शुक्र अन्न है, शोणित अग्नि है, भोक्ता है। पुरुष अग्नि है, स्त्री सौया होने से अग्नि का अन्न है। किन्तु पुरुष भीतर सोम तथा स्त्री भीतर अग्नि होने से अन्तत: वही पुरुष को भोगती है। आत्म दृष्टि से अग्नि स्त्री का आत्मा बन रहा है, सोम पुरुष का आत्मा बन रहा है। स्त्री-पुरुष, प्रकृति-पुरुष ही वेद में योषा-वृषा कहलाते हैं। अग्नि अपने चरम पर पहुंचकर आपोमय सोमरूप में परिणित हो जाता है। सोम भी अन्तिम सीमा पर अग्नि बन जाता है। अर्थात्—दिखाई दो देते हैं, मूल में एक ही हैं। एकोऽहं द्वितीयो नास्ति।
ऋषि शाकल्य एक अन्य स्थिति इंगित कर रहे हैं—‘काम ही जिसका शरीर है, हृदय ही जिसका लोक है, मन ही जिसकी ज्योति है, जो समस्त प्राणियों का आत्मा है, उसको जानने वाला ब्रह्म ज्ञानी हो जाता है।’ जिसे तुम सभी भूतों का आत्मा कहते हो, वह काममय पुरुष है। उसका देवता कौन है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया— ‘स्त्रियां’।
कौन स्त्रियां? माया-महामाया-योगमाया और प्रकृति। ब्रह्म ही काम पुुरुष है। हृदय में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र (महेश) अक्षर प्राण रहते हैं। इनकी तीनों शक्तियां क्रमश: सरस्वती-लक्ष्मी-काली ही इस लोक की देवता हैं। ये ही सृष्टि का कारण है। अव्यय पुरुष का मन-श्वोवसीयस मन ही विश्व की एकमात्र ज्योति है। यही षोडशी पुरुष रूपों में भूतों का आत्मा कहलाता है। आत्मा पुरुष और संचालन करने वाली देवता स्त्रियां! क्या ये शक्तिरूपा नहीं है? जीवन का स्वरूप निर्माण स्वभाव (प्रकृति) के आधार पर होता है। प्रकृति ही हमारे व्यवहार की नियामक है। वही आत्मा को कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियां प्रदान करती है।
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। (गीता 13.21) प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है। इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।
माया ही बल है। धारा, जाया आदि रूप से सृष्टि का संचालन करती है। माया रूप प्रकृति की धारा त्रिविध है। सूक्ष्म रूप से महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूप में अपने त्रिपुरुषों के साथ हृदयस्थ होकर प्राणरूप कार्य करती है। यही अक्षर प्राण- ब्रह्मा, विष्णु-इन्द्र, अग्नि, सोम आगे क्षर-ब्रह्म बन जाते हैं। इन्हीं को प्राण, आप, वाक्, अन्नाद, अन्न रूप में सृष्टि- ब्रह्म अथवा क्षर ब्रह्म कहते हैं।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: नारी : जाग्रत दिव्यता ये ही बल हैं जो सूूक्ष्म और स्थूल सृष्टि के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण है। वे दृश्य/अदृश्य विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं। चार भुजाएं- बिजौरा-गदा-खेट (ढाल)-पानपात्र। मस्तक पर नाग-लिंग-योनि धारण किए हैं। तमोगुण रूप एक नारी का रूप (कृष्ण)-चार भुजाएं- ढाल, तलवार, प्याला, खोपड़ी धारण किए। यह रूप जगत को शून्य देखकर धारण किया। वक्ष:स्थल पर कबन्ध की तथा गले में मुण्डों की माला। तामसी देवी ने महालक्ष्मी को नमस्कार किया। इसको नाम दिए गए- महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्या।
यह भी पढ़ें महालक्ष्मी ने दूसरा रूप धारण किया- गौरवर्ण, हाथों में वीणा अक्षमाला, अंकुश तथा पुस्तक। इसको नाम दिए गए- महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा एवं धीश्वरी। दोनों को महालक्ष्मी ने अपने-अपने योग्य स्त्री-पुरुष जोड़े पैदा करने को कहा। पहले स्वयं महालक्ष्मी ने अपना जोड़ा उत्पन्न किया। पुरुष को ब्रह्मन्, विधे, विरिंच, धात तथा स्त्री को श्री, पद्मा, कमला, लक्ष्मी नाम दिए।
महाकाली ने कण्ठ में नील, लाल भुजा, श्वेत शरीर, चन्द्रमौलि पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को पैदा किया। पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी, त्रिलोचन तथा स्त्री त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा तथा स्वरा कहलाए। महासरस्वती ने गोरी स्त्री तथा श्याम पुरुष प्रकट किए। पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषिकेश, वासुदेव, जनार्दन तथा स्त्री के नाम- उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी सुभगा, शिवा रखे गए। इस प्रकार तीनों युवतियां ही तत्काल पुरुष रूप को प्राप्त हुई।
महालक्ष्मी ने ब्रह्मा को त्रयीविद्या रूपा सरस्वती, रुद्र को वरदायिनी गोरी तथा विष्णु को लक्ष्मी दे दी। महालक्ष्मी की सत्-चित्-आनन्द रूप एक एक कला से दृश्य जगत उत्पन्न है। ये ही अध्यात्म, अधिदेव, अधिभूत रूप हैं। मूल में देवी षोडशकल (तीनों) हैं। आध्यात्मिक षोडश कलाओं की पूर्णता शिव में, अधिदैव कलाओं की पूर्णता विष्णु में तथा अधिभूत कलाओं की पूर्णता ब्रह्मा में है।
यह भी पढ़ें धर्म की धारिका शक्ति की पूर्ण कला दो विभागों में विभक्त होकर प्रवृत्ति और निवृत्ति मूलक पुरुष धर्म और नारी धर्म को अलग-अलग स्थापन करती है। विष्णु रूप से प्रवृत्ति धर्म का, स्व वर्णाश्रम धर्म का पालन कराती हुई मुक्ति की ओर अग्रसर करती हूं। शिवरूप से वर्णाश्रम के अनुसार निवृत्ति पथ पर अग्रसर करती हूं। नारी धर्म के लिए मेरे तीन स्वरूप-भेद रहित रूप से महामाया, प्रेमप्रधाना गौरी, शक्ति प्रधाना दुर्गा कहलाते हैं। पुरुषों में प्रवृत्ति की पूर्णता गृहस्थाश्रम में तथा निवृत्ति की पूर्णता संन्यास आश्रम में होती है। स्त्रियों में प्रवृत्ति की पूर्णता गृहिणी धर्म में तथा निवृत्ति की पूर्णता विधवाव्रत में होती है।
शक्ति रूप ही अक्षर ब्रह्म है, स्वभाव अध्यात्म है, उसी में से एक अद्वितीय होकर भी अपनी माया से ब्रह्म, ईश तथा विराट् त्रिविध भावों में दिखाई देती है। अधिभूत क्षर भाव है, जिसका कारण कर्म है। प्रकृति कर्म शुद्ध कर्म तथा जीव का कर्म अशुद्ध होता है। शक्ति कहती है—‘‘मैं एक अद्वितीय होने पर भी अधिदैव रूप को धारण करके स्वयं पुरुष बनती हूं और अपनी शक्ति को प्रकृति बनाकर शृंगार के आनन्द सागर में मग्न होती हूं। मेरा अधिदैव रूप ही मेरी माया से अधियज्ञ रूप होकर प्रत्येक जीव पिण्ड में कूटस्थ कहलाता है। शरीर रूप से मैं ही पुरुष धारा और स्त्री धारा का विस्तार करती हूं। उन धाराओं को लय करते समय यथाक्रम स्त्री पुरुष में लय होती है, पुरुष कूटस्थ में और कूटस्थ ईश्वर में लय होकर मुझको प्राप्त होता है। क्योंकि मैं ही निर्गुण ब्रह्म और ईश्वर रूपी सगुण ब्रह्म हूं।’’- (शक्तिगीता-ज्ञान/विज्ञान योग 30-42)
यह भी पढ़ें ‘‘वास्तव में ब्रह्म और माया एक ही है। केवल मेरी आनन्द सत्ता के प्रकट करने के लिए ही मैं द्वैत रूप में भी जगत में प्रतिभासित होती हूं। माया के प्रभाव से ही ब्रह्म में जगत का भान होता है जो अज्ञानमूलक है। मैं जब अपने ही प्रभाव से अद्वैत सत्ता से द्रष्टा और दृश्य दो रूपों में प्रकट होती हूं, उस समय ब्रह्म रूप से बीज और माया रूप से क्षेत्र बनकर जगत का प्रसव करती हूं। माया विद्या-अविद्या दो रूपों को धारण करती है। अविद्या अज्ञानमयी होने से जीवों को वश में करके सृष्टि-स्थिति-लय के चक्र में डाल देती है।’’
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com