पुराने सहयोगियों का साथ छोड़कर नीतीश कुमार के सत्ता में बने रहने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी नीतीश कुमार ने कई मौकों पर अपने सहयोगी दलों को दगा दिया है। जेपी आंदोलन से निकले नीतीश कुमार का 40 साल का सियासी सफर है। इस 40 साल के राजनीतिक जीवन में वो पिछले 17 साल से बिहार में सत्तासीन हैं। लेकिन इन 17 सालों के दौरान नीतीश ने बड़ी राजनीतिक चतुराई से अपने सहयोगियों का साथ छोड़ते हुए सत्ता संभाल रखी है।
नीतीश कुमार की पार्टी जदयू भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी मानी जाती थी। जदयू और बीजेपी के बीच पहली बार 1998 में गठबंधन हुआ था। लेकिन 17 साल बाद 2013 में जदयू ने भाजपा का साथ छोड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए जब नरेंद्र मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया तो नीतीश कुमार ने 17 साल पुरानी दोस्ती तोड़ दी थी।
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भाजपा से दोस्ती तोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने 2015 में लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इस चुनाव में राजद ने 80 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि जदयू ने 71 सीटों पर कब्जा जमाया था। इस बड़ी जीत के बाद नीतीश कुमार महागठबंधन के नेता बने और 5वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी।
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लेकिन साल 2017 में महागठबंधन में दरार पड़ी। 26 जुलाई को नीतीश कुमार ने प्रदेश के सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। उस दौरान भ्रष्टाचार के आरोप में डिप्टी सीएम तेजस्वी से इस्तीफे की मांग बढ़ने लगी थी। तब नीतीश कुमार ने यह कहते हुए इस्तीफा दिया कि ऐसे माहौल में काम करना मुश्किल हो गया था। इसके बाद नीतीश कुमार ने फिर बीजेपी और सहयोगी पार्टियों की मदद से सरकार बनाई।
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2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन ने जीत तो हासिल की, लेकिन जदयू के विधायकों की संख्या काफी कम हुई। तब इसका कारण चिराग पासवान को माना गया था। कहा गया कि नीतीश को कमजोर करने के लिए भाजपा ने चिराग का साथ दिया था। तब नीतीश सीएम तो बने लेकिन विधायकों की संख्या कमने का मलाल उन्हें था।