मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। (गीता 14.3) अर्थात् मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूं। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
सृष्टि कर्म युगल तत्त्व के अभाव में संभव नहीं है। इसीलिए स्वयंभू ब्रह्मा के सत्यलोक में सृष्टि नहीं होती। कृष्ण कह रहे हैं कि ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। यज्ञ दो विपरीत तत्त्वों का आपसी कर्म है। यहां जगत को अग्निषोमात्मक कहा है, किन्तु प्रत्येक यज्ञ में सोम अन्न रूप होता है। तब सृष्टि का अर्थ हो जाता है-सर्वमिदं अन्नं सर्वमिदं अन्नादम्- सृष्टि मेें सभी अन्न हैं तथा सभी अन्नाद भी हैं। किन्तु ब्रह्म के वितान में कर्म महत्त्वपूर्ण है। इसको क्रमिक रूप में इंगित करते हुए कृष्ण कह रहे हैं कि-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।। (गीता 3.14)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। (गीता 3.1५) अर्थात् सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से निष्पन्न होता है। कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद को अक्षर ब्रह्म से प्रकट हुआ जान। इसलिए वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कत्र्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है।
सृष्टि निर्माण का भेद पंचाग्नि के सिद्धान्त में छिपा हुआ है कि किस प्रकार जल पांचवीं आहुति में शरीर (पुरुष रूप) बन जाता है। सृष्टि का आरंभ काममय पुरुष के मन की कामना से हुआ था। रस में कामना का बल ही आहुत हुआ था। इसी कारण यह ब्रह्म-कर्म की सृष्टि युगल सृष्टि है। अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म है किन्तु कर्ममय है। सभी ८४ लाख योनियों में ब्रह्म ही केन्द्र में प्रतिष्ठित है। कर्माहुति के अनुकूल ही स्वरूप निर्माण होता चला जाता है। सृष्टि क्षर ब्रह्म के आधार पर चलती है। जीवात्मा का कर्म अक्षर सृष्टि के रूप में आगे बढ़ता है। ब्रह्म अव्यय पुरुष का मन है।
ब्रह्म के आधार पर सृष्टि का मन भी एक ही है तब सृष्टि का प्रत्येक प्राणी समान ही है। मन की कामना कर्म रूप लेती है। ब्रह्म का कर्म यज्ञ रूप है और वेद अर्थात् ऋक्-यजु:-साम व अथर्व पर आधारित है। परात्पर के केन्द्र से अग्नि बाहर-परिधि की ओर बहता है। सोम केन्द्र की ओर प्रवाहित होता है। मार्ग में सोम अग्नि में आहुत होता जाता है। केन्द्र ऋक् है, परिधि साम है। मध्य में यजु: पुरुष गतिमान रहता है। हृदय के तीनों अक्षर प्राणों-ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र में से ब्रह्मा-ऋक्, विष्णु-साम व इन्द्र-यजु: रूप है। केन्द्र से इन्द्र अग्नि रूप में बाहर जाता है, विष्णु सोम लेकर केन्द्र की ओर आता है। ब्रह्मा का केन्द्र-प्रतिष्ठा सुरक्षित रहती है। यही ब्रह्म का वेद आधारित कर्म है, अक्षर प्राणों का स्वरूप है। इसी कर्म यज्ञ में अग्नि में सोम का वर्षण होता है। सोम रूप अन्न से ही यज्ञ का निर्माण होता है।
अत: अग्नि और सोम सृष्टि यज्ञ के दो पहिए हैं। दोनों के तीन-तीन रूप होते हैं। अग्नि के अग्नि-यम-आदित्य तथा सोम के आप:-वायु-सोम। यज्ञ में अग्नि का ‘अग्नि’ तथा सोम का ‘सोम’ भाग काम आता है। अग्नि तो अग्नि का घन रूप है और सोम, सोम का विरल रूप है। कहने का अभिप्राय है कि दो विपरीत धरातलों का यज्ञ में योग होता है। प्रकृति की यही तो कारीगरी है। सूर्य की अग्नि में यदि जल गिरता है तो अग्नि बुझ जाएगी। आप: को बचाकर वायु द्वारा सोम को आहुत किया जाता है। यहां सूर्य का प्रकाश देवराज इन्द्र है और जल है असुर सम्राट वरुण देव। दोनों सहोदर हैं। एक ही पिता की सन्तानें हैं दोनों।
इस दृष्टि से पंचाग्नि के सिद्धान्त को समझना चाहिए कि सभी पांचों स्तरों पर अग्नि और सोम की उपलब्धता है और सोम के केन्द्र में ब्रह्म का बीज होता है। पांचों ही स्तरों पर माता रूप में माया ही यज्ञाग्नि रूप में भी उपलब्ध होती है। दूसरी बात यह भी स्पष्ट रहनी चाहिए कि सोम अग्नि में आहुत होकर जल नहीं जाता बल्कि एक नए निर्माण को आरम्भ करता है। विखण्डनधर्मा अग्नि में आहुत सोम ही अग्नि पिण्ड के निर्माण में काम आ जाता है। स्वरूप निर्माण में सहायक बनता है। वैसे भी सिद्धान्तत: सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता। परिवर्तित होता रहता है। इसलिए यह ब्रह्म का विवर्त कहलाता है।
पृथ्वी की तरह प्रत्येक नए पिण्ड का निर्माण जल से होता है। मातरिश्वा के रूप में वायु सहयोगी बना रहता है। वायु और जल की सहायता से हमारा शरीर तैयार होता है। सूर्य-चन्द्रमा और परमेष्ठी लोक निर्मित होते हैं। प्रत्येक निर्मित पिण्ड, अग्नि पिण्ड होता है। इस अग्नि में ही वायुमण्डलीय सोम आहुत होता रहता है। पिण्ड के स्वरूप को बनाए रखता है। जिस प्रकार सूर्य का ताप हम तक पहुंचता है, पृथ्वी का ताप भी सूर्य तक पहुंचता है। इन दोनों अग्नियों के योग से ही वैश्वानर अग्नि का निर्माण होता है। प्रत्येक प्राणी में विद्यमान रहने वाले वैश्वानर अग्नि के विषय में कृष्ण कहते हैं कि-
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।। (गीता 15.14) यही वैश्वानर अग्नि सोम रूप अन्न का ग्रहण करता है, पाचन करता है और शरीर के तापमान को प्रतिष्ठित रखता है। यदि यहां अग्नि के स्थान पर आदित्य रूप हो तो वह न अन्न को पचा सकता है, न ही रस का निर्माण कर सकता है। तीव्र प्रज्वलित अग्नि ही कठिन से कठिन अन्न को पचा सकता है। अधपका अन्न भी अनेक रोगों का कारक होता है।
पृथ्वी-पर्जन्य के यज्ञ में भी स्थिति समान रहती है। ग्रीष्मकाल की गर्मी भी पृथ्वी को अग्नि की तरह तप्त करती है। तब पर्जन्य से वृष्टि होती है। वर्षाकाल की आरंभिक उष्णता ग्रीष्मकाल से अधिक होती है। उस तपती धरती पर जल वाष्प बनकर सोम रूप लेता है। उधर पृथ्वी पर किसान भी हल चलाकर भीतर की अग्नि का द्वार खोलकर रखता है। इसी अग्नि में सोम (ब्रह्म-बीज युक्त) आहुत होता है। पृथ्वी के ‘मह:लोक’ तक यात्रा करता है। योनि का पूर्ण तप्त होना (अग्नि रूप) अनिवार्य है, जिसे ‘स्त्रीभू्रण’ कहा जाता है। यह मह:लोक स्थानीय ही होता है।
पुरुष का बीज ‘पुंभ्रूण’ कहलाता है। वह मात्र वीर्य (रेत) ही नहीं है। रेत में भी शुक्राणु होते हैं। रक्त की प्रत्येक कोशिका एक स्वतंत्र आत्मा है। उसका स्वतंत्र पुंभ्रूण होता है, जो मन्थन-क्रिया में प्रवाहित रेत में पहुंचता है। वायु द्वारा इस रेत का स्त्री शरीर में स्थानान्तरण होता है। आप:-वायु-सोम को ही भृगु कहते हैं। सोममय शुक्र ही अग्नि में आहुत होता है। शुक्र का शर्करा भाग सोम है, गति वायु है। आप: जल भाग काम नहीं आता। शर्करा की शुद्धता ही शुक्र की शुद्धता होती है। आज इसी पर भिन्न-भिन्न रसायनों-कीटनाशकों-रासायनिक चीनी आदि के आक्रमण हो रहे हैं। ये सन्तान को, उसकी सुरक्षा क्षमता को दूषित/निर्बल करते हैं।
पुरुष शुक्र की भांति ही स्त्री के शोणित को भी गर्भ-निरोधक दवाओं जैसे रसायन दूषित करके अग्नि की तीव्रता को प्रभावित करते हैं। सम्पूर्ण प्रजनन घटकों को ही समाप्त कर देते हैं, जिस प्रकार धरती की ऊर्वरा को कीटनाशक पूरी तरह शनै:-शनै: चट कर जाते हैं। तब निरोग सन्तान का सपना कोई कैसे देख सकता है। एक ओर, शर्करा का आनुवांशिक धरातल दूषित होकर बीज को ‘उन्नत’ कर रहा है, वहीं दूसरी ओर अग्नि की भूमिका बदली जा रही है। रोग निरोधक क्षमता का उत्सर्जन ही विज्ञान का ‘वरदान’ है।
क्रमश:
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