सूत्रों के अनुसार राजनीति में महिलाओं की सहभागिता भी खासतौर से वहीं दिखती है जहां पद या सीट ही उनके लिए आरक्षित हो, ऐसे में कोई पुरुष तो खड़ा हो नहीं सकता। लिहाजा अपने घर की किसी महिला/बेटी को चुनाव लड़ाकर पद व पॉवर का इस्तेमाल पुरुष ही करते हैं। सरपंच/प्रधान प्रतिनिधि की तरह पार्षद/पंच अथवा नगर पालिका बोर्ड की मुखिया भले ही महिला हो पर सारे कामकाज उनके पति अथवा पुत्र के हाथ में होते हैं।
असल में राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति ठीक ढंग से बढ़ ही नहीं पा रही। खासतौर से नागौर, डीडवाना-कुचामन जिले की बात करें तो लोकसभा/विधानसभा स्तर की बात छोड़ दें तो ग्राम पंचायत से लेकर नगर पालिका/नगरपरिषद तक के चुनाव में अपनी इच्छा से चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या गिनी-चुनी होती है।
वर्तमान में महिला सरपंच/प्रधान, वार्ड पार्षद/पंच केवल ऑप्शन/विकल्प के तौर पर ही चुनाव लड़कर जीतती हैं। वो इसलिए की सीट महिला रिजर्व होती है, ऐसे में राजनीतिक परिवार वाले अपने घर से किसी महिला को चुनाव मैदान में उतार देते हैं, वो पूरे कार्यकाल में एक डमी के तौर रहती है, जबकि कामकाज की कमान परिवार वालों के हाथ में। यहां तक कि महिला जनप्रतिनिधि तो बन जाती है पर गांव/कस्बे वाले जब किसी काम के लिए उसके पास पहुंचते हैं तो सुनवाई उनके पति/पुत्र/ससुर में से ही कोई करता दिखता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि राजनीति में अधिकांश महिलाएं धकेली जाती हैं, उन्हें स्वतंत्र रूप से राजनीति में आने का अधिकार उनके घर वाले तक नहीं देते।
परिजन ही नहीं चाहते
सूत्र बताते हैं कि गांव/समाज के लोग नहीं चाहते कि बेटी या बहू राजनीति करे। राजनीति की शुरुआत यूं कहें तो कॉलेज स्तर पर होती है पर सबको मालूम है कि माडी बाई जैसे कन्या कॉलेज को छोड़ दें तो अन्य में छात्राएं इस चुनावी हलचल से दूर ही रहती हैं। इसका कारण भी यही है कि परिजन नहीं चाहते हैं। यही हाल सरपंच/प्रधान समेत अन्य चुनाव का हाल है, परिजन नहीं चाहते कि उनके घर की बेटी/बहू बाहर निकले, लोगों से मिले, बातचीत करे, परिवार-घर की जिम्मेदारी छोड़ खुद को राजनीति में व्यस्त रखे। वो यह भी नहीं चाहते कि उसे घर से दूर जाना पड़े, किसी मीटिंग का हिस्सा बनना पड़े या फिर उसे पुरुषों के बीच अधिक समय तक रुकना पड़े।
काफी सुधार बाकी
अभी महिलाओं की राजनीतिक स्थिति सुधरी नहीं है। एक तरफ समानता तो दूसरी तरफ आरक्षण, कई तरह के विरोधाभास भी हैं। महिलाओं के लिए रिजर्व सीट पर परिजन चुनाव लड़ाकर जिता तो देते हैं पर उनकी हैसियत घर में चूल्हा-चौका करने वाली महिला से आगे नहीं बढ़ पाती। घूंघट में हस्ताक्षर करना अथवा कोई भी बड़ा निर्णय अपने पति अथवा पुत्र के भरोसे छोड़ रही हैं। सामाजिक संगठनों को भी चाहिए और राजनीतिक संगठनों को भी, महिलाओं की पैरवी तो खूब होती है राजनीति में आरक्षण की, सीटें देकर चुनाव लड़ाने की पर उनकी स्थिति को सुधारने की कौन जिम्मेदारी ले। इसके लिए महिलाओं को खुद आगे आना होगा। अपने पद की गरिमा और मूल्य को बचाना है तो महिला जनप्रतिनिधि को आत्मनिर्भर बनना होगा। डा. पूर्णिमा झा, पूर्व विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान, बीआर मिर्धा कॉलेज, नागौर ए-टू-जेड तक सारे काम से मुक्त
किसी भी मीटिंग/बैठक में देख लीजिए गिनी-चुनी महिलाओं को छोड़कर उनके परिजन प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लेते दिखते हैं। कई बार इस संबंध में आदेश भी जारी हुए कि महिला जनप्रतिनिधि खुद बैठक में हिस्सा ले, लेकिन असर कुछ नहीं हुआ। इसका एक प्रमुख कारण यह भी सामने आया कि नागौर जिले में ग्राम पंचायत पर पंच/सरपंच हो या प्रधान अथवा पार्षद महिला चुनी तो जाती हैं पर इनमें अधिकांश कम पढ़ी-लिखी हैं और कुछ सामाजिक कारणों के चलते वो सार्वजनिक मंच पर अपनी बात कहने अथवा मुद्दे उठाने से बचती हैं। यह भी एक कारण है कि पुरुष प्रतिनिध के तौर पर उनके पति अथवा पुत्र ही यह काम करते हैं।