वैसे तो फ्रांस में खंडित जनादेश से स्पष्ट हो गया था कि इमैनुएल मैक्रों के लिए आगे की राह आसान नहीं होगी। नेशनल असेंबली की 577 सीटों में से बहुमत के लिए किसी गठबंधन या पार्टी का 289 सीटें जीतना जरूरी है। एनपीएफ को 188, जबकि एनआर को 142 सीटें मिलीं। उम्मीद की जा रही थी कि एनपीएफ के लूसी कैस्ते को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है, लेकिन मैक्रों ने 73 साल के मिशेल बर्नियर को मौका देकर सबको चौंका दिया। राजनीतिक दबदबे के लिए दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी जिस तरह आमने-सामने हो रहे हैं, उससे उथल-पुथल मचने की आशंका को टालने के लिए मैक्रों ने तय समय से तीन साल पहले चुनाव कराने का दाव खेला था। वामपंथी लूसी कैस्ते ने नई सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की तैयारी शुरू कर दी है। फ्रांस की राजनीति में दक्षिणपंथ के उदय को बड़ा बदलाव माना जा रहा है। ऑस्ट्रिया, स्वीडन, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड, इटली और ब्रिटेन जैसे दूसरे यूरोपीय देशों में भी दक्षिणपंथ धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा है। इसकी शुरुआत 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान हुई थी, जब बेरोजगारी की समस्या के कारण इन देशों को बेहद कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। उसी दौरान अप्रवासन बड़े मुद्दे के तौर पर उभरा। यूरोपीय देशों में इस विचार को बढ़ावा मिला कि अप्रवासन उनकी कई समस्याओं का कारण है। इससे उनकी पहचान खतरे में है। फ्रांस और ब्रिटेन में आतंकी हमलों के बाद इस विचारधारा को और हवा मिली।
मिशेल बर्नियर की सरकार बनने के बाद फ्रांस में दक्षिणपंथी विचारधारा का विस्तार हो सकता है। अप्रवासी आबादी पर अंकुश को लेकर जिस तरह के नियम-कानून कुछ देश बना चुके हैं, फ्रांस में भी बनाए जा सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो भारत पर भी असर पड़ेगा, क्योंकि शिक्षा और रोजगार को लेकर करीब 65 हजार भारतीय फ्रांस में बसे हुए हैं।