रज, अग्निप्रधान तथा शुक्र, सोमप्रधान है। रज में ही अत्रि प्राण की प्रतिष्ठा है। इसके सहयोग से ही गर्भाधान होता है। जैसा मह:लोक में होता है। यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण मल भाग छोड़ता रहता है। रजाग्नि से भी दग्ध होकर मल भाग निरन्तर निकलता है। संचित होकर यही मल निश्चित तिथियों में मासिक धर्म के रूप में बाहर निकलता है।
इसी काल में, इसी रज में, पारदर्शिता निरोधक तथा मूर्ति (घनता) प्रवर्तक अत्रि प्राण विकसित रहता है। एक ओर यह पिण्ड रूप को प्रवत्र्त करता है, वहीं दूसरी ओर सौर प्राणों से प्राप्त शुक्र में वीर्य (ब्रह्म-क्षत्र-विड्) का विरोध करता है। ग्रहण काल की तरह का यह काल भी अनेक वर्जनाओं का काल है। यह सघन संक्रमण काल होता है।
‘तद्धैद्देवा:-रेतश्चम्मन् वा, यस्मिन्वा बभ्रु, तद्धस्म पृच्छन्ति-अत्रेवत्या दिति। ततोऽत्रि: सम्बभूव। तस्मादप्यात्रेय्या योषितैनस्वी। एतस्यै हि योषायै वाचे देवताया एते सम्भूता:।’ (शत.1 /4 /5 /13 )
अर्थात्-देवताओं ने उस रेतोभाग को गर्भाशय अथवा अनुकूल पात्र में रख दिया। तब देवता आपस में पूछते हैं कि वह वाग्रेत किस अवस्था में परिणत हो गया? इस विचार से उस वाग्रेत से अत्रि उत्पन्न हो गया। इसी कारण सृतगर्भा रजस्वला स्त्री आत्रेयी कहलाती है। स्त्रीरूपात्मिका उस वाग् देवता से ही सम्पूर्ण गर्भों की स्वरूप निष्पत्ति हुई है।
अस्वच्छता स्थूल कारण है।
प्राण सूक्ष्म होते हैं। इनका प्रभाव भी सूक्ष्म शरीर पर ही पड़ता है। वहीं ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण रूप हृदय होता है, जिसके केन्द्र में अव्यय मन (आत्मा) की प्रतिष्ठा है। प्राण असंग होते हैं, भूत ससंग होते हैं। ससंग गर्भित असंग प्राणों से ही प्राण या अक्षर सृष्टि होती है। संक्रमण का सीधा प्रभाव यहां पड़ता है। प्राण सृष्टि का सम्बन्ध स्वयंभू से होता है, जो विश्व सृष्टा है।
यह भी देखें – भारत और भारतीयता
मन्दिरों में प्रवेश तो अकल्पनीय ही था। ऐसी धारणा थी कि वहां प्रसाद के अतिरिक्त अत्रि प्राण का प्रभाव मूर्ति के आभामण्डल पर पड़ता है। जिसका संक्रमण स्वीकार्य नहीं होता।
इस निषेध परम्परा को तोड़कर बाहर मुक्त वातारण में प्रवेश का मार्ग केरल की रजिता रामाचन्द्रन ने ही स्वयं के संकल्प से निकाला। इसने महिलाओं को सशक्तिकरण का बड़ा संदेश दिया है। मुक्त वातावरण के साथ अपनी-अपनी कलाओं को देश-विदेश में पहुंचाने के नए अवसर होंगे।
कलाओं का नए युग की दृष्टि से विकास भी हो सकेगा। भक्ति संगीत/नृत्य की दिशा में तो यह सूरज ही कहा जाएगा। रजिता का साहस और संकल्प स्तुत्य है। उसने परम्परा की वैज्ञानिकता का भी सम्मान किया और स्त्री मन पर पड़े भारी बोध को भी उतार फेंका।
यह भी देखें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : नाड़ियों में बहते कर्म के संकेत