदेश जारी हो गया-कार की पिछली सीट पर भी बेल्ट बांधने की अनिवार्यता का। धिक्कार है! जहां न गति, न आवश्यकता, बस, उगाही का नया रास्ता खोला दिया। यह कानून भी हाइवे पर लागू होना चाहिए, वहां तो नहीं होता। कारण वही है। ट्रैफिक पुलिस को वहां कुछ नहीं मिलता।
दीवाली या दिवाला
कानून चाहे गति सीमा का हो, चाहे सीट बेल्ट का-दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। आज तो ये लूट का मुख्य जरिया बन गए हैं। क्या सभी जगह इन कानूनों की आवश्यकता है? जयपुर, भोपाल और रायपुर जैसे शहरों में कहां गति तेज होगी, कहां सीट-बेल्ट आवश्यक होगी? सुबह- सुबह बड़े लोगों के बच्चे स्कूल जाते-आते हैं। पीछे की सीट पर बैठते हैं। है किसी पुलिस वाले में दम, उनका चालान काटेगा?
क्या चालान की सुनकर ‘बड़ा आदमी’ शान्त रहेगा? मार पड़ेगी आम आदमी को। कमाई करेगा, आम पुलिस वाला। सजा भी सदा इन्हीं को मिलती है। ऊपर वालों को हाथ कोई नहीं लगाता। पुलिस ने जयपुर में तो पीछे की सीट बेल्ट अनिवार्यता को लेकर सख्ती के बजाए समझाईश की बात कही है लेकिन बाकी प्रदेश का क्या?
इस कमाई से भी पेट नहीं भरता तो टोल नाके शुरू हो गए। निर्माण विभाग के कर्मचारी भी कम नहीं हुए और सड़कों का काम ठेके पर देना शुरू हो गया। स्टॉफ फ्री और दलाली चालू। राजनेताओं ने इसे वोट का सिक्का बना लिया। कहा यह गया है कि सड़क की लागत और रखरखाव टोल से वसूल करेंगे। आज लागत से कई गुणा ज्यादा रकम वसूल हो गई। आप गलती से टोल रोड छोड़कर गांव की सड़क पर उतर जाओ, तो वहां लठैत बैठे मिलेंगे। आपको डर के मारे टोल रोड पर आना ही पड़ेगा।
धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम
मध्यप्रदेश में कितना समय हो गया सरकार के स्तर से यह घोषणा हुए कि टोल से गुजरना अब नि:शुल्क कर दिया जाएगा। क्यों अब तक नहीं हुआ? कोई बताने वाले नहीं है। टोल वाले लगातार पैसे कूटते जा रहे हैं। प्रदेश में नेताओं के जन्मदिन पर बधाई के होर्डिंग लगाने की प्रथा है।
हिसाब-किताब देख लें, तो पता लग जाएगा कि निकायों का खजाना कितना भरा? होर्डिंग बीस लगे, पैसा दो का आया। भोपाल में बीआरटीएस की बसों में कितनी सवारियों को टिकट न देकर पैसा कंडेक्टर खुद ले रहे हैं, कोई देख नहीं रहा। मध्यप्रदेश रोडवेज इसी कारण डूबी। अब बीआरटीएस की बसों की बारी है।
छत्तीसगढ़ में पिछले सालों में सरकारी संरक्षण में अवैध कॉलोनियां बसने की बाढ़ सी आ गई। जनप्रतिनिधियों ने भी भूमाफिया का साथ दिया। नियमितिकरण के लिए कानून लाया गया तो अब थोड़ा बहुत जुर्माना वसूलकर अवैध कॉलोनियां वैध की जा रही हैं। ऐसा ही राजस्थान में पट्टे बांटने के नाम पर हो रहा है।
वाक् ही सरस्वती और लक्ष्मी
सारे हालात को देखें तो लग ही नहीं सकता आप अपने देश में हैं। चारों ओर आसुरी शक्तियां खून पीने को घूमती दिखाई पड़ती हैं। हम कानून बनाते हैं विदेशों की तर्ज पर, जिनका पालन यहां की जीवनशैली में संभव नहीं है। दर्जनों ऐसे कानून हैं जिनका डंडा दिखा कर नागरिकों को लूटा जाता है। नागरिक भारतीय और कानून विदेशी। सरकार को ऐसे कानून व्यावहारिक ढंग से लागू करने चाहिए। ऐेसे कानून बनें जिनसे अनुशासन भी कायम हों और सरकारी खजाने को भी चपत नहीं लग पाए। जहां आवश्यकता ही नहीं, वहां लागू न किए जाएं।
सिर्फ कमाई के रास्ते खोलने वाले कानून बनेंगे तो जनता की परेशानियां बढऩे वाली ही है। आज भी रातभर एम्बुलेंस, पुलिस के वाहनोंं, लाउडस्पीकर्स का शोर सुना जा सकता है। आतिशबाजी (शादियों में) पुलिस वाले ही खड़े होकर चलवाते हैं। दुर्घटना के समय अधिकांश मामलों में सब लोग मदद को आते हैं, सिवाय पुलिस के। लड़ाई-झगड़ा, बलात्कार के मामलों को लेकर थाने में जाने से डर लगता है। दोनों पार्टियों से झाड़ते हैं।
आज किसी को पता नहीं कि कितनी प्रतिशत भूमि सड़कों ने दबा रखी है-केन्द्रीय और राज्य स्तर पर। कितने लाख पेड़ों की हत्या हो चुकी सड़कों के लिए, कितने लाख पक्षी अपना जीवन बलिदान कर चुके, कितने खेत और गांव उजड़ चुके। क्या सारी सड़कें इतनी आवश्यक थीं? उसी गति से अब इन सड़कों पर लोग असमय काल कलवित हो रहे हैं-‘विकास’ की कहानी कह रहे हैं। हमारे काठ के बने अफसर संवदेनाशून्य हैं-इस ओर से। इन सब हत्याओं का खून पेट में जाकर क्या हिसाब नहीं मांगेगा। रास्ते निकाल-निकालकर जनता को लूटना सत्ता के लिए तो रंजन मात्र है। किसको याद रहता है-
इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल।
अच्छा होगा कि सरकारें समय रहते इन ‘थैला भरो’ कानूनों का पुन: आकलन करे।