7 मार्च,1956 को राजस्थान में एक संकल्प का अवतरण हुआ था-‘धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे’ के उद्घोष के साथ। उसका ध्येय वाक्य था ‘य एषु सुप्तेषु जागर्ति’ यानी-सोते हुओं में जाग्रत रहने वाला। राजस्थान पत्रिका के नाम के साथ शुरू हुआ यह संकल्प आज पत्रिका समूह बन गया जिसका नाम देश-विदेश में आदर से लिया जाता है।
देखा जाए तो पत्रिका का हर पाठक ईश्वर समान है, कर्मचारी-वितरक उसके पुजारी हैं तथा पूजा सामग्री के नाम पर पत्रं-पुष्पम्। इसमें समूह के अखबार से लेकर ऑनलाइन पोर्टल व टीवी तक से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में जुड़े करोड़ों पाठकों-दर्शकों की शक्ति व आशीर्वाद निहित है।
पत्रिका 68 वें वर्ष में प्रवेश करने रहा है। इसके सीने पर जनता से जुड़े अभियानों की सफलता के अनेक तमगे लटक रहे हैं। जनता के, जनता के लिए और जनता की भागीदारी से पत्रिका के द्वारा चलाए गए ये अभियान सफल हुए तो जनता को राहत भी मिली।
राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ हो या फिर पत्रिका के प्रकाशन केन्द्रों वाले दूसरे राज्य। सब जगह अभियानों की शुरुआत में यही उद्घोष था-‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।’ संकल्प के इसी शस्त्र से राजस्थान में ‘काला कानून’ लागू करने वाली सरकार को घुटने टेकने को मजबूर किया।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर अत्याचार का पर्याय बने ‘सलवा जुडूम’ से बस्तरवासियों को मुक्त कराया। मध्यप्रदेश के ‘व्यापमं घोटाले’ की परतें खोलीं तो दर्जनों प्रभावशाली भ्रष्टों को जेल जाना पड़ा। झारखण्ड में पवित्र तीर्थ सम्मेदशिखर को पर्यटन स्थल बनाने के सरकारी फैसले के खिलाफ आंदोलनरत समाज के साथ खड़े रहकर अपनी भूमिका निभाई।
ये तो ऐसे बड़े मामले थे जिनमें पत्रिका की सकारात्मक भूमिका की गूंज सालों तक रहने वाली है। भ्रष्टाचारियों को बचाने के सरकारी प्रयास, सरकारों के मनमाने आदेेश, जनसुविधाओं की उपेक्षा, कोरोनाकाल में गड़बडिय़ां-जैसे उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है।
ताजा मामला ही है, जब राजस्थान में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) के नए डीजीपी ने पदभार संभालते ही फरमान जारी कर दिया कि किसी भी अधिकारी-कर्मचारी के रिश्वत लेते पकड़े जाने पर उसका नाम व फोटो मीडिया को नहीं देंगे। पत्रिका ने जनता को इस ‘काले फरमान’ की असलियत बताई। सरकार की किरकिरी हुई। मुख्यमंत्री ने इस फरमान को वापस लेने की घोषणा करते हुए श्रेय पत्रिका को दिया।
जयपुर शहर में कार की पिछली सीट पर भी बेल्ट बांधना अनिवार्य करते हुए गत वर्ष दिसम्बर में यातायात पुलिस ने चालान काटने का अभियान चलाया तो पत्रिका ने सवाल खड़े किए। दो दिन बाद ही पत्रिका की पहल पर आदेश वापस हो गया।
कोविड के दौर में भरतपुर में निजी अस्पतालों में सरकारी वेंटीलेटर पहुंचाने की खबर पत्रिका ने उजागर की। परिणाम यह हुआ कि सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा और कोर्ट ने निजी अस्पताल पर जुर्माना तक लगाया। करौली में पत्रिका के अभियान पर जनसहयोग से ऑक्सीजन प्लांट तक लग गया। कोविड में अनाथ हुए बच्चों की पीड़ा उजागर की तो सरकार ने इन बच्चों के लिए राहत पैकेज प्रदान किए।
कोटा में एक समय की नामी औद्योगिक इकाई आइएल की लगभग 100 एकड़ भूमि की व्यावसायिक बिक्री की तैयारी थी। पत्रिका ने अभियान चलाया तो आज वहां ऑक्सीजोन बन गया है। सीकर की दृष्टि बाधित खिलाड़ी शालिनी को वीजा को लेकर हवाई अड्डे पर ही एशियन यूथ गेम्स में जाने से रोक दिया गया। पत्रिका ने इसे लेकर विदेश मंत्रालय तक सम्पर्क किया। आयोजकों को निर्णय बदलना पड़ा। शालिनी ने खेलों में हिस्सा लेकर चौथा स्थान प्राप्त किया।
राजस्थान का पश्चिमी भू-भाग रेगिस्तान होने से पशुपालन के लिए ही उपयुक्त है। कोविड के दौरान पशु मेले बन्द हो गए। पशुपालकों को खाने के लाले पड़ गए। प्रशासन ने इस बार भी तिलवाड़ा पशु मेला (वर्ष का प्रथम व्यावसायिक पशु मेला) नहीं लगाने के आदेश जारी कर दिए तो पत्रिका ने मुद्दा उठाया। मुख्यमंत्री ने पशुमेले लगाने के आदेश उसी दिन जारी कर दिए।
छत्तीसगढ़ में तो नक्सलियों से सुरक्षा बलों की मुठभेड़ की खबरें खूब आती हैं। लेकिन हकीकत यही है कि इसकी मार आदिवासी पर ही पड़ती है। पुलिस का सिपाही मरे तो वह आदिवासी, नक्सली मरे तो भी आदिवासी। ऐसी ही एक फर्जी मुठभेड़ का मुद्दा पत्रिका ने उठाया। सुरक्षा बलों ने स्वीकारा कि मौत क्रॉस फायरिंग में हुई थी, मुठभेड़ में नहीं।
पिछले दिनों ही नक्सली हमले में तीन जवान शहीद होने का समाचार भी था। तीनों ही सिपाही आदिवासी थे। यह तो तब है जब वहां सुरक्षा बलों की 45 बटालियनें तैनात हैं। आरोप यह भी है कि सरकार ही जमीनों पर कब्जे कर ऊंचे दाम पर बेचना चाहती है।
माफिया के लिए बदनाम मध्यप्रदेश जैसे प्रदेश में तो कई बड़े नेता भी अपराधों को बढ़ावा देने में शामिल नजर आए। इंदौर में पत्रिका ने ‘जमीन का दर्द’ अभियान चलाया तो सौ से अधिक अपराधी जेलों में बन्द हुए। बॉबी छाबड़ा जैसा माफिया सरगना पकड़ा गया।
इंदौर में कृषि कॉलेज की भूमि को माफिया को देने की तैयारी हुई तो पत्रिका ने जन सहयोग से लंबा अभियान चलाया। सीएम को आदेश रोकना पड़ा। मध्यप्रदेश में सार्वजनिक परिवहन के लिए कई मार्गों को राजनेताओं ने ले रखा था। हालत यह कि कई सरकारी बस स्टैंड तो बंद ही हो गए। भ्रष्टाचार का नंगा नाच देखा जा सकता है।
पत्रिका ने तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष तक के विरुद्ध समाचार प्रकाशित किए थे। राष्ट्रीय मानव का दर्जा प्राप्त बैगा जनजाति को सरकारी योजनाओं से वंचित किया जा रहा था। इनके बच्चों के स्कूलों में प्रवेश तक नहीं हुए। पत्रिका के अभियान के कारण मुख्यमंत्री ने टीम का गठन करवाया तो सर्वे में हजारों नाम और दस्तावेज सामने आए।
इतना ही नहीं पिछले विधानसभा चुनाव में एक समुदाय विशेष के हजारों नाम मतदाता सूची से गायब थे। पत्रिका की पहल पर सारे नाम जोड़े गए। विदिशा के उदयपुर में 1100 वर्ष पुराने महल पर मदरसे का बोर्ड लगा कर इसे निजी सम्पत्ति घोषित कर दिया गया।
पत्रिका के अभियान के कारण यह महल आज संरक्षित स्मारक है। पत्रिका ने ही उज्जैन के गोवर्धन सागर के सरकारी होने का खुलासा किया। माफिया बने पत्रकार का अधिस्वीकरण, शस्त्र लाइसेंस, सरकारी भवन सब निरस्त हुए। गोवर्धन सागर आज सारे अतिक्रमणों से मुक्त है।
हिन्दी की मुख्य धारा को सुदूर दक्षिण तक पहुंचाने का साधन बनने के प्रयोजन से राजस्थान पत्रिका ने 26 जनवरी 1996 को दक्षिण में अपना पहला संस्करण कर्नाटक की राजधानी बेंगलूरु से शुरू किया। आज संपूर्ण दक्षिण में अपनी उपलब्धता के साथ राजस्थान पत्रिका वहां बसे मारवाडिय़ों को देश भर से जोडऩे का काम कर रहा है।
दक्षिण में मारवाड़ी परिवार अपनी सामाजिक गतिविधियों का सामूहिक आनंद पत्रिका के माध्यम से लेते हैं। एक तरह से उत्तर-दक्षिण की भौतिक, राजनीतिक और मानसिक दूरी को पाटने का जो लक्ष्य हमने हाथ में लिया था उसमें कामयाब हुए हैं।
कोलकाता के बड़ा बाजार में वर्ष 2008 में हुए अग्निकाण्ड का दर्द वहां के प्रवासी राजस्थानी आज तक नहीं भुला पाए हैं। पूर्व उपराष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत व प्रख्यात उद्योगपति बसंत कुमार बिड़ला के साथ मैं तब कोलकाता पहुंचा था। पत्रिका की पहल पर ही प्रभावित परिवारों की मदद के लिए बिड़ला ने अपनी तरफ से दो करोड़ रुपए देने का ऐलान भी किया।
सूरत से नई दिल्ली के लिए कभी सप्ताह में केवल तीन हवाई उड़ानें ही थीं, जबकि केन्द्र में गुजरात का डंका था। पत्रिका ने वर्ष २०१५ में करीब छह माह तक अभियान चलाया। लोग अभियान से जुड़ते चले गए और आज हालत यह है कि हवाई जहाज खड़े करने का स्थान कम पडऩे लगा है। सूरत के विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग भी पत्रिका के अभियान से ही शुरू हुआ।
देश में शायद अकेला समाचार-पत्र है जो अपने सामाजिक सरोकारों के कारण अलग से पहचान रखता है। जल संरक्षण का अभियान अमृतं जलम् हो या फिर पर्यावरण के प्रति जागरुकता का हरियालो राजस्थान व हरित प्रदेश अभियान।
करगिल शहीदों के परिजनों को सहायता पहुंचाने का काम हो या फिर अकाल प्रभावित इलाकों में खाद्यान्न पहुंचाने के लिए एक मुट्ठी अनाज अभियान-इन सब कार्यों में पत्रिका सदैव सर्व समाज के साथ खड़ा दिखाई देता है।
मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा एक विषय मुझे ध्यान हैं जब कोरबा (छत्तीसगढ़) की बीमार बच्ची को बचाने के लिए 22 करोड़ रुपए का इंजेक्शन मंगवाने पर सरकार ने हाथ खड़े कर दिए। तब पत्रिका ने अभियान चलाया जिससे प्रेरित होकर साउथ र्ईस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड (एसइसीएल) ने स्विट्जरलैण्ड से इंजेक्शन मंगवाकर बच्ची की जान बचाई।
एक और प्रकरण में कोरबा में ही खान ढहने से दो बच्चियों की मौत के मात्र दस हजार रुपए के मुआवजे के लिए पटवारी ने ढाई हजार रुपए की रिश्वत मांगी तो पत्रिका ने इसे उजागर किया। सरकार जागी। पटवारी का निलम्बन हुआ और दोनों बच्चियों को भी 5 -5 लाख का मुआवजा मिला।
गोवंश में लम्पी रोग की भयावहता का तो सबको पता हैै। लम्पी के प्रकोप के दौरान पत्रिका ने बीमार गोवंश की रक्षा के लिए युवाओं को साथ लिया। गांव-गांव में आइसोलेशन वाड्र्स बनाए गए। हजारों लोगों ने अपने स्तर पर गोवंश को दवा के लड्डू खिलाए और बाद मेंं ‘गाय गोद लें’ का अभियान भी चलाया।
आज ये सारी कहानियां क्यों? सोचिए, यदि पत्रिका न होता तो! जनता के प्रतिनिधि और नौकर कहां ले जाकर छोड़ते? मीडिया को नापने का यही पैमाना है। उसे जनता और सरकारों के बीच सेतु होना चाहिए। पत्रिका जागरूकता और मानवीय संवेदनाओं का दस्तावेज है।
पत्रिका कलम का सिपाही है। लोक के अधिकारों की रक्षा के लिए, माटी की गंध के लिए, देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष का संकल्प लेकर चलता है।
पत्रिका सामाजिक शिक्षा, सांस्कृतिक जीवन-शैली एवं नई तकनीक के बीच संतुलन का पक्षधर है। आने वाला समय तकनीक प्रधान होगा। चर्चा है कि युवाओं की लिखने-हिन्दी पढऩे की आदत कम हो जाएगी। मुझे ऐसा नहीं लगता। नया युवा अधिक जागरूक, जिज्ञासु होगा।
हमने भारत को जानने का उतना प्रयास नहीं किया। पेट की चिन्ता में ही बड़े हो गए। यह भी तो सच ही है कि सारी तकनीक के पीछे भारतीय प्रतिभाएं ही हैं। विश्वगुरु बनने में पलक भर झपकानी होगी। ज्ञान भारत में ही है, अभिव्यक्ति बाहर है।
आज पत्रिका भी इसी अभिव्यक्ति के लिए अपने पाठकों को प्रेरित करता है। तभी तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पत्रिका के प्रति ये भाव व्यक्त किए-‘पत्रिका अखबार हर दिन लोगों के घर के दरवाजे खोलता है और पढऩे के बाद मन के दरवाजे खोलता है।’ अत: यह व्यापार नहीं, उत्तरदायित्वों का बोध है, जो आज तीसरी पीढ़ी उठाकर चल रही है।
हजारों परिवारों का एक वृहद् परिवार! वसुधैव कुटुम्बकम्। भारतीय सनातन (प्राकृतिक जीवन) के लिए नई पीढ़ी को जोड़े रखने के लिए कटिबद्ध है। न किसी राजनीतिक दल, न धर्म-सम्प्रदाय से प्रभावित है। इसीलिए हर मुद्दे पर जनता साथ हो लेती है। पत्रिका जनता का सपना है। विकास के हर कदम पर इसकी भूमिका रही है, रहेगी। बदले में जनता जनार्दन का मात्र आशीर्वाद चाहिए, ताकि सब मिलकर इस माटी की गंध को चारों दिशाओं में फैला सकें।
नमस्कार!
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