इतना ही नहीं, यह सॉफ्टवेयर आपके क्षेत्र का तापमान और ह्यूमिडिटी का आंकलन करेगा और जरूरत के हिसाब से ही आपके पौधों को पानी देगा। नोएडा स्टेडियम में आयोजित पुष्प प्रदर्शनी के माध्यम इस तकनीक को विकसित करने वाले अभिमन्यु शर्मा पहली बार किसी प्लैटफॉर्म पर लाए हैं।
कैसे बना सॉफ्टवेयर गुडगांव के रहने वाले अभिमन्य शर्मा ने इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस से मैनेजमेंट में मास्टर्स किया हुआ है। वह बताते हैं कि उन्हें और उनकी पत्नी श्रेया को घर में लगे पौधों से बहुत लगाव है और अक्सर काम के सिलसिले से वह घर से बाहर रहते हैं। जिसके चलते कई बार उन्हें पत्नी से पड़ता था कि घर से बाहर रहने के चलते पौधों को पानी कैसे दिया जाए। जिसके बाद अभिमन्यु के जेहन में आया कि क्यों न किसी ऐसी तकनीक को इजाद किया जाए जिससे पौधों को पानी देने के लिए किसी को घर में न रुकना पड़े। इसके बाद उन्होंने माल-ई तकनीक पर काम किया और इसे इजाद किया।
ऐसे काम करती है तकनीक अभिमन्यु ने बताया कि maal-e सॉफ्टवेयर का एक वेबपेज है और इस साफ्टवेयर से एक डिवाइस काम करता है। इस डिवाइस में एक ड्रम है जिसमें पानी भरा जा सकता है। इस ड्रम को पानी की उपलब्धता के लिए इसे सीधे नल से जोड़ा जा सकता है। इसमें तीन लाल, हरा और ग्रे रंग के डिपर (पानी के पाइप) लगे हैं। इस सॉफ्टवेयर में अपडेट किया गया है कि किस पौधे को कितने पानी की जरूरत पड़ती है। साथ ही साफ्टवेयर को तापमान सिस्टम से भी जोड़ा गया है। इससे सॉफ्टवेयर को जानकारी मिलती रहते है कि किस इलाके में कैसा मौसम है। इसके हिसाब से ही पौधों को पानी दिया जाता है।
अभिमन्यु ने बताया कि हरे रंग के डिपर से 1 लीटर पानी प्रति घंटा, लाल रंग के डिपर से 2 लीटर प्रति घंटा और ग्रे रंग के डिपर से 4 लीटर प्रति घंटा की रफ्तार से पानी पौधों में डलता है। ये तीनों डिपर पौधों के ऊपर लग जाते हैं और इसके बाद इनमें से पानी निकलने लगता है। जो भी व्यक्ति इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करेगा उसे एक लॉगइन आईडी और पासवर्ड दिया जाता है। जिसके जरिए वह वेबपेज पर जाकर लॉगइन कर सकते हैं। लॉगइन के बाद स्क्रीन पर वॉटर नाओ लिखकर आएगा। वॉटर नाओ पर क्लिक करते ही पौधों को पानी मिलने लगेगा।
डेढ़ साल में बना सॉफ्टवेयर अभिमन्यु बताते हैं कि इस सॉफ्टवेयर को बनाने में उन्हें करीब डेढ़ साल का समय लगा। उन्होंने इसके लिए कई डिवाइस, सिस्टम और तकनीक के बारे में इंटरनेट और कुछ दोस्तों से संपर्क कर जानकारी जुटाई। जिसके बाद 2016 के आखिर में शुरू किया गया और काम पिछले वर्ष नंवबर में जाकर सफल हुआ है। इस सॉफ्टवेयर के लिए उन्होंने कॉपीराइट भी ले रखा है।