कश्मीरी मुसलमानों में अलगाव और आतंकवाद की जड़ संविधान की अस्थायी धारा-370 है। पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के आग्रह पर यह धारा स्वीकार की थी। अब्दुल्ला कश्मीर के भारत में विलय के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने कहा था- ‘हमने कश्मीर का ताज खाक से उठाया है। हम हिन्दुस्तान में शामिल होंगे या पाकिस्तान में यह बाद का प्रश्न है। पहले हमें अपनी आजादी मुकम्मल करनी है।’ इतना ही नहीं उनका यह कहना भी था कि वे केन्द्रीय सरकार पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि उसमें हिन्दुओं का बहुमत होगा। मुस्लिमों को आश्वस्त करने के लिए कश्मीर को एक विशेष दर्जा दिया जाए। उसका अपना झण्डा, सदर-ए-रियासत और संविधान हो। इस प्रस्ताव का संविधान सभा ने विरोध किया था, किन्तु नेहरू के ‘वचन’ के कारण स्वीकार कर लिया गया। बाद में गोपालस्वामी ने कहा था कि यह धारा अस्थायी है। इसे शीघ्र ही निरस्त कर दिया जाएगा।
आज यह धारा भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुकी है। दो दिन पहले ही वहां की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कह दिया कि धारा हटाने की कोशिश हुई तो लोग पता नहीं कौन सा झण्डा उठा लेंगे। इनके पिता की राष्ट्रभक्ति पूरा देश देख चुका है। इनके आगे देश बहुत तुच्छ वस्तु है। अब तो केन्द्र सरकार ने भी मान लिया होगा कि उसने भी सांपों को ही दूध पिलाया था। इनको ऐसी धारा चाहिए जो पंथ निरपेक्षता और संविधान के मूल सिद्धान्तों को ठुकरा दे। समान नागरिक अधिकारों का सम्मान न करे। कश्मीर के नागरिकों को पूरे देश में समान अधिकार प्राप्त हों, किन्तु भारतवासियों को कश्मीर में रहने-करने का, शादी करने-कराने का, सम्पत्ति खरीद का अधिकार न हो। हां, यहां की स्त्रियां पाकिस्तानी पुरुष के साथ शादी कर करके उन्हें कश्मीर का नागरिक बना सकती हैं।
कश्मीर का संविधान और राष्ट्रध्वज अलग है। विस्थापित नागरिक सांसद चुन सकते हैं, विधायक नहीं। संसद को भी अत्यन्त सीमित क्षेत्रों के अधिकार प्राप्त हैं। उच्चतम न्यायालय के आदेश वहां मान्य नहीं हैं। अक्टूबर 2015 में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एच. एल. रत्तू ने धारा-370 हटाने वाली याचिका पर सुनवाई करने से मना कर दिया था। उनका कहना था कि इस बारे में संसद ही फैसला कर सकती है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इसे स्थायी प्रावधान ठहराते हुए कहा था कि इससे कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकता।
सब कर रहे भ्रमित…
ये सारे प्रयास देश और कश्मीर के रिश्तों को कमजोर करने के ही हैं। आज का वातावरण संविधान के प्रति सम्मानजनक कहां है? राजनीतिक इच्छा शक्ति कई बार उन्हीं का साथ देती जान पड़ती है। बौद्धिक स्तर पर हमारी कार्रवाइयां भले ही सही जान पड़े, भारतीय जनभावनाओं का प्रभाव या दर्द निर्णयों में नहीं होता। सन् 1964 की संसद की बहस में, जो दस घंटों से अधिक चली, सभी ने स्पष्ट रूप से 370 की अस्थायी प्रकृति एवं उसके दुष्परिणामों के कारण इसे हटाने को कहा था। पूरी संसद एकमत थी। ढाई महीने में तीन बार बहस हुई थी। निर्णय नहीं हो पाया। आज तक भी नहीं हो पाया। सब अपने-अपने शब्दों से देश को भ्रमित करते जा रहे हैं।
कानूनी दोगलेपन का दूसरा प्रमाण है आर्टिकल 35-ए। संविधान में इसकी कहीं चर्चा नहीं है। बाद में-370 का ही उप-प्रावधान बनाया गया, जो कहता है कि राष्ट्रपति के आदेश से आप विशेष प्रावधान जम्मू-कश्मीर के लिए सम्मिलित कर सकते हैं। यह संविधान का विधायी प्रावधान नहीं है। इसी के अन्तर्गत वहां के स्थायी निवासी को जमीन, रोजगार आदि देने के अधिकार वहां की विधानसभा को हैं। समस्या की बड़ी जड़ बन गया है 35-ए। वहां के नागरिकों को दोहरी नागरिकता तथा भारतीय नागरिकों पर निषेध। सन् 1947 के बाद बसे प्रवासी भारत के नागरिक हैं, लोकसभा चुनाव में वोट डाल सकते हैं। जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं होने के कारण विधानसभा चुनावों में भाग नहीं ले सकते। वह भी उस अनुच्छेद के अन्तर्गत जो अभी भी संविधान का स्थायी अंग नहीं है। अधिकांश लोगों को तो शायद यह जानकारी भी नहीं होगी। सोच सकते हैं कि अनुच्छेद-370 किसके विरुद्ध है।
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर से धारा-370 हटाने का वादा किया था। सन् 2014 के चुनावों में तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र तक में धारा-370 हटाने की बात कही थी।
धारा-370 के प्रावधान में स्पष्ट कहा गया था कि जैसे ही जम्मू-कश्मीर का संविधान बनाने वाली समिति अपना कार्य शुरू करेगी, धारा-370 हट जाएगी। इस समिति को संविधान तथा विलय सम्बन्धी धाराएं तय करनी थीं। उसमें कहा गया कि अगर बीच में कभी धारा-370 को हटाना है तो इस समिति की अनुमति लेनी होगी। अपना कार्य पूरा करके संविधान समिति 1953 में भंग हो गई।
प्रश्न यह है कि क्या एक देश में दो विधान हो सकते हैं? तब धारा-370 क्यों? इसी के कारण आज वहां सारा विध्वंस हो रहा है। क्या राष्ट्रपति स्वयं अनुच्छेद-370 को नहीं हटा सकते? मोदी सरकार के पहले दिन ही राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने धारा-370 को नुकसानदायक बताया था। वे स्वयं जम्मू से हैं। आज चर्चा का एक बड़ा विषय यह भी बन गया है कि बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) से जो मुस्लिम आए, वे तो नागरिक बन सकते हैं लेकिन भारत के लोग जम्मू-कश्मीर में नहीं बस सकते। यही हमारी अखण्डता और पंथ निरपेक्षता का प्रमाण है। क्या यह शर्म की बात नहीं कि इस धारा के कारण भारत का कोई भी कानून जम्मू-कश्मीर में तभी लागू होगा, जब वहां की विधानसभा उसे पारित कर दे? न तो राष्ट्रपति इस राज्य के संविधान को रद्द कर सकते हैं, न ही कोई निर्देश दे सकते हैं। राष्ट्रपति की राष्ट्रीय संकट की घोषणा भी एक सीमा तक ही लागू हो सकती है।
समय के साथ वहां स्थिति विस्फोटक होती जा रही है। सेना पर पथराव का एक बड़ा लम्बा दौर देश ने साक्षात किया । लोग बेरोकटोक आना-जाना चाहते हैं, घाटी में दोनों देशों की मुद्राएं प्रचलित हैं। अनेक प्रमुख नेताओं के पाकिस्तान में सीधे सम्पर्क भी हैं। पीडीपी स्व-शासन की बात करती है, कोई 1953 पूर्व, तो कोई आजाद कश्मीर की मुहिम चलाए हुए है। पाकिस्तान घाटी से सेना हटाने की मांग दोहराता रहता है। आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट को समाप्त करने का मुद्दा उठता रहता है। इसमें प्रावधान है कि किसी सैनिक के विरुद्ध अभियोग चलाने से पूर्व केन्द्र सरकार की स्वीकृति आवश्यक है। आज यह एक्ट भी निष्प्रभावी हो गया है। सरकारें सदा इन अलगाववादियों के आगे बहाने बना-बनाकर घुटने टेकती जाती हैं।
मैंने जनमानस की टोह लेने की दृष्टि से जम्मू, कश्मीर और लद्दाख की यात्रा की। राज्य में चल रहे कश्मीरी पंडितों और 1947 के बाद शरणार्थियों के शिविरों का भी दौरा किया। वहां साम्प्रदायिक स्वरूप प्रशासन में भी गहराता जा रहा है। आज विधानसभा क्षेत्रों का सीमांकन तक इस तरह हो चुका है कि केवल कश्मीर के क्षेत्र पर आधिपत्य जमाकर सरकार चलाई जा सकती है। इस प्रभाव को जम्मू की ओर बढ़ाने के प्रयास भी बदस्तूर जारी देखे थे।
हालात बदल चुके हैं। पुलवामा के हादसे ने जन-चेतना को जाग्रत कर दिया है। लोग प्रतिक्रिया करने लगे हैं। देश में बसे कश्मीरी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। राज्य सरकारों को भी छात्रों की सुरक्षा के लिए विशेष निर्देश जारी हो चुके हैं। इसकी आंच जम्मू-कश्मीर के नेताओं तक भी पहुंच चुकी है। डॉ. फारुख अब्दुल्ला ने और महबूबा मुफ्ती ने लौटने वाले प्रदेशवासियों के लिए मस्जिद-गुरुद्वारों में लंगर खोल दिए हैं। पुलिस के पहरे में लोगों को अपने शहरों तक पहुंचाया जा रहा है। यह सब काफी नहीं है।
न सर्जिकल स्ट्राइक ही काफी है। यह बुद्धिजीवियों को सन्तुष्ट करने का माध्यम जरूर है, किन्तु जनभावना के आहत मन का मरहम नहीं हो सकती। यह इस बात का संकेत भी है कि अभी सरकार भी स्थायी समाधान नहीं चाहती। युद्ध भी समाधान नहीं है। समाधान के लिए तो पहले आर्टिकल-35 ए को तुरन्त निरस्त करना पड़ेगा। यह दोगलेपन को लागू करने का प्रभावी हथियार है। साथ ही सरकार अनुच्छेद-370 को हटाने की सार्वजनिक घोषणा करके क्रियान्वयन प्रक्रिया शुरू कर दे। जनभावना को सत्ता के जोर से दबाया तो जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता।