जिला मुख्यालय से 92 किमी दूर कच्ची उखड़ी सड़कों पर भरे गंदे पानी-कीचड़ से बाइक पर बैठकर मैं पहुंचा मुरैना-श्योपुर जिले के बॉर्डर पर स्थित आदिवासी बहुल क्षेत्र गोबरा-बेरखेड़ा पंचायत में। हर 10 किमी पर बसे आदिवासी गांवों से होकर गुजरते वक्त पेड़ की छांव में बैठे युवा-बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे और धूल-मिट्टी में सने बच्चे खेल में मस्त थे। बेरखेड़ा पंचायत के सिंगारदे गांव में एकाएक हमारी बाइक को देखकर युवा-बुजुर्ग खटिया से खड़े हो गए। ललचाई नजरों से एक पल निहारा और राम-राम करते हुए पूछा कहां से आए हो। परिचय देने के बाद सरकार, चुनाव और विकास से शुरू हुई बातचीत रोजगार पर आकर टिक गई। 36 साल के श्रीनिवास आदिवासी ने कहा, गांव में आदिवासियों के 200 घर हैं। हर घर में दो से तीन युवा हैं। यहां न जमीन है, जिस पर खेती कर सकें और न ही फैक्टरी, जहां मजदूरी मिले। बिना रोजगार मोड़ी-मोड़ा को खिलाएंगे क्या? इसलिए काम-धंधे की तलाश में 8 महीने गुजरात, महाराष्ट्र, चेन्नई चले जाते हैं, जिससे चार पैसे मिल जाते हैं।
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आईटीआई डिप्लोमा पर नौकरी नहीं है, नौकरी फिर भी नहीं मिली
इसी गांव के सुरेश आदिवासी ने कहा, बेरखेड़ा पंचायत बहेरी, छापर, गठाने, सिंगारदे, सिंगारदे खालसा आदि पुरा-पट्टे हैं, जिनमें 400 आदिवासी परिवार हैं। पंचायत में सिर्फ एक मिडिल स्कूल है। हाईस्कूल 20 किमी दूर गोबरा, हायर सेकंडरी स्कूल 32 किमी दूर रामपुरकलां में हैं। कॉलेज की सुविधा 40 से 45 किमी दूर सबलगढ़, कैलारस में है। गांव के प्रताप, सुघर सिंह, नरेंद्र सहित आधा दर्जन युवाओं ने इंटर पास के बाद आईटीआई भी कर ली है, लेकिन वे बेरोजगार घूम रहे हैं।
खटिया पर रखकर इलाज के लिए ले जाने की मजबूरी
सिंगारदे से 8 किमी दूर पथरीली चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर भूल-भुलैया सफर करते हुए खालसा सिंगारदे गांव का सफर डरा रहा था। गांव के अंदर घास-फूस से बने छप्पर व पेड़ की छांव में ग्रामीणों के झुंड में बैठे सामंत कुशवाह (66) से पूछा, कोई तकलीफ है क्या? सामंत तपाक से बोले-20 साल से सड़क मांग रहे हैं। बरसात में रास्ता बंद हो जाता है। पिछले साल शकुंतला के बच्चा होना था। दर्द से कराहने लगी तो गांव के लड़के खटिया पर लेटाकर कंधे पर रखकर अस्पताल ले गए। एंबुलेंस तो छोड़ो ट्रैक्टर भी कीचड़ में फंस जाता है।
शक्कर कारखाने के लिए मशहूर कैलारस उदासीन
इसके बाद जौरा विधानसभा क्षेत्र का जायजा लेने के लिए निकला। किसी समय शक्कर कारखाने के लिए मशहूर रहे कैलारस की स्थिति दयनीय नजर आई। यह उपेक्षित महसूस हुआ। कैलारस से पहाडग़ढ़ तक टू-लेन रोड बनाने का काम चल रहा है, जो पहाडग़ढ़ से आगे सहसराम तक जुड़ चुका है। इससे सीधे ग्वालियर, शिवपुरी तक पहुंच सकेंगे। लेकिन हमारा पड़ाव पहाडग़ढ़ मुख्यालय तक था। बाइक से नीचे उतरते ही बस स्टैंड पर चाय की दुकान पर बैठे केदार (62) से पूछा अब तो सड़क बढिय़ा बन रही है। केदार बोले- सड़क तो बढिय़ा है, लेकिन 62 पंचायतों का मुख्यालय है। कागजों में तहसील घोषित है लेकिन तहसीलदार तो 25 किमी दूर जौरा में बैठता है। खड़रियापुरा, मरा, जड़ेरू, मानपुर, बहराई, बघेवर, निरार, कन्हार, धौंधा, गैतोली सहित 10-11 गांव में आदिवासी रहते हैं। भरी दोपहरी में जंगल में धौ की लकडिय़ां बीनते उन्हें देख लेना, समझ में आ जाएगा कि कितनी मुश्किल काट रहे हैं। पीने का पानी आज भी सबसे बड़ी चुनौती है। जल-जीवन मिशन की टंकी बन गई, पानी सप्लाई अब तक चालू नाने भई।
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