बेमन से लिखा किरदार, बेमन अदाकारी
ब्रिटिश लेखिका पौला हॉकिन्स के उपन्यास ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’ पर इसी नाम से हॉलीवुड 2016 में ठीक-ठाक फिल्म बना चुका है। बॉलीवुड वालों की फिल्म उसी पर आधारित है। कहानी अगर सलीके से न सुनाई जाए, तो फिल्म का नक्शा कितना बिगड़ सकता है, रिभु दासगुप्ता की ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’ इसका नया नमूना है। हॉलीवुड की फिल्म को हीरोइन एमिली ब्लंट की अदाकारी खींच ले गई थी। उसी किरदार में परिणीति चोपड़ा ( Parineeti Chopra ) को देखकर लगता है, जैसे खो-खो खेलने में भी सुस्त खिलाड़ी को जबरन बैडमिंटन के मुकाबले में उतार दिया गया हो। उनका किरदार जितने बेमन से लिखा गया है, उतने ही बेमन से उन्होंने अदा किया है। यह किरदार अपने प्रति सहानुभूति जगाने के बजाय झल्लाहट पैदा करता है।
वोदका का चस्का, मेट्रो का सफर
कहानी लंदन में घूमती है। हादसे में गर्भपात के बाद वकील परिणीति चोपड़ा को एक और झटका लगता है, जब लम्पट पति (अविनाश तिवारी) उन्हें तलाक देकर दूसरी शादी कर लेता है। परिणीति को वोदका का चस्का पहले से था। रिश्ता टूटने के बाद वह पूरी तरह शराब में डूब जाती हैं। एक जगह फरमाती हैं, ‘मैं अपना अतीत नहीं बदलना चाहती। वर्तमान बदलना चाहती हूं।’ लेकिन इस दिशा में कुछ करती नजर नहीं आतीं। काम-धाम छोड़ वह रोज ‘टुन्न’ होकर मेट्रो में सवार हो जाती हैं। ज्ञानी कह गए हैं ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव।’ ज्ञानियों की सुनता कौन है। लोगों का जी ललचाता है। ‘पराई चूपड़ी’ पर कुछ ज्यादा ही ललचाता है। फिल्म में परिणीति चोपड़ा का जी भी खुशहाल नजर आने वाली अदिति राव हैदरी को देखकर ललचाता है। वह अदिति से कभी नहीं मिलीं, लेकिन रोज मेट्रो में सफर के दौरान खिड़की से अदिति के मकान को निहारा करती हैं। इस फिल्म को देखकर पता चला कि मेट्रो में सफर करते हुए आप न सिर्फ किसी मकान को इतना साफ देख सकते हैं, बल्कि यह भी देख सकते हैं कि उसमें रहने वाले क्या कर रहे हैं। बहरहाल, अचानक एक दिन अदिति की हत्या हो जाती है। पुलिस को भूलने की बीमारी से भी जूझ रही परिणीति पर शक है। बेसिरपैर की घटनाओं के चक्कर काटते हुए कातिल बेनकाब होता है। फिल्म देखने वालों को ‘धत तेरी की’ के अलावा कुछ हासिल नहीं होता।
बेजान घटनाओं में उलझी मूल कहानी
नकल में भी अक्ल की जरूरत होती है। ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’ बनाने वालों ने अक्ल लगाने के बजाय ऐसी-ऐसी बेजान घटनाओं का जाल फैलाया कि मूल कहानी उलझकर रह गई। गानों की कोई गुंजाइश नहीं थी। गाने बीच-बीच में बिना बुलाए मेहमानों की तरह टपकते हैं। फिल्म की पहले से सुस्त रफ्तार को और धीमा कर जाते हैं। एक सीन में लंदन की पुलिस अफसर (कीर्ति कुलहरि) परेशान हाल परिणीति से कहती है- ‘क्या तुम मुझे बताओगी कि चल क्या रहा है।’ कायदे से यह सवाल फिल्म बनाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि आखिर पर्दे पर क्या चल रहा है? फोटोग्राफी कुछ हिस्सों में ठीक-ठाक है, लेकिन कई जगह लाल-पीली रोशनी के लम्बे-लम्बे सीन इसका प्रभाव भी घटा देते हैं। न पटकथा सलीके से लिखी गई, न संवाद। एक भी किरदार ऐसा नहीं है, जिसे उभरने का मौका मिला हो।