ओपिनियन

दुनिया सुखी रहे, इसलिए वे करते हैं सामूहिक प्रार्थना

टाना भगतों के साथ दो दिन गुजारने का मौका मिला था। इस दौरान पल-पल अहसास होता रहा कि उनकी पूजा-प्रार्थना, मंत्र जाप कर महज परंपराओं का निर्वाह भर नहीं. अंतर्मन और जीवन से जुड़ाव है। आदिवासी मूल रूप से ऐसे ही होते हैं।

जयपुरAug 09, 2024 / 10:07 pm

Gyan Chand Patni

निराला बिदेसिया
लेखक, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी
आ ज आदिवासी दिवस है। इस अवसर पर एक यात्रा का स्मरण हो रहा है। यह यात्रा झारखंड की राजधानी रांची से सटे एक गांव की थी। उस गांव का नाम है, रोगो। टाना भगतों के बारे में पढ़कर-जानकर वहां गया था। यह संयोग था कि सुबह जिस वक्त पहुंचा, उनकी प्रार्थना चल रही थी, स्थानीय आदिवासी भाषा कुडुख में। सफेद वस्त्रों में महिलाएं और पुरुष, माथे पर गांधी टोपी, सामने दीप जलाकर, चरखा वाले तिरंगे झंडे के नीचे प्रार्थना कर रहे थे। मद्धिम स्वर में घंटियां बज रही थीं। उस भाषा की समझ नहीं थी, पर एक राग था कुड़ुख भाषा में उच्चारित हो रहे मंत्र में। संगीत का एक प्रवाह जैसा था। एक खास किस्म की अनुभूति हुई।
प्रार्थना के बाद खेड़ेया टाना भगत मिले। उनसे पूछा कि यह कौन सा मंत्र था? क्या तिरंगे के सामने देशभक्ति का गीत था? उन्होंने कहा कि देशभक्ति गीत तो कह सकते हैं, पर यह मंत्र नहीं। यह हमारे समुदाय की ओर से प्रार्थना थी। सृष्टि, प्रकृति और धर्म के ईश्वर धर्मेश से प्रार्थना। निहायत निजी तौर पर हम सबने प्रार्थना की। पर, यह महज निजी प्रार्थना नहीं। देश और दुनिया जिस संकट में है, उस आधार पर कह सकते हैं कि हम देश और दुनिया के लिए रोजाना प्रार्थना करते हैं। उन्होंने हमें उस प्रार्थना का आशय समझाया था। कहा, हमने जो ईश्वर से संवाद किया या मांगा, उसका हिंदी भाव है— ‘हे धर्मेश, दुनिया में शांति बनाए रखना। हिंसा, झूठ और बेईमानी की जरूरत मानव समुदाय और समाज को न पड़े। धर्मेश, हमें छाया देते रहना, हमारे बाल-बच्चों, संतानों को भी। खेती का एक मौसम गुजर रहा है, दूसरा आनेवाला है। हम खेती के समय हल-कुदाल चलाते हैं। संभव है हमसे, हमारे लोगों से कुछ जीव-जंतुओं की हत्या भी हो जाती होगी। हमें माफ करना धर्मेश। घर-परिवार का पेट पालने के लिए अनाज जरूरी है, इसलिए खेत में उतरना पड़ता है। खेती करनी पड़ती है। समाज-कुटुंब से भी रिश्ता रखना है। उनके यहां भी आना—जाना है। वे हमारे घर आएंगे, तो उनका स्वागत नहीं कर पाएंगे, अनाज के बिना। अगर उन्हें साल में एक-दो बार भी अपने यहां नहीं बुलाएंगे तो यह जीवन सिर्फ अपने में मगन रहन ेवाला होगा। जब किसी से कोई रिश्ता-नाता नहीं तो ऐसे स्वार्थी और व्यक्तिवादी जीवन का क्या मतलब! इन्हीं जरूरतों की पूर्ति के लिए हम खेती करते हैं। खेती के दौरान होने वाले अनजाने अपराध के लिए हम आपसे क्षमा मांग रहे हैं। धर्मेश, हमें कुछ नहीं चाहिए, बस बरखा-बुनी — मानसून, बारिश—समय पर देना। हित-कुटुंब-समाज से रिश्ता ठीक बना रहे, सबको छाया मिलती रहे। बस इतना ही चाहिए।’
भावार्थ सुन रोम-रोम में सिहर गया था। 1990 के बाद देश में उपभोक्तावादी संस्कृति का दौर आया, सामूहिकता की धारणा खत्म हो व्यक्तिवादी जीवन का चलन बढ़ा। इस दौर में ऐसी प्रार्थना, ऐसी इच्छा रखने वाले समुदाय ने मन पर गहरा असर डाला। 21वीं सदी में एक ऐसा समुदाय, जिसकी अपनी निजी इच्छा- आकांक्षा बहुत छोटी है, पर मानवता के लिए, सृष्टि के लिए अपार श्रद्धा है। एक अनपढ़ समाज, सुदूर गांव-देहात में बसा समाज, दुनिया में शांति के लिए, समाज में समरसता के लिए, मौसम-जलवायु के ठीक रहने के लिए, रोजाना प्रार्थना करता है। तब बताया गया था कि हर गुरुवार को ये सामूहिक रूप से बैठते हैं, अपना सुख-दुख बांटते हैं.
टाना भगत समुदाय के लोग आदिवासी हैं। इनके नायक थे, जतरा टाना भगत। इनके सबसे बड़े नायक वही हैं, जतरा भगत पर बाद में इनके आदर्श रूप में गांधी भी जीवन में आए। सत्य, अहिंसा, सृष्टि प्रेम का पाठ गुरु जतरा भगत ने ही इस समुदाय को सिखाया था। गांधीजी से मुलाकात के बाद उनका भी गहरा असर पड़ा। ये गांधीजी के अनुयायी भी हो गए. आजादी की लड़ाई में इस समुदाय की भूमिका रही। टाना भगतों के साथ दो दिन गुजारने का मौका मिला था। इस दौरान पल-पल अहसास होता रहा कि उनकी पूजा-प्रार्थना, मंत्र जाप कर महज परंपराओं का निर्वाह भर नहीं. अंतर्मन और जीवन से जुड़ाव है। आदिवासी मूल रूप से ऐसे ही होते हैं।

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