कहानी की बुनियाद रीयल इंसिडेंट है, जिसे हॉरर का तड़का लगाकर पर्दे पर प्रजेंट करने की कोशिश की गई है। मुंबई के जुहू बीच पर अचानक एक शिप ‘सी बर्ड’ बिना किसी क्रू मेंबर के अपने आप आ पहुंचा है। सर्वेइंग ऑफिसर पृथ्वी (विकी कौशल) को इसकी जांच-पड़ताल का जिमा मिलता है। इधर, पृथ्वी पर्सनल लाइफ में मेंटल ट्रोमा से जूझ रहा है। दरअसल, उसकी पत्नी और बेटी की एक वॉटर एक्सीडेंट में मौत हो चुकी है, जिससे वह उबर नहीं पाया है। जब वह शिप के अंदर जाता है तो उसे कुछ अजीबो-गरीब चीजें दिखाई व सुनाई देती हैं। फिर वह इसके पीछे की हकीकत जानने में जुट जाता है।
डायलॉग्स बेअसर हैं। उनमें वह एक्स फैक्टर मिसिंग है, जो हॉरर फिल्मों में रोंगटे खड़े कर देता है। ‘जिसे तुम देख रहे हो, ये तुहारा हैलुसिनेशंस नहीं है बल्कि एक बुरा साया है’ जैसे संवाद सिर्फ खानापूर्ति करते हैं।
विकी की परफॉर्मेंस ठीक है। पूरी फिल्म उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। हालांकि कुछ दृश्यों में उनके एक्सप्रेशंस उतने प्रभावी नहीं लगते, जितनी दरकार थी। स्पेशल अपीयरेंस में भूमि सहज अभिनय से असर छोड़ जाती हैं। आशुतोष राणा का किरदार ढंग से डवलप नहीं किया गया। वह फिल्म ‘राज’ (2002) की अपनी भूमिका को दोहराते दिखे। मेहर विज की स्क्रीन प्रजेंस अच्छी है, पर वह भी खराब लेखन की भेंट चढ़ गई। आकाश की एक्टिंग ठीक-ठाक है।
भानु प्रताप सिंह न तो राइटिंग में कमाल दिखा पाए और न ही डायरेक्शन में। स्क्रिप्ट अधपकी सी है। स्क्रीनप्ले इप्रेसिव नहीं है। मूवी में फ्रेशनेस की कमी खलती है। डरावना माहौल क्रिएट करने के लिए गुडिय़ा, छिपकली की तरह रेंगती चुड़ैल, शीशे का चटकना जैसे घिसे-पिटे फॉर्मूले यूज किए गए हैं। विजुअल इफेक्ट्स से कुछ सीन अच्छे बन पड़े हैं। बैकग्राउंड स्कोर सिहरन पैदा करने में नाकाफी है। सिनेमैटोग्राफी शानदार है। संपादन क्रिस्प नहीं है।
‘भूत’ की शुरुआत उमीद जगाती है, पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है तो आभास हो जाता है कि यह ‘हॉन्टेड’ शिप डूबने वाला है। बहरहाल, इस हॉरर मूवी में भूत तो है, पर आत्मा गायब है। लिहाजा अपनी रिस्क पर ही ‘भूत’ देखें।