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मानवीय अच्छाई की कथा कहती ‘गोष्ठा एका पैठणीची’

‘गोष्ठा एका पैठणीची’ जैसी फिल्में आश्वस्त करती हैं कि हम अब भी अच्छाई सोच सकते हैं, अच्छाई पसंद करते हैं।

Dec 11, 2022 / 08:03 pm

Patrika Desk

मानवीय अच्छाई की कथा कहती 'गोष्ठा एका पैठणीची'

मानवीय अच्छाई की कथा कहती ‘गोष्ठा एका पैठणीची’

विनोद अनुपम
कला समीक्षक

‘गोष्ठा एका पैठणीची’ यानी एक पैठणी साड़ी की कहानी, एक जूरी के साथ देखते हुए जो पहली प्रतिक्रिया मिली थी,बकवास,ऐसा भी होता है, इतने भले लोग,लगता है किसी और दुनिया की कथा है। वाकई आज के समय में यह किसी और दुनिया की कथा लग सकती है, लेकिन सवाल है इसमें गलती किसकी है, जिसने एक सही दुनिया की परिकल्पना की है उसकी, या फिर जिसने ऐसी दुनिया बना रखी है। यह सवाल हर किसी के मन में उठता है कि कोई यदि हमें हमारी अच्छाई याद दिलाना चाह रहा है, तो वह गलत कैसे हो सकता है। शायद यह भी एक बड़ी वजह रही होगी कि ‘गोष्ठा एका पैठणीची’ सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म के रूप में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए चुनी जाती है।
वास्तव में पैठणी साड़ी महाराष्ट्र के सौंदर्य संस्कृति और गरिमा के प्रतीक के रूप में जानी जाती है। इसकी परंपरा सैकड़ों वर्ष प्राचीन मानी जाती है। कहते हैं पेशवाओं ने इसके कारीगरों को औरंगाबाद के पास येओला शहर में बसाया था। गौरतलब है कि कारीगरों को प्राकृतिक रंगों, रेशम के धागों और सोने की जरी से एक पैठणी साडी बनने में साल भर से अधिक का समय लग जाता है। चूंकि सारा काम हाथ से ही होना है, एक बार में एक डिजाइन की दो-तीन पैठणी साडिय़ां ही बनती हंै,जिसकी कीमत अमूमन लाख से ऊपर ही होती है। दिलचस्प बात यह है कि फिल्मकार पैठणी बनने की पूरी प्रक्रिया अपनी कहानी में गूंथने से संकोच नहीं करता। कांट्रास्ट की पैठणी की कहानी उस स्त्री से शुरु होती जो पैठणी पहन ही नहीं सकती, क्योंकि यह साड़ी बहुत महंगी होती है। कहानी इंद्रयाणी की है, जो घर में ही साडिय़ों पर फाल लगाने का काम करती है, पति सुजीत के फूलों की दुकान है,लेकिन किसी दुर्घटना के कारण वह चलने से लाचार है। इंद्रयाणी के हाथों उसके एक अमीर पड़ोसी की पैठणी खराब हो जाती है। वह पैठणी खराब होने की बात कह कर पडोसी के सामने अपने विश्वास को खोना नहीं चाहती, लेकिन दूसरी ओर इतनी महंगी और इसी तरह की साड़ी ले पाना उसके लिए आसान भी नहीं। यही पैठणी ढूंढने की प्यारी सी कहानी है ‘गोष्ठा एका पैठणीचीÓ, जिसके बीच पैठणी के रेशे-रेशे को हम जानते जाते हैं, एक नारी के आत्मसम्मान को भी, उसके संघर्ष की ताकत को भी, उसके प्यार और संवेदना को भी, सबसे बढ़ कर समाज में सुरक्षित अच्छाइयों को भी।
युवा फिल्मकार शांतनु गणेश रोडे इस फिल्म में एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहां कोई बुरा है ही नहीं। इस फिल्म को देखते हुए हिंदी के दर्शकों को सहज ही ‘राजश्री’ की ‘विवाह’ और ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फिल्में याद आएंगी, जहां परिस्थितियां गलत होती हैं,व्यक्ति नहीं। इंद्रयाणी शहर-शहर घूम रही उसी तरह की पैठणी को ढूंढने, अकेले। अनजान शहर, अनजान लोग, रात में बस स्टैंड में सन्नाटे के बीच अकेले देख बुरा देखने के आदि हो चुके मन में ख्याल आता है, कुछ बुरा होगा। लेकिन दिखता है, इंद्रयाणी, जो कर्ज लेकर पैठणी खरीदने निकली है, अपनी गर्म चादर सर्दी से कंपकंपाते एक बूढ़े भिखारी के शरीर पर डाल देती है।
वास्तव में अच्छाइयां ही अब विस्मित करती हैं। इंद्रयाणी को तमाम कोशिशों के बाद भी उसी तरह की पैठणी नहीं मिल पाती। अंत में वह तय करती है कि अपने अमीर ग्राहक से मिल कर माफी मांग लेगी, लेकिन वह अमीर पड़ोसी भी कुछ ऐसा करती है कि इंद्रयाणी को अपनी गलती के लिए शर्मिंदा होना नहीं पड़ता। वास्तव में अमीर होने का मतलब बुरा होना ही नहीं होता, जैसा नैरेटिव सिनेमा ने गढ़ा है।
‘गोष्ठा एका पैठणीची’ जैसी फिल्में आश्वस्त करती हैं कि हम अब भी अच्छाई सोच सकते हैं, अच्छाई पसंद करते हैं।

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