लोकसभा चुनाव के साथ ओडिशा में हो रहे विधानसभा चुनाव के नतीजे तो चार जून को आएंगे, लेकिन यहां लोगों से शुरू हुई चर्चा के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि 24 साल मुख्यमंत्री रहने के बावजूद पटनायक के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती। बातचीत का निचोड़ यह भी निकलता है कि जहां दिल्ली की सत्ता के लिए मोदी पहली पसंद है, वहीं राज्य की सत्ता के लिए नवीन पटनायक के मुकाबले दूसरा कोई नाम नजर नहीं आता।
लगातार ढाई दशक से सत्ता में रहने के बावजूद पटनायक के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी क्यों नहीं है? ये सवाल तमाम लोगों से पूछा लेकिन सटीक जवाब दिया राज्य सरकार की सेवा से रिटायर हो चुके भुवनेश्वर के सुकांत महापात्रा ने। बोले, जैसे दिल्ली में फिलहाल मोदी का कोई विकल्प नहीं है, वैसे ही ओडिशा में पटनायक जरूरी है। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए सुकांत ने समझाने के अंदाज में कहा, मुफ्त चावल, नि:शुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य नवीन बाबू की ऐसी राजनीतिक पूंजी है, जिसका विरोध विपक्ष भी नहीं कर पाता। पुरी के समीप रामचंद्र मंदिर में एक श्रद्धालु विभा पटनायक को विधानसभा चुनाव के बारे में टटोला तो जवाब मिला, पटनायक बाबू न सिर्फ योजनाएं बनाते हैं, बल्कि उनके क्रियान्वयन पर विशेष ध्यान देते हैं। यही कारण है उनके पांच बार जीतने का।
उत्तर भारत के राज्यों की तरह सप्ताह भर पहले तक ओडिशा भी तप रहा था, लेकिन चक्रवाती तूफान रेमल के चलते वहां मौसम सुहावना जरूर हुआ है। अलबत्ता चुनाव के आखिरी चरण आते-आते राज्य का राजनीतिक पारा पहले से भी ज्यादा बढ़ गया है। दशकों तक राज्य में सत्तारूढ़ रही कांग्रेस स्थानीय राजनीति में अपनी पकड़ गंवा चुकी है। कभी साथ-साथ रहे बीजू जनता दल और भाजपा अब यहां एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी बनकर उभरे हैं। नवीन बाबू की सरकार से लोग संतुष्ट हैं, लेकिन उनकी बढ़ती उम्र और पार्टी में खींचतान के चलते इस बार मुकाबला कड़ा जरूर है। पहले तीन चरणों में मतदान का प्रतिशत ठीक- ठाक रहा। चुनाव जीतने के लिए भाजपा के देशभर से आए नेताओं ने यहां डेरा डाल रखा है। वहीं बीजू जनता दल की कमान ने थाम रखी है।
टकराव की राजनीति से दूर
रेलवे से सेवानिवृत्त सुधीर मजूमदार ने पटनायक की सफलता का राज कुछ यूं बताया। कहने लगे -नवीन बाबू का टकराव की राजनीति से दूर रहना ही उनकी कामयाबी का राज है। उनके प्रशसंक भले कम हों, लेकिन उनकी बुराई करने वाला कोई नहीं। पटनायक सामंजस्य की राजनीति में भरोसा करते हैं। राज्य की राजनीति में भाजपा और बीजेडी भले ही विरोधी की भूमिका में खड़े हैं, लेकिन सब जानते हैं कि नवीन पटनायक ने जरूरत के समय मोदी सरकार की राज्यसभा में भरपूर मदद की है। यही कारण है कि दोनों दल शब्दों की लक्ष्मण रेखा नहीं लाघंते। भाजपा की प्राथमिकता जहां लोकसभा चुनाव है, वहीं बीजेडी का सारा जोर राज्य की सत्ता बचाने पर है।
कांग्रेस न तीन में, न तेरह में
दो दशक से सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस राज्य में धीरे-धीरे अपना जनाधार गंवा चुकी है। 2009 के विधानसभा चुनाव में 27 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2014 के चुनाव में 16 सीटों पर सिमट गई। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी 9 सीटें ही जीत पाई। इस बार भी पार्टी मुकाबले में नजर नहीं आ रही है। ओडिशा में जहां कहीं भी प्रचार सामग्री पर नजर गई तो केवल नवीन पटनायक और पार्टी के चुनाव चिह्न शंख की फोटो ही नजर आई। पटनायक के अलावा किसी नेता का फोटो चुनावी पोस्टरों में नजर नहीं आया।
पटनायक, पंडियन और पार्टी
पिछले 24 साल से सत्ता दल रहा बीजू जनता दल इन दिनों अंदरुनी उठापटक के दौर में है। पटनायक की बढ़ती उम्र के बीच आइएएस सेवा छोड़कर राजनीति में आए वीके पंडियन को ही फिलहाल पटनायक के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन पंडियन अगर पटनायक की ताकत हैं तो पार्टी के लिए वे कमजोरी साबित हो रहे हैं। बीजेडी के तमाम नेता पंडियन के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित हैं। पार्टी के कई नेता पंडियन की कार्यशैली से नाखुश हैं, मगर पटनायक के सामने बोलने से डरते हैं।