भारतेंदु के मन में यह बात बैठ गई कि देश का भला निज भाषा की उन्नति से ही होगा। हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर और साहित्यिक योगदान को ध्यान में रखते हुए 1880 में सार सुधा वचन निधि पत्रिका में साहित्यकारों ने उनको भारतेंदु की उपाधि से अलंकृत किया। जब वर्षों बाद भारतेंदु ने भारत दुर्दशा नामक नाटक लिखा तो उसके पांचवें दृश्य में एक पात्र के मुख से कहलाया है- ‘हाय ! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित्त होकर विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कोई उन्नति हो।’
डॉ. अतुल चतुर्वेदी
लेखक और साहित्यकार
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर 1850 को काशी में हुआ था। माता पिता का निधन बाल्यकाल में ही हो गया था। इनके पिता गोपालचन्द्र भी गिरिधरदास उपनाम से कविताएं लिखा करते थे। जिस समय भारतेन्दु ने साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य शुरू किया, उस समय भारत में ब्रिटिश शासन था। देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। उस समय अंग्रेजी लिखना गर्व की बात समझी जाती थी। हिन्दी भाषा के प्रति जनसाधारण में लगाव कम था। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और संवद्र्धन के लिए ही मानो जन्म धारण किया था। भारतेंदु के मन में यह बात बैठ गई कि देश का भला निज भाषा की उन्नति से ही होगा। हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर और साहित्यिक योगदान को ध्यान में रखते हुए 1880 में सार सुधा वचन निधि पत्रिका में साहित्यकारों ने उनको भारतेंदु की उपाधि से अलंकृत किया। जब वर्षों बाद भारतेंदु ने भारत दुर्दशा नामक नाटक लिखा तो उसके पांचवें दृश्य में एक पात्र के मुख से कहलाया है- ‘हाय ! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित्त होकर विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कोई उन्नति हो।’
हरिश्चंद के मन में हिन्दी पत्र के अभाव का भाव बहुत खटक रहा था। उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने स्वयं हिंदी पत्र निकालना प्रारंभ किया। भारतेंदु मात्र हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करके चुप नहीं बैठे। उन्होंने हिन्दी में पुस्तकों का अभाव देखा तो स्वयं पुस्तक रचना आरंभ कर दी । अपने छोटे से रचनाकाल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने छोटे-बड़े 175 ग्रंथों की रचना की। अनूदित ग्रंथों का भी प्रकाशन करने लगे तथा साथी रचनाकारों को भी प्रोत्साहित किया। इन पुस्तकों की प्रतियां वितरित करते ताकि हिन्दी भाषा के प्रति लोगों में अनुराग उत्पन्न किया जा सके। यदि उस समय भारतेंदु ने ये प्रयास नहीं किए होते तो आज हिन्दी भाषा जिस समृद्ध रूप में दिखाई देती है, वह संतोषजनक अवस्था में भी देखने को नहीं मिलती। भारतेंदु ने कई सभाओं, समाजों और संस्थाओं की स्थापना की थी ताकि पठन पाठन की प्रवृत्ति में विस्तार हो और साहित्यिक, शैक्षणिक वातावरण का सृजन हो सके। कविता वर्धिनी सभा में काशी के अच्छे-अच्छे कवि भाग लेते थे। पारितोषिक आदि के वितरण के द्वारा कवियों का उत्साह भी बढ़ाया जाता था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक पेनी रीडिंग क्लब की भी स्थापना की थी। देश सेवा, भाषा-उन्नति, सामाजिक जागरूकता का कोई भी कार्य हो भारतेंदु ने किसी को निराश नहीं किया। सदैव सबकी सहायता की और स्वयं भी सक्रिय भूमिका निभाई। हरिश्चंद्र ने हिन्दी को संपन्न, श्रेष्ठ और मधुर भाषा का गौरव प्रदान किया। आज जिस खड़ी बोली हिन्दी के स्वरूप के दर्शन हम करते हैं इसके प्रणेता और उद्धारक भारतेंदु ही हैं, इस तथ्य में कोई शक नहीं है। भारतेंदु की कविताओं में हमें देशभक्ति की भावनाओं के दर्शन भी होते हैं। उन्होंने अंग्रेजी शासन और भारतीय जनता के बीच उपस्थित अंतर्विरोध को अच्छी तरह समझा था। वे लिखते हैं- अंग्रेज राज सुख साज सज्यो है भारी। पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।। प्रबोधिनी कविता में उन्होंने स्वदेशी का समर्थन किया है और भारत की दुर्दशा का कारण ब्रिटिश शासन को ही माना है। भारतेंदु को हम स्वदेशी आंदोलन का पहला जनक कह सकते हैं। गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन मात्र विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार था जबकि भारतेंदु ने स्वदेशी को व्यापक रूप से स्वीकार करने की बात कही । निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न उर को शूल।। पढ़ो लिखो कोई लाख, विधि भाषा बहुत प्रकार। पै जब कछु सोचिहो, निज भाषा अनुसार।।
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