scriptSuicide of students in India: छोटी उम्र में उम्मीदों की भारी गठरी, कैसे रोकें नौनिहालों को गलत कदम उठाने से? | Suicide of students in India A heavy burden of expectations at a young age how to prevent children from taking the wrong step | Patrika News
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Suicide of students in India: छोटी उम्र में उम्मीदों की भारी गठरी, कैसे रोकें नौनिहालों को गलत कदम उठाने से?

Student’s Sucide rate in India: भारत में नंबर लाने के बोझ से लेकर बड़ी पगार और पैकेज वाली नौकरियां हासिल करने के दबाव के चलते हर साल हजारों स्टूडेंट्स अपनी जान दे देते हैं। आइए इसके कारणों को समझने की कोशिश करते हैं क्योंकि इनकी परतों को समझे बगैर इन घटनाओं पर रोक नहीं लगाया जा सकता है।

नई दिल्लीJul 09, 2024 / 12:18 pm

स्वतंत्र मिश्र

पिछले कुछ समय से हम जब भी बच्चों की शैक्षणिक गतिविधियों के बारे में बातें करते हैं या अखबार की मुख्य खबरों पर नजर डालते हैं तो पता लगता है कि बहुत से बच्चे अपने जीवन को ही समाप्त कर रहे हैं। यानी विभिन्न दबावों के बोझ तले बच्चे आत्महत्याएँ कर रहे हैं। एक संभावनाओं से भरा खूबसूरत जीवन विभिन्न पहलुओं से अनभिज्ञ, अनजान रह जाने को अभिशप्त हो अंततोगत्वा ख़त्म हो जाता है। यह भयावह स्थित है। त्रासद समय की एक खौफनाक हकीकत। तो आइए समझने की कोशिश करते हैं इसके कुछ पक्षों को, खोलने की कोशिश करते हैं कुछ परतों को। इन परतों और पक्षों को खोलने और समझाने वाला यह आलेख पूनम भाटिया ने लिखा है।

जीवन जीने के बजाय मरना क्यों बेहतर लगता है?

शायद हम यह समझ बना पाएँ कि क्यों हमारे बच्चे जीवन संग्राम में उतरने, अनवरत जूझने, लड़ने और जीतने की अपेक्षा खुद को खत्म कर लेने पर आमादा हैं। आखिर क्यों उन्हें मरना ज्यादा बेहतर लगता है बजाय जीवन जीने के; जबकि मरना या खुद को खत्म करना बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया है। कैसे वह उस पॉइंट पर पहुँचते होंगे, जहाँ पर वह अपने आप को खत्म कर लेने में ही ज्यादा सहज महसूस करते हैं। बेहद अनमने और उदास क्षणों में वह कौन सी मनःस्थिति होती होगी जब वे अपने ही जीवन का अंत कर लेते हैं! बदकार पलों की वह कौन सी सामाजिक, आर्थिक बुनावट होती होगी जिसमें उलझ कर कई खूबसूरत जिंदगियाँ असमय ही काल के गाल में समा गई।

साल दर साल बढ़ती जा रही है आत्महत्या की घटनाएं

आइए सबसे पहले कुछ आँकड़ों पर दृष्टि डालते हैं। ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने जारी किए हैं। पिछले 10 वर्षों (2011-2020) में, भारत में 10-20 वर्ष के आयु वर्ग के कुल 1,43,837 व्यक्तियों ने आत्महत्या की। प्रति वर्ष के अनुसार विवरण दिया जा रहा है, जो चौंकाने वाला है और इन अर्थों में सिहरन और भय उत्पन्न करने वाला कि यह साल-दर-साल बढ़ता ही गया है…
Suicide rates in india
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि ये संख्याएँ रिपोर्ट की गई आत्महत्याओं पर आधारित हैं। वास्तविक संख्या इससे अधिक ही होगी क्योंकि सभी मामले दर्ज नहीं किए जाते हैं।

क्या कहती है NCRB की रिपोर्ट?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2020 में भारत में बच्चों और किशोरों (18 वर्ष से कम) के बीच जो आत्महत्याएँ हुईं, यह उस वर्ष देश में हुई कुल आत्महत्याओं का 7.3% है। इन आंकड़ों को कुछ और अधिक विस्तृत करते हुए, एनसीआरबी रिपोर्ट कहती है…
Suicide of students in India increasing

कोचिंग हब में जान देने की होड़!

अब हम बात करते हैं, देश के प्रमुख कोचिंग हब शहर कोटा की। पिछले 10 वर्षों में, कोटा में 124 छात्रों ने अपनी जान दे दी। कोटा जिसे भारत की “कोचिंग राजधानी” के रूप में जाना जाता है। प्रतिस्पर्धी परीक्षा की तैयारी, विशेषकर इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं के लिए एक प्रमुख केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा के कारण कोटा को भारत का “कोचिंग हब” कहा जाता है। 2024 में अप्रैल माह तक ही भारत के कोटा में छात्रों के बीच आत्महत्या के नौ मामले सामने आए।
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छोटी उम्र में सफलता की बड़ी गठरी का बोझ

एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल जिन 23 छात्रों ने कोटा में आत्महत्या की, उनमें से आधे से ज़्यादा छात्र नाबालिग़ थे। 12 छात्र ऐसे थे, जिन्होंने कोटा पहुँचने के छह महीने के भीतर ही आत्महत्या कर ली। जिन छात्रों ने आत्महत्या की है, उनमें से ज़्यादातर ग़रीब या निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से थे। कोटा में कम उम्र के बच्चे ही कोचिंग करने चले जाते हैं। नौवीं, दसवीं क्लास के बच्चे कोटा में रहकर 12वीं क्लास के बाद होने वाली प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने लगते हैं।

परीक्षा में पास होना जीवन में सफल होना नहीं

आत्महत्या एक जटिल मुद्दा है जो मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित हो सकता है। यह समझा जा सकता है कि बच्चे कई कारणों से सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं। हमने एक ऐसा समाज, एक ऐसा तंत्र विकसित किया है जिसमें सफल होना ही सबसे बड़ा मूल्य है। अगर कोई बच्चा इन तथाकथित सफलता के मानकों पर खरा नहीं उतरता तो फिर उसे लगता है कि अब जीना बेकार है।

स्कूलों में ही बच्चे कई सामाजिक भेदभाव के होने लगते हैं शिकार

कुछ प्रमुख कारणों को समझने की ओर बढ़ें तो सबसे पहले सामाजिक कारण ही लेते है जैसे-रिश्तों में कठिनाई या बहिष्कृत महसूस करना। हमारा सामाजिक ताना-बाना कुछ इस प्रकार से बना हुआ है कि हम धर्म, जाति, ऊँच-नीच, रंगभेद, लिंगभेद, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी आदि के चक्रव्यूह में बहुत अधिक फँसे हुए हैं। हमारे बच्चे पैदा होते ही धर्म, जाति आदि के परिप्रेक्ष्यों में समाज को देखना व समझना शुरू कर देते हैं। ऐसे में रिश्तेदार, दोस्तों और सह उम्र के लोगों द्वारा कुछ ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिसमें कोई व्यक्ति पूरी तरह से सहज महसूस नहीं करता है। यह अक्सर कई जगहों पर होता है, जैसे परिवार, विद्यालय, अन्य जनों के बीच में, आसपास के लोगों, दोस्तों आदि के साथ। लेकिन शुरुआत परिवार से होती है।
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पारिवारिक माहौल से डिप्रेशन में चले जाते हैं बच्चे

कई स्तर पर कठिनाई की शुरुआत परिवार के द्वारा होती है। इस तरह की कुछ कठिनाइयाँ विद्यालय स्तर पर भी महसूस की जाती है। कुछ बच्चे पढ़ने में औसत होते हैं और कुछ अच्छे। जिनकी पारिवारिक स्थितियाँ ठीक होती हैं, वे बच्चे अपने लिए अन्य साधन भी जुटा लेते हैं, जिनसे उनका स्तर विद्यालय में कुछ अलग हो जाता है। यहाँ अमीरी गरीबी भी एक बड़ा मुद्दा चलता रहता है। कुछ बच्चे लगातार दूसरे बच्चों को अलग-अलग तरीके से चिढ़ाते रहते हैं व धमकाते भी रहते हैं। कुछ बच्चे जो उम्र, कक्षा, आकार, आदि में बड़े होते हैं, अक्सर रैगिंग भी लेने लगते हैं। इससे बच्चे तनाव में तो आते ही हैं साथ ही साथ डिप्रेशन में भी चले जाते हैं क्योंकि वह अपनी बात को अध्यापक, माता-पिता या अपने से बड़ों आदि से नहीं बोल पाते हैं। उन्हें झिझक होती है कि कोई क्या कहेगा। बच्चे बहुत अधिक संघर्ष उन परिस्थितियों से नहीं कर पाते हैं जो वह लगातार अपने आसपास घटित होते हुए देख रहे होते हैं। उन परिस्थितियों का लगातार होना भी एक अहम कारण है। जो बच्चे पढ़ने में तो होशियार होते हैं परंतु उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती है ऐसे में बच्चे पारिवारिक बोझ को साथ में लेकर चलते रहते हैं और कई बार टूट जाते हैं।

पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब

बच्चों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि खूब पढ़ोगे, खूब मेहनत करोगे तभी कुछ बन पाओगे और यह कहावत भी बहुत मशहूर है कि ‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब’। बच्चों पर बहुत जल्दी यानी कम उम्र में ही यह दबाव तारी होने लगता है कि उन्हें पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करना है। बहुत छोटे-छोटे बच्चों के साथ ही माता-पिता, अध्यापक उग्र होने लगते हैं। कक्षा कक्षीय गतिविधियों का तनाव भी बहुत अधिक होता है।

कम नंबर आने पर बच्चों को मिलती है प्रताड़ना

शुरू से उनको ग्रेड और मार्क्स के चक्र में उलझा दिया जाता है। बहुत छोटे-छोटे बच्चों के अच्छे मार्क्स आने पर उन्हें कुछ पारितोषिक स्वरूप मिलता है और कम नंबर आने पर प्रताड़ना मिलती है। घर का प्रत्येक सदस्य उन्हें अलग-अलग तरह से डाँटता या समझाता रहता है। अक्सर ही माता-पिता अपने ही घर के अन्य बच्चों या मित्रों में तुलना करते हैं या दूसरे बच्चों का उदाहरण देकर समझाते रहते हैं। उन्हें अलग से तो कम समझाया जाया हैं वरन सभी के बीच में अधिक समझाते हैं, जिसे कहेंगे कि प्रताड़ित किया जाता है। अधिकतर समय माता-पिता अपने बच्चों को समझाते कम हैं, उनको कोसते अधिक हैं। जब यह सिलसिला लगातार होने लगता है तो बच्चे इन तुलनाओं/कोसने/प्रताड़नाओं को समझते हैं व हीन भावना से ग्रसित होने लगते हैं। वे अपनी मन की बातों को या आसपास हो रही घटनाओं को खुलकर बता नहीं पाते हैं। इस तरह की मानसिक चोट उन्हें सालती रहती है। बाल मन पर इन सब गतिविधियों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता, शिक्षकों और स्वयं से उच्च उम्मीदें तनाव और विफलता की भावनाओं को जन्म दे सकती हैं।
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माता-पिता जब बच्चों के लिए हिंसक हो जाते हैं…

अक्सर ही परिवारों में देखा गया है कि बड़े व्यक्ति प्यार से कम ही पेश आ पाते हैं। वे जल्दी ही स्वयं के व्यक्तिगत तनावों को अपने से छोटों पर डालना शुरू कर देते हैं। ऐसे में उनका स्वर उग्र हो जाता है। पूरे दिन की शारीरिक व मानसिक थकावट घर में घुसते ही छोटे बच्चों पर निकल जाती है। चूँकि छोटे बच्चे आदतन चंचल होते हैं, वह विभिन्न क्रियाकलाप करते रहते हैं। उनमें ऊर्जा अधिक होती है तो वह रात तक भी अनेक गतिविधियों में लगे रहते हैं, जिसे माता-पिता सहन नहीं कर पाते हैं। चूँकि वह स्वयं नौकरी, घरेलू कार्य, सामाजिक कार्य आदि करने में थक जाते हैं तो उनका गुस्सा बच्चों पर उतरता है। ऐसे में बच्चे सहम जाते हैं। कई बार कई माता-पिता हिंसक भी हो जाते हैं। वह बच्चों को अपनी प्रॉपर्टी समझते हैं। वह उन पर हिंसात्मक रवैया अपनाते रहते हैं। कुछ परिवारों में शराब या अन्य ड्रग्स भी आम तौर पर लेने की आदत होती है। ऐसे में अगर घर में कोई महिला/पत्नी/माँ, पिता/अन्य किसी पुरुष को मना करती है तो भी वह भी घरेलू हिंसा की शिकार होती है व साथ में बच्चे भी होते हैं। शारीरिक क्षति या हिंसा का डर उन में बहुत जल्दी घर कर जाता है और वह बड़े होने के बाद भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते हैं।

बचपन के बुरे अनुभव से निकल पाना होता है मुश्किल

छुटपन में या कहें कम उम्र के बच्चों के साथ प्रायः यह देखा गया है कि जो उन्होंने बचपन में देखा/सीखा होता है या अनुभव प्राप्त किया हुआ होता है, वह उनके आगामी जीवन में साथ चलता रहता है। कई बार वह उपयोगी भी हो जाता है परंतु कई बार वह भावनात्मक रूप से उन्हें तोड़ भी देता है, जैसे किसी प्रियजन की आकस्मिक मृत्यु, घर में आग लगी हो, कोई बड़ी चोरी हो गई हो, व्यापार में कोई बड़ा नुकसान हुआ हो, किसी ने जमीन/घर आदि हथिया लिया हो, कोई मुकदमा या पुलिस केस हो आदि। इस तरह से अगर कोई बड़ी दुर्घटना परिवार में हो जाती है तो बच्चे उन घटनाओं को लंबे समय तक भूल नहीं पाते हैं। गाहे ब गाहे पुरानी घटनाएँ उन्हें तंग करती रहती हैं। इसे हम धावक मिल्खा सिंह के जीवन से समझ सकते हैं।
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बच्चों यौन दुराचार की जब करते हैं शिकायत तो बड़े…

Save children from sexual violence: हमारे समाज में बच्चे बड़ों पर विश्वास नहीं कर पाते हैं। प्राय: देखा जाता है कि बड़े झूठ बोल देते हैं या अपने वादों पर खरे नहीं उतरते हैं। ऐसे में उनके सामने हमेशा असमंजस की स्थिति बनी रहती है। लड़कों के साथ तो यह कि वे रोते नहीं हैं, कमजोर नहीं पड़ते आदि। अगर हम लड़कियों की बात करें तो लड़कियाँ, पुरुषों पर अधिक विश्वास नहीं कर पाती है। आँकड़े बताते हैं कि महिलाओं से या बच्चियों से सबसे अधिक यौन दुराचार/शोषण अपने परिवार में ही या अपने सगे संबंधियों के द्वारा ही होता है। हालाँकि अब ये आँकड़ा लड़कों के संदर्भ में भी चौंकाने वाला है। ऐसे में बाल मन अत्यधिक प्रभावित होता है। ख़राब पारिवारिक गतिशीलता, मारपीट, व्यसन, दुर्व्यवहार या उपेक्षा बेकार की भावनाओं में योगदान कर सकती है।

बच्चों को दुर्व्यवहार से बचाएं, अन्यथा…

Assault with Children: बच्चे बहुत सरल प्रवृत्ति के होते हैं। वह जटिलताओं को बहुत अधिक नहीं समझते हैं परंतु बचपन में हुए दुर्व्यवहार को वह आसानी से समझ पाते हैं। वे दुर्व्यवहार जिनसे उनका शारीरिक, मानसिक, शोषण हुआ हो तो वह उन दुर्भावनाओं को पूरी जिंदगी अपने साथ लेकर चलते हैं। ऐसे में कमजोर मनोस्थिति का व्यक्ति स्वयं के साथ किसी भी तरीके की दुर्घटना या दुर्व्यवहार कर सकता है। उसमें आत्महत्या भी शामिल है। बदमाशी का शिकार होने से अलगाव, कम आत्मसम्मान और निराशा की भावनाएँ पैदा हो सकती हैं। अस्वीकृति का डर या फिट होने की इच्छा जोखिम भरे व्यवहार या विकल्पों को जन्म दे सकती है।
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बॉडी शेमिंग बन सकता है आत्महत्या का कारण

एक खराब विचार जो सबसे आदर्श बनकर निरन्तर चलता रहता है, वह है आदर्श छवि प्रस्तुत करना। यह अपर्याप्तता और चिंता की भावनाओं को जन्म दे सकता है। ऐसे में अगर हम हमारे बच्चों को अपने से दूर कर देते हैं, वह भी कम उम्र में तो वह हमारे लिए घातक हो सकता है। जो उम्र उनकी सीखने, समझ बढ़ाने की, साथ रहकर जिम्मेदारी को जानने की होती है, उसमें वह दोस्तों, परिवार या समुदाय से कटा हुआ महसूस करने लगते हैं। इससे अवसाद और निराशा उत्पन्न हो सकती है। बॉडी शेमिंग भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हुआ कारक है। नकारात्मक शारीरिक छवि या कम आत्मसम्मान, आत्म-आलोचना और आत्म-नुकसान का कारण बन सकता है।

बच्चों के मन की बात ध्यान से सुनें

उपरोक्त मनोदशाओं को देखते हए यह जानना जरूरी है कि प्रत्येक बच्चे की स्थिति अलग होती है। इसमें अन्य कारक भी शामिल हो सकते हैं। यदि आप किसी बच्चे की सुरक्षा या भलाई के बारे में चिंतित हैं तो उनकी चिंताओं व मन की बात को सुनना बेहद आवश्यक है। आवश्यकतानुसार सहायता करना व संसाधन प्रदान करना महत्वपूर्ण है। ध्यान रखें कि बच्चे वयस्कों, साथियों या मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा अनसुना, अमान्य या असमर्थित ना महसूस करे क्योंकि यह उनके भावनात्मक संकट को बढ़ा सकता है। यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि ये कारक व्यक्तिगत कमजोरियों और मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के साथ परस्पर क्रिया कर सकते हैं, जिसका परिणाम कई बार आत्मघाती व्यवहार हो सकता है।
नोट:-यदि आप या आपका कोई परिचित संघर्ष कर रहा है तो कृपया किसी विश्वसनीय वयस्क, मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर से संपर्क करें। आप राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम लाइफलाइन (1-800-273-टॉक (8255) जैसी हेल्पलाइन पर कॉल कर सकते हैं।
(पूनम भाटिया, राज. उ. प्रा. विद्यालय, बंबाला, सांगानेर शहर, जयपुर, राजस्थान में प्रधानाध्यापक हैं। यह लेख उनके निजी विचार हैं।)

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