किसी ने भी क्या खूब कहा है, घर से चलो नाम-पता जेब में रखकर, हादसे चेहरे की पहचान मिटा देते हैं। आलम यह है कि आत्महत्या करने निकले व्यक्ति के पास शिनाख्त करने के लिए कुछ नहीं होता तो कई बार यूं ही राह में पड़े मिले शव की शिनाख्त नहीं होती। कभी तेज गर्मी से कोई मरा पड़ा मिला तो कभी तेज सर्दी से, शिनाख्त नहीं हुई तो इनका भी अंतिम संस्कार करना पड़ा। यही काम पुलिस के लिए मुश्किल बन जाता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले पंद्रह साल में करीब चार सौ शव मिले, इन अज्ञात शवों का अंतिम संस्कार हुआ। अंतिम संस्कार के बाद शिनाख्त भी हुई तो दस-बारह की। खास बात यह कि दूरदराज इलाके में आत्महत्या करने गए बहुत से महिला/पुरुष के पास ऐसी कोई पर्ची अथवा सबूत नहीं मिलता जिससे उनकी पहचान हो यानी मरने के बाद तक वे अपनी पहचान छिपाना चाहते हैं।
हाल ही में श्रीबालाजी थाना इलाके में एक खेत में करीब चालीस साल के युवक का शव मिला । गले में फंदा लटका हुआ है, ऐसे में पुलिस का मानना है कि वह किसी पेड़ पर फंदे से लटका, बाद में वो गिर पड़ा। उसकी मौत के तीन-चार दिन बाद भी शिनाख्त नहीं हो पाई है। शव मोर्चरी में रखवाया गया है। ऐसे ही अनगिनत शव पुलिस मोर्चरी में रखवा चुकी है। इसके बाद पूरे राजस्थान में संदेश भेजा जाता है, फोटो/हुलिए के साथ गुमशुदगी अथवा किसी तरह उसकी शिनाख्त हो सके। इसके जरिए भी केवल दस फीसदी की शिनाख्त हो पाती है। ऐसे शव की पहचान के लिए उनका कोई सामान पुलिस अपने पास जमा रखती है।
ऐसे होता है अंतिम संस्कार सूत्रों का कहना है कि पुलिस तीन दिन तक मृतक की शिनाख्त और उसके परिजनों का इंतजार करती है। इसके बाद पंचायत समिति अथवा नगर पालिका/परिषद के पास अंतिम संस्कार के लिए पहुंचती है। कई बार इधर-उधर से जुगाड़ कर हो जाता है तो कई बार पुलिस खुद अपनी व्यवस्था से अंतिम संस्कार करती है। एक पुलिसकर्मी का कहना था कि पंचायत समिति अथवा नगरपालिका/परिषद भी अक्सर बजट नहीं होने का कहकर टाल देते हैं। बजट ना पुलिस के पास और परिषद के पास होने पर किसी तीसरे का सहारा लेना पड़ता है।
आंकड़ों पर एक नजर एक अनुमान के मुताबिक नागौर जिले में इस तरह के हर साल दो दर्जन लोग मिलते हैं जो मौत/हादसे के समय पहचाने नहीं जाते। कुछ के परिजन दो-तीन दिन में शिनाख्तगी के बाद शव ले जाते हैं। इसके बावजूद अकेले नागौर में हर साल 25 से 30 जनों की शिनाख्त नहीं हो पाती और इनका अंतिम संस्कार पुलिस की जिम्मेदारी बन जाता है।
ऐसे में पहचान और मुश्किल पुलिस अफसरों से बातचीत में सामने आया कि ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या करने वालों की शिनाख्त ज्यादा मुश्किल होती है। इसके अलावा कई शव ऐसे मिले जो दूसरे शहर अथवा राज्य के रहे, आत्महत्या के समय उनके पास पहचान का कोई सबूत भी नही मिला, जो यह बताने के लिए काफी था कि वे अपनी शिनाख्त मरने के बाद तक छिपाना चाहते थे।
कई बार हो चुके प्रयास सूत्र बताते हैं कि इस संबंध में कई बार मांग उठ चुकी। अज्ञात शव के अंतिम संस्कार के लिए अलग से बजट तय करने की बात कही गई। इसके बाद यह कहकर टाल दिया गया कि यह नगर परिषद/पालिका व ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी है। हर अज्ञात शव के अंतिम संस्कार के समय बजट का रोना फिर सुनाई देने लगता है।
अकेले थानवी ने कर दिए 127 अंतिम संस्कार मेड़ता के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष अनिल थानवी पिछले पंद्रह साल में ऐसे 127 शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं। अपने जेब से यह अंतिम संस्कार ही नहीं करते अस्थियां हरिद्वार भी ले जाते हैं। उनका भी कहना है कि बजट कहीं से नहीं मिलता, पुलिस उन्हें सूचित करती है तो वे खुद कहीं भी अंतिम संस्कार के लिए चले जाते हैं।
इनका कहना अज्ञात शव के अंतिम संस्कार के लिए पुलिस के पास कोई अलग बजट नहीं होता। नगर पालिका/परिषद अथवा ग्राम पंचायत से पुलिस मदद लेती है। कई बार बजट नहीं होने पर पुलिस खुद कर देती है। तीन दिन तक शिनाख्तगी का इंतजार किया जाता है।
-नारायण टोगस, एसपी नागौर ०००००००००००००००००००००० परिषद ऐसे शव का अंतिम संस्कार कराता है। हालांकि उनके पास इस मद में कोई बजट नहीं है फिर भी सामाजिक जिम्मेदारी समझकर परिषद इसे पूरी करता है।
-मीतू बोथरा, सभापति नागौर